Tuesday, June 28, 2016

विन्सेंट वान गॉग की गेहूं सीरीज़

सां रेमी दे प्रोविंस के अस्पताल में पागलपन के दौरों से जूझ रहे विन्सेंट वान गॉग ने ये चित्र अपने कमरे की खिड़की में बैठकर बनाए थे.  

अस्पताल की सबसे ऊपरी मंजिल के उसके बेडरूम की खिड़की से यह दृश्य दीखता था - खिड़की के ठीक नीचे पत्थर की दीवारों से घिरा एक खेत जिसके पार्श्व में अस्पताल की दीवारें हुआ करती थीं. उसके पार ओलिव के बगीचे थे और अंगूर के खेत  जो लेस आल्पीयेस नामक एक पहाड़ी की जड़ तक पहुंचते थे. मई 1889-90 के दौरान बने ये चित्र विन्सेंट के काम में तब तक आ गए परफेक्शन के नमूने हैं.





















Thursday, June 23, 2016

बट आई होप मी नेबर वुडंट डू आईटी अगेन

कैलिप्सो सीरीज में सुनिए किंग रेडियो का गाया गीत 'पड़ोसी'. यह गीत 8 अप्रैल 1936 को न्यूयॉर्क में जेराल्ड क्लार्क और उनके कैरिबियाई सेरेनेडर्स ने रेकॉर्ड करवाया था.



