Thursday, June 23, 2016

नज़्में जली हुई खाल के जिस्म से उतर जाने जैसा सुकून बख्शती हैं


मैं नज़्में क्यों लिखता हूँ

– नोमान शौक़

            मुझे चाहिए कुछ बोल
            जिन का एक गीत बन सके
            ये गीत मुझे गूंगों को देना है
            जिन्हें गीतों की क़दर मालूम है
            लेकिन जिन का
            आप के हिसाब से गाना नहीं बनता
            गर आप के पास नहीं है कोई बोल, कोई गीत
            मुझे बकने दें में जो बकता हूँ
            -पाश
जिन्हें कोई ख़ुशी ना दे सका उन्हें दुख देने से डरता हूँ  बहुत बुज़दिल हूँ मैं इस लिए ख़ुदकुशी न कर सका. मैं इंसानों से दूर किसी जंगल में जा कर बस जाना चाहता हूँ ता कि ख़ुद को और इस कायनात को अच्छी तरह जान सकूं , लेकिन मैं गौतम नहीं बन सका. इन सब के बावजूद आम आदमी बन कर जीने से मुझे हौल आता है आम आदमी जो अपनी ज़िंदगी में अपनी जैसी दो चार ज़िंदगियों का इज़ाफ़ा करता है और मर जाता है. एक आम आदमी शायर से ज़्यादा हस्सास और जज़बाती हो सकता है लेकिन उस के पास ख़ुद को ज़ाहिर करने की जुर्रत नहीं होती या फ़न नहीं होता. शायरी शायर का ख़ुसूसी इख़तियार होती है आम आदमी का नहीं . आम आदमी तो ख़ुद को हालात के मुताबिक़ ढाल कर कश्मकश से छुटकारा हासिल कर लेता है लेकिन शायर आख़िरी वक़्त तक हालात से लड़ता है. अंजाम की परवाह किए बगै़र. मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ अपने लिखे हुए लफ़्ज़ों में. यही वो ललक है जो मेरी रूह के किसी कोने में छुपी बैठी है और बार बार लिखने पर मजबूर करती है.
लिखना मेरा शौक़ नहीं मेरी मजबूरी है. मिज़ाजन तन्हाई पसंद हूँ. खासतौर से रात मुझे तख़लीक़ी हरारत से लबरेज़
कर देती है. तख़लीक़ के लम्हे में बिलकुल ही अकेला रहना चाहता हूँ ... उतना अकेला कि कभी कभी अपनी मौजूदगी भी गिरां गुज़रने लगती है . हर नज़म के बाद शायर का नया जन्म होता है. नज़म मुकम्मल हो जाने के बाद में भी ख़ुद को बहुत हल्का महसूस करता हूँ , बादलों के बीच तैरता हुआ. सरशारी की ये कैफ़ीयत कभी कभी इतनी शदीद होने लगती है कि गुनगुनाने लगता हूँ अपनी बेसुरी आवाज़ की परवाह किए बगै़र. अपनी ही नज़म की उंगली पकड़ कर पहरों सैर करता हूँ और हैरान नज़रों से देखता हूँ इस दुनिया को.
लिखते वक़्त मुझे लफ़्ज़ों के लिए बहुत मशक़्क़त नहीं करनी पड़ती क्योंकि ख़ुशक़िसमती से मुझे उर्दू और हिन्दी दोनों ज़बानों की धूप छाओं यकसाँ तौर पर मयस्सर हुई जिस का क्रेडिट बहुत हद तक मेरे शहर आरा (बिहार) को जाता है जहां मुझे दोनों ज़बानों के बेहतरीन लिखने वालों का क़ुरब हासिल रहा. लिखते वक़्त में ग्रामर और अलफ़ाज़ के दर-ओ-बस्त का तो ख़्याल रखता हूँ लेकिन किसी भी ज़बान का कोई मुरव्वज लफ़्ज़ मेरे लिए शजर ममनूआ नहीं .
