Tuesday, November 14, 2017

इण्डिया में डर का कारोबार कितने हज़ार करोड़ का?

पावेल हुलका की कृति 'आल्टश्टाट'

इण्डिया में डर का कारोबार कितने हज़ार करोड़ का?

- गीता यादव और दिलीप मंडल
(बीबीसी हिंदी से साभार)

देश के महानगर के स्कूलों में एक चलन शुरू हुआ है. बिल्कुल नया नहीं है. देर-सबेर यह लहर राज्यों की राजधानियों और बाक़ी शहरों और कस्बों तक भी पहुंचेगी.

इन स्कूलों में क्लासरूम में सीसीटीवी कैमरे लग गए हैं. ये कैमरे स्कूल में सेंट्रल सर्वर्स से जुड़े हैं और यहां की लाइव फ़ीड माता-पिता के मोबाइल फ़ोन पर जा रही है.

माता-पिता न सिर्फ़ बच्चों को लगातार देख सकते हैं, बल्कि वे उनकी बातचीत भी सुन सकते हैं. ये सीसीटीवी कैमरे स्कूल के चप्पे-चप्पे पर लगे हैं.

स्कूल बसों में सीसीटीवी कैमरे लग चुके हैं और बसों में सिक्युरिटी गार्ड तैनात हो गए हैं. आख़िरी बच्चा उतारने तक कोई न कोई टीचर भी बसों में रहने लगी हैं.

वे दिन गए जब माता-पिता बच्चों को स्कूल भेजकर निश्चिंत हो जाते थे. अब उन्हें किसी पर भरोसा नहीं है. पता नहीं शैतान किस शक्ल में सामने आ जाए.

वह कोई भी तो हो सकता है. टीचर, ड्राइवर, कंडक्टर, सीनियर छात्र, माली, कैंटीन वाला, सिक्युरिटी गार्ड, प्रिंसिपल.
गुड़गांव या गुरुग्राम के एक पब्लिक स्कूल में मासूम प्रद्युम्न ठाकुर की निर्मम हत्या के बाद यह चलन और तेज होगा. माता-पिताओं का शक और गहरा होगा.

भारत में व्यक्तिगत सुरक्षा का परिदृश्य देखते ही देखते पूरी तरह बदल गया है. वे दिन गए जब जंगल और पहाड़ों से डकैत आते थे और लूटकर चले जाते थे.

अब अपराधी घोड़े पर चढ़कर नहीं आते. वे अक्सर हमारे बीच होते हैं और कई बार तो अपने ही लोग या रिश्तेदार होते हैं.
लोगों को अब भय अपने आसपास नजर आने लगा है. वे लगभग हर किसी से डरे हुए हैं. वे घर में डरे हुए हैं कि नौकर अपने बूढ़े माता-पिता को लूटकर न चला जाए.

वे फेरी वाले से डरे हुए हैं. स्कूल में उन्हें डर है कि कोई सीनियर या स्कूल का स्टाफ़ या टीचर उनके बच्चे के साथ कुछ कर न दे.

ड्राइवर उन्हें ख़तरनाक लगता है. मोहल्ले का माली उन्हें संभावित हत्यारा लग सकता है. पेंटर, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, लिफ्टमैन, यहां तक कि प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड, सभी संभावित अपराधी हैं, जिनसे लोग डरते हैं.

यहां तक कि वे परिवार के सदस्यों से डरे हुए हैं कि उनमें से कोई उनकी बच्ची का बलात्कार न कर दे. ये रिश्तेदार कोई भी हो सकता है. मामा, मौसा, भाई, पिता. कोई भी.

यह हर किसी से बचकर रहने का समय है.

फ़िल्मों को अगर समाज का आईना मानें तो पाएंगे कि सुरक्षा परिदृश्य में आया यह बदलाव वहां भी दिख रहा है.

डकैतों पर बनी आखिरी फ़िल्म को आए अरसा बीत चुका है. चाइनागेट शायद वह आखिरी हिट फ़िल्म थी, जिसमें विलेन शहर के बाहर बियावान में रहता है.