नज़्में जली हुई खाल के जिस्म से उतर जाने जैसा सुकून बख्शती हैं


मैं नज़्में क्यों लिखता हूँ

– नोमान शौक़

            मुझे चाहिए कुछ बोल
            जिन का एक गीत बन सके
            ये गीत मुझे गूंगों को देना है
            जिन्हें गीतों की क़दर मालूम है
            लेकिन जिन का
            आप के हिसाब से गाना नहीं बनता
            गर आप के पास नहीं है कोई बोल, कोई गीत
            मुझे बकने दें में जो बकता हूँ
            -पाश
जिन्हें कोई ख़ुशी ना दे सका उन्हें दुख देने से डरता हूँ  बहुत बुज़दिल हूँ मैं इस लिए ख़ुदकुशी न कर सका. मैं इंसानों से दूर किसी जंगल में जा कर बस जाना चाहता हूँ ता कि ख़ुद को और इस कायनात को अच्छी तरह जान सकूं , लेकिन मैं गौतम नहीं बन सका. इन सब के बावजूद आम आदमी बन कर जीने से मुझे हौल आता है आम आदमी जो अपनी ज़िंदगी में अपनी जैसी दो चार ज़िंदगियों का इज़ाफ़ा करता है और मर जाता है. एक आम आदमी शायर से ज़्यादा हस्सास और जज़बाती हो सकता है लेकिन उस के पास ख़ुद को ज़ाहिर करने की जुर्रत नहीं होती या फ़न नहीं होता. शायरी शायर का ख़ुसूसी इख़तियार होती है आम आदमी का नहीं . आम आदमी तो ख़ुद को हालात के मुताबिक़ ढाल कर कश्मकश से छुटकारा हासिल कर लेता है लेकिन शायर आख़िरी वक़्त तक हालात से लड़ता है. अंजाम की परवाह किए बगै़र. मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ अपने लिखे हुए लफ़्ज़ों में. यही वो ललक है जो मेरी रूह के किसी कोने में छुपी बैठी है और बार बार लिखने पर मजबूर करती है.
लिखना मेरा शौक़ नहीं मेरी मजबूरी है. मिज़ाजन तन्हाई पसंद हूँ. खासतौर से रात मुझे तख़लीक़ी हरारत से लबरेज़
कर देती है. तख़लीक़ के लम्हे में बिलकुल ही अकेला रहना चाहता हूँ ... उतना अकेला कि कभी कभी अपनी मौजूदगी भी गिरां गुज़रने लगती है . हर नज़म के बाद शायर का नया जन्म होता है. नज़म मुकम्मल हो जाने के बाद में भी ख़ुद को बहुत हल्का महसूस करता हूँ , बादलों के बीच तैरता हुआ. सरशारी की ये कैफ़ीयत कभी कभी इतनी शदीद होने लगती है कि गुनगुनाने लगता हूँ अपनी बेसुरी आवाज़ की परवाह किए बगै़र. अपनी ही नज़म की उंगली पकड़ कर पहरों सैर करता हूँ और हैरान नज़रों से देखता हूँ इस दुनिया को.
लिखते वक़्त मुझे लफ़्ज़ों के लिए बहुत मशक़्क़त नहीं करनी पड़ती क्योंकि ख़ुशक़िसमती से मुझे उर्दू और हिन्दी दोनों ज़बानों की धूप छाओं यकसाँ तौर पर मयस्सर हुई जिस का क्रेडिट बहुत हद तक मेरे शहर आरा (बिहार) को जाता है जहां मुझे दोनों ज़बानों के बेहतरीन लिखने वालों का क़ुरब हासिल रहा. लिखते वक़्त में ग्रामर और अलफ़ाज़ के दर-ओ-बस्त का तो ख़्याल रखता हूँ लेकिन किसी भी ज़बान का कोई मुरव्वज लफ़्ज़ मेरे लिए शजर ममनूआ नहीं .
में अपने जज़बात-ओ-ख़्यालात और महसूसात पर ख़ुद ही सवालिया निशान लगाता चलता हूँ और उन के जवाब तलाश करता हूँ . अपने गर्द-ओ-पेश की माद्दी हलचल, ख़ाब और ख्वाहिशें मुझे अपना नुक्ता-ए-नज़र ज़ाहिर करने के लिए मजबूर करती हैं . किसी भी अज़म से मेरी कोई वाबस्तगी नहीं अगर है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ शायरी से इसी लिए जिस मौज़ू पर जिस तरह लिखना चाहता हूँ लिखता हूँ . शायरी मुझे ज़िंदगी से भर देती है और मुझे ये ख़ुशफ़हमी है कि में भी शायरी को ज़िंदगी दे रहा हूँ .
तशद्दुद, झूट, अय्यारी और मक्कारी से मुझे सख़्त नफ़रत है. जहां दूसरे शायर इस नफ़रत को बड़ी तहज़ीब से शाइस्तगी और सब्र के साथ ज़ाहिर करते हैं वहीं मुझ में कमी ये है कि मैं झुंझलाता हूँ , गु़स्सा करता हूँ , चीख़ता हूँ और समझता हूँ कि यही शायरी है.मेरा रद्द अमल बहुत जारिहाना और तीखा होता है क्योंकि मैं अपने बातिन की कड़वाहट को बहुत देर तक सँभाले नहीं रख सकता. मुझे सरहदों और दायरों में जीना पसंद नहीं . मैं पूरी इंसानियत को एक कुन्बे की शक्ल में देखता हूँ इस लिए मुझे बामियान में बुध की मूर्ती तोड़े जाने की हरकत भी उतनी ही मज़मूम लगती है जितनी बाबरी मस्जिद की शहादत, ११ सितंबर का सानिहा भी इतना ही ग़ैर इंसानी और वहशयाना लगता है जितना इराक़ पर हमला, गुजरात भी इतने ही गहरे ज़ख़म लगाता है जितना कश्मीर में बेगुनाह लोगों का क़तल-ए-आम.
फ़िर्कापरस्ती और फ़ाशज़म, दहश्तगर्दी को ग़िज़ा फ़राहम करते हैं . इंसानियत का उन से बड़ा कोई दुश्मन नहीं . मैं अपने लफ़्ज़ों को दुश्मनों से लड़ने के लिए असलाह के तौर पर नहीं इस्तिमाल करता बल्कि उन्हें चींटियों की तरह रेंगना सिखाता हूँ ताकि दुश्मन की सूंड में घुस कर इस का ख़ातमा कर सकें .मेरा मानना है कि इन राक्षसों को हरा कर ही इंसानियत अपने लिए नजात के रास्ते खोल सकती है. इस नाम निहाद तरक़्क़ी और ग्लोबलाइज़ेशन के अह्द में मेरे आस पास जो कुछ रौनुमा हो रहा है ख़ुद को इस से अलग थलग रखना मेरे बस में नहीं अलबत्ता में ऐसे वाक़ियात को तारीख़ी हक़ायक़ के तौर पर नहीं बल्कि इंसानी अलमीए की शक्ल में देखता हूँ .
मैंने इश्क़िया नज़्में नहीं लिखी क्योंकि किसी हीर के दोपट्टे में मेरे नाम की कोई गांठ नहीं लेकिन इश्क़ का जो मकरूह और हैबतनाक चेहरा मैंने महानगर में देखा उस की झलक कहीं कहीं मेरी नज़मों में ज़रूर मिलती है. जिस्म से एक नौ की बेज़ारी मेरी फ़िक्र को रूह पर मर्कूज़ करती है. सारफ़ीत ने शायरी के मंज़र नामे में जो हलचल पैदा की है वो मेरे लिए या किसी भी शायर के लिए तशवीश का बाइस है. यहां रिश्ते नाते, सुख दुख सब किसी प्रोडक्ट का रूप ले बैठे हैं. कब क्या किस तरह ख़रीदा और बेचा जा सकता है, आम आदमी धीरे धीरे जानने लगा है.
मेरा क़ारी भी आम आदमी है, लेकिन वो आम आदमी हरगिज़ नहीं जो इंसानों के इस जंगल का हिस्सा है ... जिस की अपनी कोई सोच नहीं, जो वक़्त के तक़ाज़ों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालता रहा है बल्कि वो आदमी जो बाशऊर है, जिस की सोच का दायरा वसीअ है और मयार बुलंद. बड़ी और अच्छी शायरी की बक़ा के लिए क़ारी का शायर के साथ साथ चलना ज़रूरी है और हर क़ारी हर शायर के तख़लीक़ी सफ़र में इस का शरीक नहीं हो सकता. अच्छी शायरी हर क़ारी से हमकलाम नहीं होती.
मेरे नज़दीक इस मुश्किल वक़्त में शायरी करना क़ब्रिस्तान में वाइलन बजाने जैसा अमल है. आज इस से ज़्यादा चैलेंज भरा कोई और काम नहीं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यलग़ार के इस अह्द में शायर का असली सरोकार ये है कि शायरी का क़ारी नापैद होती मख़लूक़ के ज़ुमरे में आ गया है. जंग, दहश्तगर्दी,सारफ़ीयत, फ़साद और बेरोज़गारी से नबरदआज़मा क़ारी शायरी की तरफ़ देखना भी पसंद नहीं करता ता वक़त ये किसी फ़िल्म या एलबम में नीम बरहना परीयों के रक़्स के साथ ना हो, वर्ना जहन्नुम में जाये शायर और उस की शायरी.
कभी कभी मैं महीनों बल्कि बरसों नहीं लिखता और अगर लिखता हूँ तो एक दाख़िली तरंग में जब तख़्लीक़ियत पूरे उबाल पर होती है. लिखने के लिए मैं ख़ुद को कभी भी ज़बरदस्ती तैयार नहीं करता. ये भी पहले से तए नहीं होता कि मैं किस मौज़ू पर लिखने जा रहा हूँ . लफ़्ज़ क़ुतबनुमा की तरह धीरे धीरे मंज़िल-ए-मक़सूद की तरफ़ इशारा करते रहते हैं और में आगे बढ़ता जाता हूँ ... पूरी शिद्दत और इन्हिमाक के साथ. लिखते वक़्त में किसी ख़्याल को इस के लाओ लश्कर यानी बुनियादी तौर से ख़्याल के हमराह आने वाले लफ़्ज़ों के साथ ही जगह देता हूँ . काट छांट और तरमीम-ओ-तंसीख़ का मरहला नज़म या ग़ज़ल मुकम्मल होने के बाद शुरू होता है और कभी कभी महीनों बल्कि बरसों ख़त्म नहीं होता.
मैंने ग़ज़लें भी लिखी हैं और नज़्में भी. अपने सत्ताईस साल के अदबी सफ़र में मैंने महसूस किया कि ग़ज़लें मेरे एहसास-ए-जमाल को रास आती हैं और नज़्में जली हुई खाल के जिस्म से उतर जाने जैसा सुकून बख्शती हैं . मेरे लिए दोनों अपनी अपनी जगह अहम हैं .
आम तौर से में तभी लिखता हूँ जब बेहद परेशान होता हूँ ... दाख़िली या ख़ारिजी वजूहात से. शायद इसी लिए मेरी शायरी में ख़ुशी, सरशारी और इतमीनान के अनासिर ख़ाल-ख़ाल हैं हालाँकि मेरी शदीद ख़ाहिश है कि मैं ज़िंदगी के इन बेइख़्तयार लम्हों को शायरी के क़ालिब में ढाल सकूं जिन की धुँदली सी परछाईऐं कभी कभी ज़हन के पर्दे पर तैरती नज़र आ जाती है.