में अपने जज़बात-ओ-ख़्यालात और महसूसात पर ख़ुद ही सवालिया निशान लगाता चलता हूँ और उन के जवाब तलाश करता हूँ . अपने गर्द-ओ-पेश की माद्दी हलचल, ख़ाब और ख्वाहिशें मुझे अपना नुक्ता-ए-नज़र ज़ाहिर करने के लिए मजबूर करती हैं . किसी भी अज़म से मेरी कोई वाबस्तगी नहीं अगर है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ शायरी से इसी लिए जिस मौज़ू पर जिस तरह लिखना चाहता हूँ लिखता हूँ . शायरी मुझे ज़िंदगी से भर देती है और मुझे ये ख़ुशफ़हमी है कि में भी शायरी को ज़िंदगी दे रहा हूँ .
तशद्दुद, झूट, अय्यारी और मक्कारी से मुझे सख़्त नफ़रत है. जहां दूसरे शायर इस नफ़रत को बड़ी तहज़ीब से शाइस्तगी और सब्र के साथ ज़ाहिर करते हैं वहीं मुझ में कमी ये है कि मैं झुंझलाता हूँ , गु़स्सा करता हूँ , चीख़ता हूँ और समझता हूँ कि यही शायरी है.मेरा रद्द अमल बहुत जारिहाना और तीखा होता है क्योंकि मैं अपने बातिन की कड़वाहट को बहुत देर तक सँभाले नहीं रख सकता. मुझे सरहदों और दायरों में जीना पसंद नहीं . मैं पूरी इंसानियत को एक कुन्बे की शक्ल में देखता हूँ इस लिए मुझे बामियान में बुध की मूर्ती तोड़े जाने की हरकत भी उतनी ही मज़मूम लगती है जितनी बाबरी मस्जिद की शहादत, ११ सितंबर का सानिहा भी इतना ही ग़ैर इंसानी और वहशयाना लगता है जितना इराक़ पर हमला, गुजरात भी इतने ही गहरे ज़ख़म लगाता है जितना कश्मीर में बेगुनाह लोगों का क़तल-ए-आम.
फ़िर्कापरस्ती और फ़ाशज़म, दहश्तगर्दी को ग़िज़ा फ़राहम करते हैं . इंसानियत का उन से बड़ा कोई दुश्मन नहीं . मैं अपने लफ़्ज़ों को दुश्मनों से लड़ने के लिए असलाह के तौर पर नहीं इस्तिमाल करता बल्कि उन्हें चींटियों की तरह रेंगना सिखाता हूँ ताकि दुश्मन की सूंड में घुस कर इस का ख़ातमा कर सकें .मेरा मानना है कि इन राक्षसों को हरा कर ही इंसानियत अपने लिए नजात के रास्ते खोल सकती है. इस नाम निहाद तरक़्क़ी और ग्लोबलाइज़ेशन के अह्द में मेरे आस पास जो कुछ रौनुमा हो रहा है ख़ुद को इस से अलग थलग रखना मेरे बस में नहीं अलबत्ता में ऐसे वाक़ियात को तारीख़ी हक़ायक़ के तौर पर नहीं बल्कि इंसानी अलमीए की शक्ल में देखता हूँ .
मैंने इश्क़िया नज़्में नहीं लिखी क्योंकि किसी हीर के दोपट्टे में मेरे नाम की कोई गांठ नहीं लेकिन इश्क़ का जो मकरूह और हैबतनाक चेहरा मैंने महानगर में देखा उस की झलक कहीं कहीं मेरी नज़मों में ज़रूर मिलती है. जिस्म से एक नौ की बेज़ारी मेरी फ़िक्र को रूह पर मर्कूज़ करती है. सारफ़ीत ने शायरी के मंज़र नामे में जो हलचल पैदा की है वो मेरे लिए या किसी भी शायर के लिए तशवीश का बाइस है. यहां रिश्ते नाते, सुख दुख सब किसी प्रोडक्ट का रूप ले बैठे हैं. कब क्या किस तरह ख़रीदा और बेचा जा सकता है, आम आदमी धीरे धीरे जानने लगा है.
