Friday, November 10, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - इकतीस

फ़ोटो: http://www.hindustantimes.com से साभार


बातचीत चलते-चलते पानी की समस्या पर आ टिकी थी और तमाम उपस्थित प्रतिभागियों ने अपने आपको विशेषज्ञ भूमिका में लाकर इलाके के गाँवों में पीने के पानी की कमी के कारणों को लेकर एक से एक अकाट्य तर्क दिए. परमौत और गिरधारी के हल्द्वानी-स्थित घरों में पानी की इफ़रात थी और चौबीसों घंटे उनके यहाँ नल से पानी आता था. हाँ बरसातों में कभी-कभी गौला नदी में मिट्टी और आ जाने पर जल विभाग का फ़िल्टर टैंक चोक हो जाता था और ऐसी स्थिति में नगरपालिका के टैंकर साफ़ पानी सप्लाई किया करते थे. 

झिंगेड़ी और आसपास के गाँवों में स्त्रियों के जीवन को पानी की कमी ने दसियों सालों से नरक बनाया हुआ था. वे दिन में तीन दफ़ा पानी लेने गाँवों से दूर कहीं स्थित जलस्रोतों, नौलों, गाड़-गधेरों से जाती थीं और ये जगहें उनके घरों से एक से तीन मील तक की दूरी पर थीं. सभी उपस्थित विद्वज्जन इस बात पर एकमत थे कि पहाड़ से प्लेन्स की तरफ लोगों को धकेलने के पीछे पानी और उसे इतने सालों बाद भी मुहैय्या न करा सकने वाली सरकार सबसे बड़े ज़िम्मेदार कारक थे. परमौत और गिरधारी हैरान होते इसके पहले ही जमुनादत्त जोशी ने बात आगे बढ़ाई -

"क्या झिंगेड़ी-फिंगेड़ी लगा रहे हो यार बचदा! अरे सारे पहाड़ का यही हाल हुआ. सरकार को जो क्या पड़ी ठैरी साली जो कोई तुम्हारे-मेरे घर में जाकर नल-हल फिट करेगी. है नहीं है! अब मेरा जो घर हुआ वो ठैरा ताड़ीखेत में. इजा-बाबू वहीं रहनेवाले हुए. बच्चे मैंने वहीं रखे हुए कि बुड्ढे-बुड़िया की मदद करेंगे कर के. ताड़ीखेत हुआ रानीखेत से पांच मील. रानीखेत जैसी टूरिस्ट जगे से बस्स पांच मील. समझ रहे हो! और ये अपने हरीश दाज्यू जी भी तो तीन-चार साल पैले वहीं मास्टर रहे हुए. इनसे पूछो नरक कैसा होने वाला हुआ."

ताड़ीखेत बाज़ार में गिरधारी लम्बू की बुआ रहती थी जिनके घर वह कभी नहीं जा पाया था. उसे याद आया कि हल्द्वानी आकर बुआ सबसे पहले पानी का रोना रोया करती थीं. हमेशा.

"ताड़ीखेत की भली चलाई यार जमन गुरु!" हरीश मास्टर के चेहरे पर ताड़ीखेत-केन्द्रित नोस्टाल्जिया छाने लगा. 

"अब साहब ताड़ीखेत का जो है" जमुनादत्त परमौत और गिरधारी से मुखातिब हुआ - "न तो साला गाँव हुआ न शहर. बस एक बजार जैसी हुई. अपने गांधी जी भी आये रहे ठैरे एक बार वहां. होने को वहां सब हुआ. स्कूल हुए तीन-चार, ब्रौन्ज फैक्ट्री हुई कलकत्ते की. अस्पताल हुए दो-दो, दफ्तर हुआ ब्लॉक का, मार सरकारी दफ्तर हुए जंगलात-फंगलात के कितने ही, साम को कभी-कभी जो है बाघ भी आने वाला हुआ. सब कुछ हुआ बस पानी नहीं हुआ साला."

"बिलकुल नहीं हुआ साला ..." हरीश ने हुंकारा लगाया.

"तो अब साहब ताड़ीखेत में पानी नहीं आने वाला हुआ. आप कहोगे पानी नहीं हुआ तो लोग बसे क्यों होंगे वहां. हैं नहीं है! तो पानी तो इफरात में हुआ वहां. चार-चार स्रोत हुए पानी के. एक रीखीगाड़ में हुआ, एक पपना गाँव में हुआ, तीसरा हुआ गनियाद्योली गधेरे में एस.एस.बी. दफ्तर के नीचे और और चौथा जो है अपना गगास नदी का पानी हुआ. चार-चार स्रोत ठैरे लेकिन पानी-हानी की पट्ट हुई साल भर. हफ्ते में दो-तीन दिन पाइपों में थोड़ा सा तुरतुराट जैसा होने वाला हुआ. उसी से काम चलने वाला हुआ सबका. ये हरीश दाज्यू से पूछो. ये भी तो वहीं रहते थे ऊपर वो ध्यानी जी के यहाँ किराए में ..."