Wednesday, June 22, 2016

ब्रिंग डाउन द लंडन थियेटर


1930 के दशक तक त्रिनिदाद में कैलिप्सो पूरी तरह स्थापित हो चुका था और साउंड रेकॉर्डिंग्स के प्रचार-प्रसार में व्यापक वृद्धि होने के बाद अंग्रेज़ी बोलने वालों के बीच खासी लोकप्रियता पा चुका था. इसकी जड़ें अठ्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में मौजूद थीं जन फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों ने हाइती, मार्टीनीक और गुआदालूपे से लाये गुलामों के साथ यहाँ बसना शुरू किया था. फ्रांसीसी भाषा का अफ्रीकी संस्करण उन्नीसवीं शताब्दी के उत्सवों-कार्निवालों में गाये जाने वाले गीतों की भाषा बन गया था. 1900 के आसपास इसकी जगह अंग्रेज़ी ने ले ली थी.

कैलिप्सो गानों में जीवन को लेकर खासा पक्षपातपूर्ण नज़रिया देखने को मिलता है. हालांकि जहाँ-जहां प्रशंसा करने की दरकार होती वैसे बोल भी रचे जाते थे लेकिन अमूमन कैलिप्सो-गायक अपने को एक पत्रकार, स्तंभकार, नैतिकतावादी और व्यंग्यकार की भूमिका में रखना पसंद करते थे. स्कैंडल, विनाश, राजनीति, सैक्सुअल भेदभाव और स्थानीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे गीतों के विषय बना करते. कभी-कभी गायक अपने बारे में भी गीत बनाया करते थे. 1930 का दशक भयानक मंदी का दौर था और लोगों में जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पोर्ट ऑफ़ स्पेन के बाज़ारों से खरीद पाने लायक सम्पन्नता पा सकना इस गीतों के बोलों का मुख्य आधार बन गया.

चूंकि सामाजिक ढाँचे में इन कैलिप्सो गायकों की स्थिति अति-वंचितों की थी, अपने आप को बेहतर महसूस करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने लिए लायन, टाइगर, अत्तिला, एक्जीक्यूटर, इनवेडर और रेडियो जैसे उपनाम रखे. इनके गाने आम तौर पर किसमस के बाद होने वाले कार्निवाल को ध्यान में रखकर लिखे जाते थे.

हालांकि 1912 के बाद से ही कैलिप्सो गीत यदा-कदा रेकॉर्ड किये जाने लगे थे पर 1934 के उपरान्त द्वीप के कैलिप्सो गायकों में नियमित रेकॉर्ड करना शुरू कर दिया था. उस साल लायन, अत्तिला और हान को न्यूयॉर्क ले जाया गया जहाँ उन्होंने कार्निवाल के अपने हॉट गानों के रेकॉर्ड्स तैयार करने का काम मिला. यह सिलसिला 1941 तक चला. हर वसंत में या तो गायक न्यूयॉर्क जाया करते या अमेरिकी कम्पनियां पोर्ट ऑफ़ स्पेन में आकर डेरा जमा लेतीं.

आपको उसी दौर में रेकॉर्ड किये गए कुछ क्लासिक्स आज से कबाड़खाने पर सुनवाए जाएंगे.