मेरा क़ारी भी आम आदमी है, लेकिन वो आम आदमी हरगिज़ नहीं जो इंसानों के इस जंगल का हिस्सा है ... जिस की अपनी कोई सोच नहीं, जो वक़्त के तक़ाज़ों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालता रहा है बल्कि वो आदमी जो बाशऊर है, जिस की सोच का दायरा वसीअ है और मयार बुलंद. बड़ी और अच्छी शायरी की बक़ा के लिए क़ारी का शायर के साथ साथ चलना ज़रूरी है और हर क़ारी हर शायर के तख़लीक़ी सफ़र में इस का शरीक नहीं हो सकता. अच्छी शायरी हर क़ारी से हमकलाम नहीं होती.
मेरे नज़दीक इस मुश्किल वक़्त में शायरी करना क़ब्रिस्तान में वाइलन बजाने जैसा अमल है. आज इस से ज़्यादा चैलेंज भरा कोई और काम नहीं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यलग़ार के इस अह्द में शायर का असली सरोकार ये है कि शायरी का क़ारी नापैद होती मख़लूक़ के ज़ुमरे में आ गया है. जंग, दहश्तगर्दी,सारफ़ीयत, फ़साद और बेरोज़गारी से नबरदआज़मा क़ारी शायरी की तरफ़ देखना भी पसंद नहीं करता ता वक़त ये किसी फ़िल्म या एलबम में नीम बरहना परीयों के रक़्स के साथ ना हो, वर्ना जहन्नुम में जाये शायर और उस की शायरी.
कभी कभी मैं महीनों बल्कि बरसों नहीं लिखता और अगर लिखता हूँ तो एक दाख़िली तरंग में जब तख़्लीक़ियत पूरे उबाल पर होती है. लिखने के लिए मैं ख़ुद को कभी भी ज़बरदस्ती तैयार नहीं करता. ये भी पहले से तए नहीं होता कि मैं किस मौज़ू पर लिखने जा रहा हूँ . लफ़्ज़ क़ुतबनुमा की तरह धीरे धीरे मंज़िल-ए-मक़सूद की तरफ़ इशारा करते रहते हैं और में आगे बढ़ता जाता हूँ ... पूरी शिद्दत और इन्हिमाक के साथ. लिखते वक़्त में किसी ख़्याल को इस के लाओ लश्कर यानी बुनियादी तौर से ख़्याल के हमराह आने वाले लफ़्ज़ों के साथ ही जगह देता हूँ . काट छांट और तरमीम-ओ-तंसीख़ का मरहला नज़म या ग़ज़ल मुकम्मल होने के बाद शुरू होता है और कभी कभी महीनों बल्कि बरसों ख़त्म नहीं होता.
मैंने ग़ज़लें भी लिखी हैं और नज़्में भी. अपने सत्ताईस साल के अदबी सफ़र में मैंने महसूस किया कि ग़ज़लें मेरे एहसास-ए-जमाल को रास आती हैं और नज़्में जली हुई खाल के जिस्म से उतर जाने जैसा सुकून बख्शती हैं . मेरे लिए दोनों अपनी अपनी जगह अहम हैं .
आम तौर से में तभी लिखता हूँ जब बेहद परेशान होता हूँ ... दाख़िली या ख़ारिजी वजूहात से. शायद इसी लिए मेरी शायरी में ख़ुशी, सरशारी और इतमीनान के अनासिर ख़ाल-ख़ाल हैं हालाँकि मेरी शदीद ख़ाहिश है कि मैं ज़िंदगी के इन बेइख़्तयार लम्हों को शायरी के क़ालिब में ढाल सकूं जिन की धुँदली सी परछाईऐं कभी कभी ज़हन के पर्दे पर तैरती नज़र आ जाती है.


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