हरीश मास्टर के भीतर अपने भूतपूर्व मालिक-मकान के प्रति बहुत आदर था और उन्होंने एक बार नकली खांस कर कहना चालू किया - "ध्यानीजी हुए एक्टिव आदमी. उधर जहाँ उनके घर में मैं रहनेवाला हुआ, वहां पानी वही लाये ठैरे. एक्टिव हुए बहुत बिचारे तभी तो पांच-पांच किरायेदार रखे हुए अपने घर. सुबे-सुबे उठ जाने वाले हुए तीन-साढ़े तीन बजे और रिंच-पेचकस लेकर लगे रहने वाले हुए खड़बड़-खड़बड़ करने में. कभी पाइप घुमाने वाले हुए, कभी भाग के रोड में जाकर वाल्व में खट्टखट्ट करने वाले हुए. अपना छः बजे तक पूरी डेढ़ हजार लीटर की टंकी भर जाने वाली हुई. ..."

वह ध्यानी जी की तारीफ़ में और भी कसीदे काढ़ सकता था लेकिन जमुनादत्त ने टोकते हुए कहा - "देखो हरीशदा, वैसे तो तुम्हारे ध्यानीजी भी ठीक हुए लेकिन पानी तुम्हारे इलाके में लाया हरदत्त पाठक. ना वो लखनऊ-नैनताल के चक्कर लगाता ना तुमारे वो एमेले सैप सरकारी स्कीम लाते ... लेकिन कैसा पानी लाये ठैरे जरा ये भी तो बता दो ..."

हरीश कुछ कहता, इसके पहले ही जमुनादत्त ने अपनी बात बढ़ाते हुए कहना शुरू किया - "वो ध्यानी जी वाले जिस पानी की बात हरीशदा बता रहे हैं ना, उसका ये हुआ कि बर्तन-लत्ते तो धो लो. बस पी नहीं सकने वाले हुए. और जो है गनियाद्योली के गधेरे के पानी की ऐसी बात ठैरी कि जिसने पिया उसको पीलिया हो जाने वाला हुआ. बताओ ना यार हरीशदा तुम कैसे मरते-मरते बचे थे उस दफे पीलिया के चक्कर में ... अरे वो श्रीवास्तव डाक्टर नहीं होता रानीखेत में तो आज तुम्हारा सराद चल रहा होता यहाँ ..." जमुनादत्त ने ठहाका लगाया. अपने श्राद्ध की बात सुनकर हरीश मास्टर ने मरियल सी हंसी हँसते हुए उसका साथ दिया.

"लेकिन लोग कुछ करते क्यों नहीं?" परमौत ने मासूमियत से पूछा.

"क्यों नहीं करते. खूब करते हैं लोग. लाइनमैन को घूस खिलाते हैं, जेई को घूस खिलाते हैं. जिसकी औकात होती है वो घूस खिलाता है और पानी ले आता है अपने घर में. अब क्या है दाज्यू! पानी तो सीमित ही हुआ ना. एक एक नल पे साले पचास-पचास वाल्व लगा दिए हैं. कौन से वाल्व से किस घर में पानी जाएगा इसका पता बस लाइनमैन को हुआ. लाइनमैन जो क्या हुआ भगवान हुआ साला ..."

गिरधारी और परमौत को पाइप और वाल्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. वे सिर्फ टोंटियों से परिचित थे.

"अब इस साल गर्मियों में मुझसे हमारे ग्राम प्रधान ज्यू ने कहा कि जोशीजी आप पपना गाँव वाला कनेक्शन भी लगा लो अपने यहाँ. जंगलात डिपाटमेंट के भी एक-दो लोग वहां थे. तो मैंने उनसे पूछ लिया कि पपना गधेरे का पानी पीने लायक है भी या उसका भी गनियाद्योली के गधेरे वाला हिसाब है. तो साब ..." एक लंबा पॉज़ देते हुए अपनी बात को नाटकीय अंदाज़ देते हुए जमुनादत्त जोशी ने आगे कहाँ - "जंगलात वाले कहने लगे कि पानी तो साफ़ ही हुआ बस गधेरे में जंगली सूअर आ के नहाने वाले हुए दिनमान भर. अब बताइये!"