आज पेश है 'द लायन' का गीत "बा बू ला ला". त्रिनिदाद में लकड़ी के बने घर अक्सर आग के शिकार हो जाया करते थे. यह नाटकीय विषय अक्सर कैलिप्सो गीतों में आ जाता था जिनके उदाहरण के तौर पर इस गीत का ज़िक्र किया जाता है. इस विषय पर लिखे गए अन्य महत्वपूर्ण गीतों में विल्मोथ हुडिनी का "मामा, कॉल द फायर ब्रिगेड" और जुलियन व्हाईट रोज़ का "आयरन ड्यूक इन द लैंड" खासे प्रसिद्ध हुए.

ये रहे गीत के बोल -

Burn down the London Theatre, one
Ah, burn down the big Empire, two
Burn down the London Theatre, three
You burn down the big Empire
Ba boo la la
Make attempt to burn down  the theatre

Make an attemppt to burn down the theatre
Serving seven years down at Carrers

I never see such conspiracy
Burn the theatres in this colony

I talk about (Almond?) that is bad 
Ba boo la la in de land of Trinidad


आप भी लाहौर जा कर अब ये कहेंगे कि यगाना से मिले थे

मिर्ज़ा यास यगाना चंगेज़ी के हालात

- मुहम्मद वारिस


यास यगाना चंगेज़ी (1883 पटना - 1956 लखनऊ)

यगाना एक क़ादिर-उल-कलाम शायर थे लेकिन जब वो पिछली सदी के अवाइल में अज़ीम आबाद से हिज्रत कर के लखनऊ आए तो लखनऊ वालों ने उन की बिलकुल ही क़दर ना की. उस वक़्त लखनऊ वाले अपने बुरे से बुरे शायर को भी बाहर वाले अच्छे से अच्छे शायर के मुक़ाबले में ज़्यादा एहमीयत देते थे और यगाना चूँकि बाहर वाले थे सौ लखनऊ वालों को एक आँख ना भाए.

बाक़ौल मजनूं गोरखपोरी, लखनऊ के लोगों में इतना ज़र्फ़ कभी ना था कि किसी बाहर के बड़े से बड़े शायर को लखनऊ के छोटे से छोटे शायर के मुक़ाबले में कोई बुलंद मुक़ाम दे सकीं. (ग़ज़लसरा, नई दिल्ली 1964-ए-बहवाला चिराग़-ए-सुख़न अज़ यगाना, मजलिस-ए-तर्के-ए-अदब, लाहौर, 1996-ए-).

और यहीं से यगाना और लखनऊ के शोअरा के दरमयान एक ऐसी चशमक शुरू हो गई जो यगाना की मौत पर भी ख़त्म ना हुई, मज़ीद बरआं ये कि उस वक़्त लखनऊ के शोअरा ग़ालिब के रंग में रंगे हुए थे और अपने हर इस शायर को मस्नद-ए-इलम-ओ-फ़ज़ल पर बिठा देते थे जो ग़ालिब के रंग में कहता था चाहे जितना भी बुरा कहता था सौ यगाना की अपनी महरूमी के सबब ग़ालिब से भी दुश्मनी पैदा हो गई और आख़िरी उम्र तक ग़ालिब के कलाम में नुक़्स तलाश करते रहे और उन का इज़हार करते रहे.

लेकिन हमेशा की तरह, अदबी चशमकों में सिर्फ़ धूल ही नहीं उड़ती और काग़ज़ सामने रख कर एक दूसरे के मुँह पर सिर्फ़ स्याही ही नहीं मली जाती बल्कि उन चशमकों से कुछ ऐसे नवादिर का भी ज़हूर होता है जो शायद आम हालात में कभी मस्नद-ए-शहूद पर ना आते और इन्ही में यगाना की इल्म-ए-उरूज़ पर लाज़वाल और अथार्टी का दर्जा हासिल करनेवाली किताब चिराग़-ए-सुख़न है जो उन्हें मारकों की यादगार है जिस के सर-ए-वर्क़ पर मरहूम ने लिखा था.

            मज़ार-ए-यास पे करते हैं शुकर के सजदे
            दाये ख़ैर तो क्या अहल-ए-लखनऊ करते

काग़ज़ों पर स्याही ख़ैर मली ही जाती है, लेकिन इस मज़लूम अलशारा के साथ एक ऐसा वाक़िया भी हुआ कि किसी अहल-ए-क़लम के साथ ना हुआ होगा. उन्हों ने एक अख़बार में एक मज़मून लिखा जिस में एक फ़िरक़े के ख़िलाफ़ कुछ तुंद-ओ-तेज़-ओ-मुतनाज़ा जुमले थे सो क़लम की पादाश में धर लिए गए, जिस मुहल्ले में रहते थे वहां इसी फ़िरक़े की अक्सरीयत थी, और चूँकि थे भी बे यार-ओ-मददगार, सौ अहिल्या न-ए-मुहल्ला ने पकड़ लिया, मुँह पर स्याही मली, जूतों का हार पहनाया, गधे पर सवार किया और शहर में जलूस निकाल दिया.

मुदीर नुक़ूश, मुहम्मद तुफ़ैल ने यगाना से उन के आख़िरी दिनों में मुलाक़ात की थी, इस मुलाक़ात की रूदाद उन्हों ने अपनी किताब जनाब में यगाना पर ख़ाका लिखते हुई लिखी है, मज़कूरा वाक़िया का ज़िक्र कुछ यूं आया है.