अब अपराधी समाज के अंदर हैं. परिवार के अंदर हैं. अपने अपार्टमेंट में रहता है. पड़ोसी है.

हो सकता है कि वह हर दिन आपको देखकर गुड मॉर्निंग भी बोलता हो और स्माइल भी करता हो. वह पढ़ा लिखा और प्रोफेशनल हो सकता है.

दरअसल वह कोई भी हो सकता है.

इस आसपास के भय ने सुरक्षा के मायने भी बदल दिए हैं. अब जोर इस बात पर नहीं है कि शहर या कस्बे या गांव को सुरक्षित बनाया जाए.

अब सुरक्षा की दीवार घर के पास और घर के अंदर आ गई है.

महानगरों में हर पॉश कॉलोनी की कांटेदार तार से बाड़बंदी हो चुकी है और गेट पर गार्ड तैनात हो चुके हैं. वे हर आने जाने वाली गाड़ी और आदमी का लेखाजोखा रखते हैं.

अपार्टमेंट गेट से आने वाले हर आदमी की सूचना संबंधित फ्लैट को दी जाती है और अनुमति मिलने पर ही गार्ड किसी को अपार्टमेंट में घुसने दे रहा है.

कोठियों और फ्लैट के गेट पर सिक्युरिटी सिस्टम लग गए हैं और बाहर वाले का चेहरा देखकर और उसकी बात सुनकर ही किसी को अंदर आने दिया जा रहा है.

हर संभावित जगह पर सीसीटीवी की निगरानी होती है और रिकॉर्डिंग रखी जा रही है. कई जगहों पर बायोमैट्रिक एक्सेस यानी अंगूठे या आंख की पुतली की पहचान करके अंदर आने की इजाजत दी जा रही है.

ज़ाहिर है कि ये सारा बंदोबस्त किसी गब्बर सिंह या सुल्ताना डाकू या जगीरा डकैत को रोकने के लिए नहीं है. ये सारा इंतजाम उन लोगों से सुरक्षित होने के लिए है, जो हमारे बीच के लोग हैं, हमारे काम के लोग हैं और अपने लोग हैं.

भारत में सुरक्षा का निजी कारोबार पर 2014 में कराए गए गैंट थॉमसन-फ़िक्की रिपोर्ट के मुताबिक यह बिज़नेस 40,000 करोड़ रुपये का था. सालाना बढ़ोतरी की रफ़्तार के हिसाब से इस समय यह बिज़नेस 50,000 करोड़ को पार कर चुका है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर इस बिज़नेस के बढ़ने की मौजूदा दर कायम रही तो 2020 तक सिक्युरिटी का कारोबार 80,000 करोड़ रुपये का हो जाएगा और इसमें 50 से 70 लाख लोगों को सीधे रोजगार मिलेगा. इसे देश में रोजगार देने वाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र बताया गया है.

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में भारत में सुरक्षा उपकरणों का कारोबार 8,000 करोड़ रुपये का था, जिसके 2020 तक बढ़कर 18,000 करोड़ रुपये सालाना हो जाने की उम्मीद है.

यह बिज़नेस हर चार साल में दोगुना हो जाता है. इसे देश के सबसे तेज़ बढ़ते कारोबारों में से एक माना गया है. खासकर बायोमैट्रिक सिक्युरिटी इक्विपमेंट का बाज़ार सबसे तेज़ी से बढ़ रहा है.

सवाल उठता है कि भारत के लोग इतना डर क्यों रहे हैं और किनसे डर रहे हैं? क्या उन्हें पुलिस और सुरक्षा की उन व्यवस्थाओं पर भरोसा नहीं है, जिसे राज्य यानी सरकार उपलब्ध करा रही है?

ज़ाहिर है कि लोगों का इस मायने में सरकार पर भरोसा नहीं है. दरअसल उन्होंने मान लिया है कि सुरक्षा की कुछ ज़रूरतें ऐसी हैं, जिसके लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहा जा सकता.