सूअर वाली बात पर गिरधारी लम्बू हंसने ही वाला था पर उसने देखा कि सभी लोग गंभीर मुखमुद्रा बनाए जमुनादत्त  को देख रहे थे. वह भी चुप हो गया. मिनट भर की चुप्पी के बाद जमुनादत्त ने सारी बातों का निचोड़ निकालते हुए कहा - "नरक ठैरा साला ताड़ीखेत में!"

बचेसिंह ने मोहर लगाते हुए कहा - "नरक तो हमारे झिंगेड़ी में भी हुआ जोस्ज्यू! क्या करते हो?"

"करना क्या है. पानी-हानी जो है जितना है और जब तक आ रहा है, आ रहा है. उसके बाद सभी ने जाना हुआ नीचे हल्द्वानी-रामनगर को. काम-धंधे का जुगाड़ बैठेगा तो बैठेगा नहीं तो भीख मांग के जिन्दगी काटनी हुई साली. पानी तो मिलेगा ना साला."  - बचेसिंह ने अपनी तरफ से जोड़ा.

यह मनहूस और निराश कर देने वाला पानी-प्रकरण अनंत काल तक जारी रह सकता था पर गोपालसिंह, जो संभवतः इस पानी पुराण की सभी डीटेल्स से अच्छे से पूर्वपरिचित था, उबासी लेता हुआ बोला - "एक बीबन बिचारे से उम्मीद थी, वो भी पगली गया रहा ..."

बातचीत बीबन और उसके पागलपन और उसके लेफ़्ट-राईट भूदान-कार्यक्रम से होती हुए पुनः नब्बू डीयर और उसके परिवार की बदकिस्मती पर केन्द्रित हो गयी. बेमुरव्वत ज़माने और कलयुग के आ चुकने को लेकर हुआ यह दूसरा अधिवेशन घंटे भर चला जिसकी परिणति गोपालसिंह की पत्नी द्वारा थालियों में भोजन परोसे जा चुकने की सूचने दिए जाने से हुई.

बातों-बातों में साढ़े तीन से ऊपर बज चुका था. दोपहर के खाने का समय बहुत पहले जा चुका था लेकिन खाना बन चुकने की सूचना ने परमौत और गिरधारी को प्रसन्न किया. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उन्हें उस अजनबी गाँव में भोजन मिलेगा. जो भी हो उन्हें भूख लग आई थी और उन्होंने आश्चर्य मिश्रित औपचारिकता का प्रदर्शन करते हुए "अरे इसकी क्या ज़रुरत थी" और "हम तो सुबह ही खाकर चले थे" जैसे कुछ वाक्य बोले और मेज़बान के पीछे-पीछे उसकी रसोई का रुख किया.

सुस्वादु भोजन खाकर परमौत और गिरधारी तृप्त हुए और गोपालसिंह एंड पार्टी को समुचित कृतज्ञता ज्ञापन करने के उपरान्त बचेसिंह की अगुवाई में वापस झिंगेड़ी की राह लग लिए. 

गाँव की सरहद छोड़ते ही थोड़ा सा एकांत हुआ और ढलानों पर मेहनत से बनाए गए सीढ़ीदार खेतों पर उग रहे गेहूं की कच्ची हरियाली को देखकर परमौत को अचानक पिरिया का ख़याल आया. पिरिया का ख़याल आने से उसे थोड़ी हैरत हुई. फिर उसे एक पिक्चर का सीन याद आया जिसमें डूबते सूरज को देखते हुए नायक को नायिका की याद आती थी और वह गाना गाने लगता था. परमौत ने काफी देर तक दिमाग में जोर डाला कि गाना उसे याद आ जाए पर ऐसा नहीं हुआ. थोड़ी असहायता महसूस करते हुए परमौत ने पिछली जेब में हाथ डाला और पिरिया के रूमाल को महसूस किया. बुरी तरह चिमुड़ गए इस रूमाल को हल्द्वानी पहुँचते ही अच्छे से धो-धा कर प्रेस किया जाना है - परमौत ने अपने आप से कहा और मन ही मन पिरिया से वार्तालाप करना शुरू कर दिया - पिरिया उसे उलाहना दे रही है कि वह उसे लेकर क्यों नहीं गया.  वह पिरिया से कह रहा है कि वह उसे मोहब्बत करता है और उसे ऐसी जगह कैसे ला सकता है जहां न पानी आता है न बिजली. उसका हाथ थाम कर पिरिया उससे कहती है कि उसके अन्दर बहुत ताकत है और वह चाहे तो उसे आज़मा कर देख सकता है. इस दिवास्वप्नी वार्तालाप के भीतर एक दूसरा स्वप्न शुरू हो जाता है जिसमें वह और पिरिया झिंगेड़ी गांव में एक अस्पताल का उद्घाटन कर रहे हैं जिसे उन दोनों ने मिल कर बनाया है. अस्पताल के बाहर पानी के दर्ज़न भर नल लगाए गए हैं ... सारे गाँव वाले इकठ्ठा हैं और नब्बू डीयर की अगुवाई में दोनों का स्वागत कर रहे हैं ....