बैठे बैठे हँसने लगे और फिर मुझ से पूछा. आप ने मेरा जलूस देखा था?

कैसा जलूस?

अजी वही जिस में मुझे जूतों के हार पहनाए गए थे, मेरा मुँह भी काला किया गया था और गधे पर सवार कर के मुझे शहर भर में घुमाया गया था.

अल्लाह का शुक्र है कि मैंने वो जलूस नहीं देखा.

वाह साहिब वा, आप ने तो ऐसे अल्लाह का शुक्र अदा किया है जैसे कोई घटिया बात हो गई हो, सोचो तो सही कि आख़िर करोड़ों आदमीयों में से सिर्फ़ मुझी को अपनी शायरी की वजह से इस एज़ाज़ का मुस्तहिक़ क्यों समझा गया? जब कि ये दर्जा ग़ालिब तक को नसीब ना हुआ, मीर तक को नसीब ना हवा में चाहता था कि मीरज़ा साहिब इस तकलीफ़देह क़िस्सा को यहीं ख़त्म कर दें मगर वो मज़े ले लेकर बयान कर रहे थे जैसे उन्हों ने कोई बहुत बड़ा कारनामा सरअंजाम दिया हो और इस के बदले ये गिरां क़दर इनाम पाया हो.

ये वाक़िया बयान करने के बाद फ़ौरन दो ग़ज़ला के मूड में आ गए. जी हाँ जनाब, आप के लाहौर में भी गिरफ़्तार हुए थे.

वो क़िस्सा किया था.

जनाब क़िस्सा ये था कि मीरज़ा यगाना चंगेज़ी यहां से कराची का पासपोर्ट ले के चले थे और लाहौर पहुंच कर अपने एक दोस्त के साथ पंजाब से निकल कर सरहद पहुंच गए थे, वापसी पर गिरफ़्तार कर लिया गया. (एक दम जमा से वाहिद के सीगे पर आ गए). इक्कीस रोज़ जेल में बंद रहा, हथकड़ी लगा कर अदालत में लाया गया, पहली पेशी पर मजिस्ट्रेट साहिब ने नाम पूछा. मैंने बढ़ी हुई दाढ़ी पर हाथ फेर कर बड़ी शान से बताया. यगाना.

साथ खड़े हुए एक वकील साहिब ने बड़ी हैरत से मुझ से सवाल किया. यगाना चंगेज़ी?.

जी हाँ जनाब.

ये सुनते ही मजिस्ट्रेट साहिब ने (ग़ालिबन आफ़ताब अहमद नाम बताया था) मेरी रिहाई का हुक्म सादर फ़र्मा दिया.
जब रहा हो गया तो जाता किधर? और परेशान हो गया, मजिस्ट्रेट साहिब ने मेरी परेशानी को पढ़ लिया, मैंने उन से अर्ज़ क्या, मेरे तमाम रुपय तो थाने वालों ने जमा कर लिए थे, अब मुझे दिलवा दीजीए. इस पर मजिस्ट्रेट साहिब ने कहा, दरख़ास्त लिख दीजीए. मेरे पास फूटी कौड़ी ना थी, काग़ज़ कहाँ से लाता और कैसे दरख़ास्त लिखता, इस पर बह कमाल-ए-शफ़क़त मजिस्ट्रेट साहिब ने मुझे एक आना दिया और मैंने काग़ज़ ख़रीद कर दरख़ास्त लिखी जिस पर मुझे फ़ौरन रुपये मिल गए. आप लाहौर जाएं तो आफ़ताब अहमद साहिब के पास जा कर मेरा सलाम ज़रूर अर्ज़ करें.


और हाँ आप भी लाहौर जा कर अब ये कहेंगे कि यगाना से मिले थे, आप यगाना से कहाँ मिले हैं? यगाना को गोश्त पोस्त के ढाँचे में देखना ग़लत है, यगाना को इस के शेअरों में देखना होगा, यगाना को इस टूटी हुई चारपाई पर देखने की बजाय इस मस्नद पर देखना होगा जिस पर वो आज से पच्चास बरस बाद बिठाया जाएगा.

यगाना की मज़लूमियत यहीं ख़त्म नहीं होती, उन को मौत के बाद भी ना बख्शा गया, उनका जनाज़ा पढ़ना हराम क़रार दे दिया गया और कहा जाता है कि फ़क़त कुछ लोग ही उन के जनाज़े में शामिल थे.

Tuesday, June 21, 2016

दूसरे हल्द्वानी फिल्म समारोह की फ़िल्में - 2

अ चॉइस इन द हिमालयाज़

67 मिनट  | 2012                                                                             निर्देशक  | कैथरीन अडोर-कान्फ़ाइनो