अपार्टमेंट की गेट पर सोसाइटी का अपना गार्ड तैनात करना या अपनी कोठी के बाहर अपना गार्ड खड़ा करना इसी सोच के तहत है. इसके अलावा शायद यह भी माना जा रहा है कि पुलिस बेशक अपराध अनुसंधान करेगी, लेकिन अपराध होने से रोकने का दायित्व सिर्फ़ पुलिस पर नहीं छोड़ा जा सकता है.

अपराध की प्रकृति में आया बदलाव इसकी सबसे बड़ी वजह है. मिसाल के तौर पर महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले यौन अपराधों को देखें, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि लगभग सभी मामलों में अपराधी या तो रिश्तेदार होगा या कोई जान-पहचान वाला.

नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो ने 2015 तक के अपराध के आंकड़े संकलित कर लिए हैं.

2015 के आंकडों के मुताबिक बलात्कार के 95% मामलों में अपराधी परिचित होता है. 27% यानी हर चौथा बलात्कारी पड़ोसी होता है. 22% बलात्कार शादी का वादा करके किए जाते हैं. हर दसवां बलात्कारी कोई रिश्तेदार होता है.

2% बलात्कार लिव इन पार्टनर या पूर्व पति करते हैं. लगभग 2% बलात्कार साथी कर्मचारी करते हैं. बाकी 30% से ज़्यादा बलात्कार भी कोई परिचित ही करता है. ज़ाहिर है कि बलात्कार जैसे अपराधों से बचने के लिए आपको अपने आसपास के लोगों से सावधान रहने की ज़रूरत ज़्यादा है.

वक्त बदलने के साथ कुछ और चीज़ें बदली हैं, जिसकी वजह से अपराध की मुख्य साइट यानी लोकेशन घर और ऑफ़िस बन गए हैं.

एटीएम, डेबिट और क्रेडिट कार्ड की वजह से लोग कैश लेकर कम चलते हैं. ज़ाहिर है कि अपराध करने वालों के लिए किसी को लूट लेना अब उतना फ़ायदेमंद नहीं होता होगा. इसके अलावा इमिटेशन जूलरी ने भी लूट और स्नैचिंग को कम लाभप्रद बना दिया है.

सार्वजनिक स्थानों पर लाइटिंग की पहले से बेहतर व्यवस्था और ट्रैवल के साधनों के अपेक्षाकृत सुरक्षित होने की वजह से भी अपराध के पैटर्न बदले हैं.

एक और चीज़ जो बदली है, वह है कि इलीट लोगों की जीवन पद्धति के बारे में वंचित लोगों को अब पहले से ज्यादा जानकारी है. ख़ासकर टीवी सीरियल और सोशल मीडिया की वजह से इलीट लोगों के कई राज, अब सार्वजनिक हैं. उनकी ठाठ, जो अब तक आम लोगों की नजरों से ओझल थी, वह खुल चुकी है.

यह बात समाज में बड़े पैमाने पर असंतोष पैदा कर रही है. इलीट लोगों के लिए सबसे बड़ा खतरा अब यहां से आ रहा है. इससे बचने के लिए वे अपनी अलग सुरक्षित दुनिया सजा रहे हैं, जिसे प्रोफेसर रणधीर सिंह 'ससेशन ऑफ़ द सक्सेसफुल' यानी 'कामयाब लोगों का अलगाववाद' कहते हैं.

भारत में चूंकि क्रांति की कोई परंपरा नहीं है, इसलिए मुमकिन है कि इस तरह उपजा असंतोष अपराध की शक्ल में बाहर आ रहा है.

इनसे बचना जरूरी है. भारत में निजी सुरक्षा के फलते-फूलते बाज़ार के पीछे एक वजह यह भी है.


(दिलीप मंडल समाजशास्त्र के शोधार्थी हैं और श्रेष्ठ कबाड़ी जमात से पुराने मेंबर हैं. गीता यादव भारतीय सूचना सेवा की अधिकारी हैं.  )

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

बचपन बच्चे और 14 नवम्बर। आज के दिन के लिये सटीक प्रस्तुति।