परमौत को ठोकर लगी और वह गिरता-गिरता बचा. गिरधारी और बचेसिंह उससे थोडा आगे किसी गहरे वार्तालाप में व्यस्त थे. सम्हल कर पहाड़ की चोटी पर पहुँचने के बाद वहां से नीचे देखने पर कच्चे रास्ते के मोड़ पर अटकी हुई शेरसिंह लमगड़िया की दुकान दिखने लगी थी. परमौत को अफ़सोस हुआ कि उनकी वापसी यात्रा के लिए बचेसिंह ने कोई दूसरा रास्ता क्यों नहीं पकड़ा. वह किसी भी हाल में उस बेवकूफ फौजी की शक्ल देखना नहीं चाहता था.

ढलान उतर रहे गिरधारी लम्बू ने पलटकर देखा और परमौत को पीछे छूट गया देखकर वहीं रुक गया. बचेसिंह आगे निकल गया था. पास पहुंचकर बचेसिंह को आगे जाता देखते परमौत ने सवालिया निगाह डालते हुए गिरधारी को देखा तो सकुचाता हुआ गिरधारी बोला - "वो बुड्ढे के यहाँ से रात के कोटे के बारे में पूछने गया है बचदा."

"मतलब?" परमौत अभी तक पिरिया के साथ था.

"अरे बोतल यार परमौद्दा. बोतल!"

"अच्छा वो! ... ठीक हुआ ..." कहते हुए परमौत ने अपना बटुवा निकाला और गिरधारी को थमाते हुए हिदायत दी - "जल्दी जा के बचदा को पैसे दे आ और उससे कहना कि अगर मिल जाएं तो दो ले लेगा. एक बिचारे को गिफ्ट दे जाएंगे."
एक बार क्रम टूट जाने पर वह पिरिया के विचारों में धंसना चाहकर भी वैसा नहीं कर सका. उसने अपने चारों तरफ निगाह डाली - पेड़ों पर उतरती शाम के साए बैठना शुरू कर रहे थे, दूर कहीं से बच्चों के खेलने की आवाज़ आ रही थी और घर लौट रहे मवेशियों की घंटियों की टनटन हवा में घुलने लग गयी थी. परमौत उदास हो आया. गाँव की कहानियों ने उसे द्रवित कर दिया था. वह चाहकर भी कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं था. उसने अपने को संयत किया और खुद को डपटते हुए कहा कि फिलहाल उसने नब्बू डीयर के अलावा किसी के बारे में नहीं सोचना है.

सूबेदार की दुकान से बोतलें अपनी दोनों बगलों में अड़ाए हुए बचेसिंह बाहर निकलता दिखा. उसके पीछे-पीछे गिरधारी लम्बू बाहर आया और उसने वहीं से आंख मारकर इशारा किया कि काम बन गया है. वह शेरसिंह की दूकान के आगे पहुंचा तो उसने पाया कि खूसट फ़ौजी का स्वर उन्हें अपना ग्राहक बना चुकने के बाद बदल गया है. गल्ले में बैठे-बैठे उसने परमौत को चापलूसी से संबोधित करते हुए कहा - "एक कप चहा पी जाते हो साब क्या था."

परमौत ने ऊपर नहीं देखा, असमंजस में कुछ हाँ-हूँ जैसा कहा और आगे बढ़ गया.

"मेरे खयाल से वो आपके दोस्त का बाप मेरे छोटे चचा का  लड़का होना चाहिए ... वैसे तो जो है दुनिया भर में फैले ठैरे लमगड़े वाले ..." खुद को ज्यादा ज़्यादा भाव न दिया जाता देख पीछे से सूबेदार ने ऊंची आवाज़ में कहना शुरू कर दिया था.

(जारी)

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह बहुत बढ़िया ।

Divyesh said...

अहा। ..अदरख -कालीमिरच जैसी गुड़ की चाहा वाली बात कर दी ठहरी गुरु। बूढ़े साधू का सात साल वाला आशीर्वाद मिले बच्चा। रमे रौ !!!!