कुमाऊं में एक सुदूर गाँव है दिगोली. पिछले पन्द्रह सालों से दिगोली के आसपास के के इलाकों में मूगा रेशम के उत्पादन का कार्य कर रही कोओपरेटिव संस्था अवनिवहां के विकास में एक नयी रोशनी बनकर उभरी है. पिछले पन्द्रह सालों से अवनि ने महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया है. इस संस्था में काम करने वाली हेमा के जीवन के सामने दो रास्ते हैं या तो वह अपने माँ-बाप की देखरेख करने के लिए परम्परागत तरीके से खेतों पर काम करते रखना जारी रखे या अवनि में रेशम-उत्पादन इत्यादि का काम सीखती रहे. एक प्रदर्शनी में अवनि के उत्पादों की बिक्री करने के लिए हेमा को दिल्ली जाने का अवसर मिलता है. वहां से जब वह घर वापस लौटती है, उसके अनुभव का दायरा और भी बड़ा हो चुका होता है. 29 की आयु में जब वह विवाह के हिसाब से बड़ी समझी जाती है, उसकी शादी एक बेरोजगार और निर्धन व्यक्ति से कर दी जाती है. बिना किसी संपत्ति और पैसे के वे एक सुदूर गाँव में जा बसते हैं पर अवनि उसके सामने प्रस्ताव रखती है कि वह स्थानीय महिलाओं को कताई-बुनाई सिखाने के लिए अपने पति की सहायता से एक प्रशिक्षण केंद्र खोले. हेमा के संघर्ष की कहानी है यह प्रेरणादायक फिल्म. 


72 वर्षीय कैथरीन का उत्तराखण्ड और विशेषतः कुमाऊँ के साथ एक विशेष भावनात्मक लगाव रहा है. फ्रांसीसी मूल की इस चित्रकार-फिल्मकार व वास्तुशिल्पी ने कौसानी के समीप एक छोटे से गाँव में पिछले बीस सालों से अपना दूसरा घर बनाया हुआ है. ‘अ चॉइस इन द हिमालयाज़’ उनकी पहली फिल्म है जिसे यूरोप और एशिया के तमाम देशों में प्रशंसा मिली. कई फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी इस फिल्म के लिए कैथरीन को चीनी सरकार ने 2013 में ‘वूमैन ऑफ़ द ईयर’ का सम्मान प्रदान किया. फिलहाल वे कुमाऊँ के साथ अपने सम्बन्ध को अभिव्यक्त करती एक मल्टी-मीडिया प्रदर्शनी की तैयारी कर रही हैं. फिल्म एंड आर्ट्स गिल्ड ऑफ़ उत्तराखंड ने कैथरीन की फिल्म के करीब आधा दर्ज़न शोज़ हल्द्वानी में पहले भी किये हैं.

कौसानी में अपने हिन्दुस्तानी घर के बरामदे में कैथरीन.
फ़ोटो: 2015, कबाड़खाना

Monday, June 20, 2016

मुझे मर्द और औरत दोनों की बराबरी में कोई शक बाक़ी न रहा

पतरस बुख़ारी (1898-1958)
मेबल  और मैं
- पतरस बुख़ारी

मेबल  लड़कीयों के कॉलेज में थी, लेकिन हम दोनों कैंब्रिज यूनीवर्सिटी में एक ही मज़मून पढ़ते थे. इसलिए अक्सर लैक्चरों में मुलाक़ात होजाती थी. इस के इलावा हम दोस्त भी थे. कई दिलचस्पियों में एक दूसरे के शरीक होते थे. तस्वीरों और मौसीक़ी का शौक़ उसे भी था, में भी हमादानी का दावेदार अक्सर गैलरियों या कन्सर्टों में एकट्ठे जाया करते थे. दोनों अंग्रेज़ी अदब के तालिब-इल्म थे. किताबों के मुताल्लिक़ बाहम बेहस व मबाहसे रहते. हम में से अगर कोई नई किताब या नया मुसन्निफ़ दरयाफ़त करता तो दूसरे को ज़रूर इस से आगाह कर देता. और फिर दोनों मिलकर इस पर अच्छे बुरे का हुक्म सादर करते.
लेकिन इस तमाम यकजिहती और हम-आहंगी में एक ख़लिश ज़रूर थी. हम दोनों ने बीसवीं सदी में परवरिश पाई थी. औरत और मर्द की मसावात के क़ाइल तो ज़रूर थे ताहम अपने ख़्यालात में और बाज़-औक़ात अपने रवैय्ये में हम कभी ना कभी उस की तक़ज़ीब ज़रूर कर देते थे. बाअज़ हालात के मातहत मेबल  ऐसी रिआयत को अपना हक़ समझती जो सिर्फ सिनफ़ ज़ईफ़ ही के एक फ़र्द को मिलनी चाहिऐं और बाज़-औक़ात में तहक्कुम और रहनुमाई का रवैय्या इख़तियार कर लेता. जिसका मतलब ये था कि गोया एक मर्द होने की हैसियत से मेरा फ़र्ज़ यही है. ख़ुसूसन मुझे ये एहसास बहुत ज़्यादा तकलीफ़ देता था कि मेबल  का मुताला मुझसे बहुत वसीअ है. इस से मेरे मर्दाना वक़ार को सदमा पहुंचता था. कभी कभी मेरे जिस्म के अंदर मेरे एशियाई आबा-ओ-अजदाद का ख़ून जोश मारता और मेरा दिल जदीद तहज़ीब से बाग़ी हो कर मुझसे कहता कि मर्द अशरफ़-उल-मख़लूक़ात है. इस तरह मेबल  औरत मर्द की मसावात का इज़हार मुबालग़ा के साथ करती थी. यहां तक कि बाज़-औक़ात ऐसा मालूम होता कि वो औरतों को कायनात की रहबर और मर्दों को हशरात-उल-अर्ज़ समझती है
लेकिन इस बात को मैं क्योंकर नजरअंदाज़ करता कि मेबल  एक दिन दस बारह किताबें खरीदती, और हफ़्ता भर के बाद उन्हें मेरे कमरे में फेंक कर चली जाती और साथ ही कह जाती कि मैं उन्हें पढ़ चुकी हूँ. तुम भी पढ़ चुकोंगे तो उनके मुताल्लिक़ बातें करेंगे.
अव्वल तो मेरे लिए एक हफ़्ता में दस बारह किताबें ख़त्म करना मुहाल था, लेकिन फ़र्ज़ कीजीए मर्दों की लाज रखने के लिए रातों की नींद हराम करके इन सबको पढ़ डालना मुम्किन भी होता तो भी उनमें दो या तीन किताबें फ़लसफ़े या तन्क़ीद की ज़रूरी ऐसी होतीं कि उनको समझने के लिए मुझे काफ़ी अरसा दरकार होता. चुनांचे हफ़्ते भर की जाँ-फ़िशानी के बाद एक औरत के सामने इस बात का एतराफ़ करना पड़ता कि में इस दौड़ में पीछे रह गया हूँ. जब तक वो मेरे कमरे में बैठी रहती, में कुछ खिसयाना सा हो कर उस की बातें सुनता रहता, और वो निहायत आलिमाना अंदाज़ में भंवें ऊपर को चढ़ा चढ़ा कर बातें करती. जब में उस के लिए दरवाज़ाखोलता या उस के सिगरेट के लिए दिया-सलाई जलाता या अपनी सबसे ज़्यादा आरामदेह कुर्सी उस के लिए ख़ाली कर देता तो वो मेरी ख़िदमात को हक़ निस्वानियत नहीं बल्कि हक़ उस्तादी समझ कर क़बूल करती .
मेबल  के चले जाने के बाद नदामत बतदरीन ग़ुस्से में तबदील होजाती. जान या माल का ईसार सहल है, लेकिन आन की ख़ातिर नेक से नेक इन्सान भी एक ना एक दफ़ा तो ज़रूर नाजायज़ ज़राए के इस्तिमाल पर उतर आता है. उसे मेरी अख़लाक़ी पस्ती समझिए. लेकिन यही हालत मेरी भी हो गई. अगली दफ़ा जब मेबल  से मुलाक़ात हुई तो जो किताबें मैं ने नहीं पढ़ी थीं, उन पर भी मैंने राय ज़नी शुरू कर दी. लेकिन जो कुछ कहता सँभल सँभल कर कहता था तफ़सीलात के मुताल्लिक़ कोई बात मुँह से ना निकालता था, सरसरी तौर पर तन्क़ीद करता था और बड़ी होशयारी और दानाई के साथ अपनी राय को जिद्दत का रंग देता था
किसी नावल के मुताल्लिक़ मेबल  ने मुझसे पूछा तो जवाब में निहायत लाउबालियाना कहा
हाँ अच्छी है, लेकिन ऐसी भी नहीं. मुसन्निफ़ से दूर जदीद का नुक़्ता-ए-नज़र कुछ निभ ना सका, लेकिन फिर भी बाअज़ नुक्ते निराले हैं, बुरी नहीं, बुरी नहीं.
कनखियों से मेबल  की तरफ़ देखता गया लेकिन उसे मेरी रयाकारी बिलकुल मालूम ना होने पाए. ड्रामे के मुताल्लिक़ कहा करता था
हाँ पढ़ा तो है लेकिन अभी तक में ये फ़ैसला नहीं करसका कि जो कुछ पढ़ने वाले को महसूस होता है वो स्टेज पर जा कर भी बाक़ी रहेगा या नहीं? तुम्हारा क्या ख़्याल है?
और इस तरह से अपनी आन भी क़ायम रहती और गुफ़्तगु का बार भी मेबल  के कंधों पर डाल देता
तन्क़ीद की किताबों के बारे में फ़रमाता
इस नक़्क़ाद पर अठारहवीं सदी के नक़्क़ादों का कुछ-कुछ असर मालूम होता है. लेकिन यूँही नामालूम सा कहीं कहीं. बिलकुल हल्का सा और शायरी के मुताल्लिक़ उस का रवैय्या दिलचस्प है, बहुत दिलचस्प, बहुत दिलचस्प.
रफ़्ता-रफ़्ता मुझे इस फ़न पर कमाल हासिल हो गया. जिस रवानी और नफ़ासत के साथ में नाख़्वान्दा किताबों पर गुफ़्तगु करसकता था और इस पर मैं ख़ुद हैरान रह जाता था, इस से जज़बात को एक आसूदगी नसीब हुई
अब मैं मेबल  से ना दबता था, उसे भी मेरे इलम वफ़ज़ल का मुतआरिफ़ होना पड़ा. वो अगर हफ़्ता में दस किताबें पढ़ती थी, तो मैं सिर्फ दो दिन के बाद इन सब किताबों की राय ज़नी करसकता था. अब उस के सामने नदामत का कोई मौक़ा ना था. मेरी मर्दाना रूह में इस एहसान फ़त्हमंदी से बालीदगी सी आगई थी. अब में उस के लिए कुर्सी ख़ाली करता या दिया-सलाई जलाता तो अज़मत वबरतरी के एहसास के साथ जैसे एक तजरबाकार तनोमंद नौजवान एक नादान कमज़ोर बच्ची की हिफ़ाज़त कर रहा हो
सिरात-ए- मुस्तक़ीम पर चलने वाले इन्सान मेरे इस फ़रेब को ना सराहें तो ना सराहें, लेकिन में कम अज़ कम मर्दों के तबक़े से इस की दाद ज़रूर चाहता हूँ. ख़वातीन मेरी इस हरकत के लिए मुझ पर दुहरी दुहरी लानतें भेजेंगी कि एक तो मैंने मक्कारी और झूट से काम लिया और दूसरे एक औरत को धोका दिया. उनकी तसल्ली के लिए में ये कहना चाहता हूँ कि आप यक़ीन मानिए कई दफ़ा तन्हाई में, मैंने अपने आपको बुरा-भला कहा. बाज़-औक़ात अपने आपसे नफ़रत होने लगती. साथ ही इस बात का भुलाना भी मुश्किल हो गया कि मैं बग़ैर पढ़े ही इलमीयत जताता रहता हूँ, मेबल  तो ये सब किताबें पढ़ने के बाद गुफ़्तगु करती है तो बहरहाल उस को मुझ पर तफ़व्वुक़ तो ज़रूर हासिल है, में अपनी कम इलमी ज़ाहिर नहीं होने देता. लेकिन हक़ीक़त तो यही ना कि मैं वो किताबें नहीं पढ़ता, मेरी जहालत उस के नज़दीक ना सही, मेरे अपने नज़दीक तो मुसल्लम है. इस ख़्याल से इतमीनान क़लब फिर मफ़क़ूद होजाता और अपना आप एक औरत के मुक़ाबले में फिर हक़ीर नज़र आने लगता. पहले तो मेबल  को सिर्फ ज़ी इलम समझता था. अब वो अपने मुक़ाबले में पाकीज़गी और रास्त बाज़ी की देवी भी मालूम होने लगी
अलालत के दौरान मेरा दिल ज़्यादा नरम होजाता है. बुख़ार की हालत में कोई बाज़ारी सा नावल पढ़ते वक़्त भी बाज़-औक़ात मेरी आँखों से आँसू जारी होजाते हैं. सेहत याब हो कर मुझे अपनी इस कमज़ोरी पर हंसी आती है लेकिन इस वक़्त अपनी कमज़ोरी का एहसास नहीं होता. मेरी बदक़िस्मती कि इन ही दिनों मुझे ख़फ़ीफ़ सा इनफ़लोइंज़ा हुआ, मोहलिक ना था, बहुत तकलीफ़-दह भी ना था, ताहम गुज़श्ता ज़िंदगी के तमाम छोटे छोटे गुनाह कबीरा बन कर नज़र आने लगे. मेबल  का ख़्याल आया तो ज़मीर ने सख़्त मलामत की, और में बहुत देर तक बिस्तर पर-पेच व ताब खाता रहा. शाम के वक़्त मेबल  कुछ फूल लेकर आई. ख़ैरीयत पूछी, दवा पिलाई, माथे पर हाथ रखा, मेरे आँसू टप टप गिरने लगे. मैंने कहा, (मेरी आवाज़ भराई हुई थी मेबल  मुझे ख़ुदा के लिए माफ़ कर दो. इस के बाद मैंने अपने गुनाह का एतराफ़ किया और अपने आपको सज़ा देने के लिए मैंने अपनी मक्कारी की हर एक तफ़सील बयान कर दी. हर उस किताब का नाम लिया, जिस पर मैंने बग़ैर पढ़े लंबी लंबी फ़ाज़िलाना तक़रीरें की थीं. मैंने कहा मेबल , पिछले हफ़्ते जो तीन किताबें तुम मुझे दे गई थीं, उनके मुताल्लिक़ मैं तुमसे कितनी बेहस करता रहा हूँ. लेकिन मैंने उनका एक लफ़्ज़ भी नहीं पढ़ा, मैंने कोई ना कोई बात ऐसी ज़रूर कही होगी, जिससे मेरा पोल तुम पर खुल गया होगा.
कहने लगी. नहीं तो
मैंने कहा. मसलन नावल तो मैंने पढ़ा ही ना था, करेक्टरों के मुताल्लिक़ जो कुछ बक रहा था वो सब मन घड़त था.
कहने लगी. कुछ ऐसा ग़लत भी ना था.
मैंने कहा. प्लाट के मुताल्लिक़ मैंने ये ख़्याल ज़ाहिर किया था कि ज़रा ढीला है. ये भी ठीक था?
कहने लगी. हाँ, प्लाट कहीं कहीं ढीला ज़रूर है.
इस के बाद मेरी गुज़श्ता फ़रेब-कारी पर वो और मैं दोनों हंसते रहे. मेबल  रुख़स्त होने लगी तो बोली. तो वो किताबें में लेती जाऊं?
मैंने कहा. एक ताइब इन्सान को अपनी इस्लाह का मौक़ा तो दो, मैंने उन किताबों को अब तक नहीं पढ़ा लेकिन अब उन्हें पढ़ने का इरादा रखता हूँ. उन्हें यहीं रहने दो. तुम तो उन्हें पढ़ चुकी हो.
कहने लगी. हाँ में तो पढ़ चुकी हूँ. अच्छा मैं यहीं छोड़ जाती हूँ.
उस के चले जाने के बाद मैंने उन किताबों को पहली दफ़ा खोला, तीनों में से किसी के वर्क़ तक ना कटे थे. मेबल  ने भी उन्हें अभी तक ना पढ़ा था.
मुझे मर्द और औरत दोनों की बराबरी में कोई शक बाक़ी न रहा.