Monday, June 20, 2016

मुझे मर्द और औरत दोनों की बराबरी में कोई शक बाक़ी न रहा

पतरस बुख़ारी (1898-1958)
मेबल  और मैं
- पतरस बुख़ारी

मेबल  लड़कीयों के कॉलेज में थी, लेकिन हम दोनों कैंब्रिज यूनीवर्सिटी में एक ही मज़मून पढ़ते थे. इसलिए अक्सर लैक्चरों में मुलाक़ात होजाती थी. इस के इलावा हम दोस्त भी थे. कई दिलचस्पियों में एक दूसरे के शरीक होते थे. तस्वीरों और मौसीक़ी का शौक़ उसे भी था, में भी हमादानी का दावेदार अक्सर गैलरियों या कन्सर्टों में एकट्ठे जाया करते थे. दोनों अंग्रेज़ी अदब के तालिब-इल्म थे. किताबों के मुताल्लिक़ बाहम बेहस व मबाहसे रहते. हम में से अगर कोई नई किताब या नया मुसन्निफ़ दरयाफ़त करता तो दूसरे को ज़रूर इस से आगाह कर देता. और फिर दोनों मिलकर इस पर अच्छे बुरे का हुक्म सादर करते.
लेकिन इस तमाम यकजिहती और हम-आहंगी में एक ख़लिश ज़रूर थी. हम दोनों ने बीसवीं सदी में परवरिश पाई थी. औरत और मर्द की मसावात के क़ाइल तो ज़रूर थे ताहम अपने ख़्यालात में और बाज़-औक़ात अपने रवैय्ये में हम कभी ना कभी उस की तक़ज़ीब ज़रूर कर देते थे. बाअज़ हालात के मातहत मेबल  ऐसी रिआयत को अपना हक़ समझती जो सिर्फ सिनफ़ ज़ईफ़ ही के एक फ़र्द को मिलनी चाहिऐं और बाज़-औक़ात में तहक्कुम और रहनुमाई का रवैय्या इख़तियार कर लेता. जिसका मतलब ये था कि गोया एक मर्द होने की हैसियत से मेरा फ़र्ज़ यही है. ख़ुसूसन मुझे ये एहसास बहुत ज़्यादा तकलीफ़ देता था कि मेबल  का मुताला मुझसे बहुत वसीअ है. इस से मेरे मर्दाना वक़ार को सदमा पहुंचता था. कभी कभी मेरे जिस्म के अंदर मेरे एशियाई आबा-ओ-अजदाद का ख़ून जोश मारता और मेरा दिल जदीद तहज़ीब से बाग़ी हो कर मुझसे कहता कि मर्द अशरफ़-उल-मख़लूक़ात है. इस तरह मेबल  औरत मर्द की मसावात का इज़हार मुबालग़ा के साथ करती थी. यहां तक कि बाज़-औक़ात ऐसा मालूम होता कि वो औरतों को कायनात की रहबर और मर्दों को हशरात-उल-अर्ज़ समझती है
लेकिन इस बात को मैं क्योंकर नजरअंदाज़ करता कि मेबल  एक दिन दस बारह किताबें खरीदती, और हफ़्ता भर के बाद उन्हें मेरे कमरे में फेंक कर चली जाती और साथ ही कह जाती कि मैं उन्हें पढ़ चुकी हूँ. तुम भी पढ़ चुकोंगे तो उनके मुताल्लिक़ बातें करेंगे.
अव्वल तो मेरे लिए एक हफ़्ता में दस बारह किताबें ख़त्म करना मुहाल था, लेकिन फ़र्ज़ कीजीए मर्दों की लाज रखने के लिए रातों की नींद हराम करके इन सबको पढ़ डालना मुम्किन भी होता तो भी उनमें दो या तीन किताबें फ़लसफ़े या तन्क़ीद की ज़रूरी ऐसी होतीं कि उनको समझने के लिए मुझे काफ़ी अरसा दरकार होता. चुनांचे हफ़्ते भर की जाँ-फ़िशानी के बाद एक औरत के सामने इस बात का एतराफ़ करना पड़ता कि में इस दौड़ में पीछे रह गया हूँ. जब तक वो मेरे कमरे में बैठी रहती, में कुछ खिसयाना सा हो कर उस की बातें सुनता रहता, और वो निहायत आलिमाना अंदाज़ में भंवें ऊपर को चढ़ा चढ़ा कर बातें करती. जब में उस के लिए दरवाज़ाखोलता या उस के सिगरेट के लिए दिया-सलाई जलाता या अपनी सबसे ज़्यादा आरामदेह कुर्सी उस के लिए ख़ाली कर देता तो वो मेरी ख़िदमात को हक़ निस्वानियत नहीं बल्कि हक़ उस्तादी समझ कर क़बूल करती .
मेबल  के चले जाने के बाद नदामत बतदरीन ग़ुस्से में तबदील होजाती. जान या माल का ईसार सहल है, लेकिन आन की ख़ातिर नेक से नेक इन्सान भी एक ना एक दफ़ा तो ज़रूर नाजायज़ ज़राए के इस्तिमाल पर उतर आता है. उसे मेरी अख़लाक़ी पस्ती समझिए. लेकिन यही हालत मेरी भी हो गई. अगली दफ़ा जब मेबल  से मुलाक़ात हुई तो जो किताबें मैं ने नहीं पढ़ी थीं, उन पर भी मैंने राय ज़नी शुरू कर दी. लेकिन जो कुछ कहता सँभल सँभल कर कहता था तफ़सीलात के मुताल्लिक़ कोई बात मुँह से ना निकालता था, सरसरी तौर पर तन्क़ीद करता था और बड़ी होशयारी और दानाई के साथ अपनी राय को जिद्दत का रंग देता था
किसी नावल के मुताल्लिक़ मेबल  ने मुझसे पूछा तो जवाब में निहायत लाउबालियाना कहा
हाँ अच्छी है, लेकिन ऐसी भी नहीं. मुसन्निफ़ से दूर जदीद का नुक़्ता-ए-नज़र कुछ निभ ना सका, लेकिन फिर भी बाअज़ नुक्ते निराले हैं, बुरी नहीं, बुरी नहीं.
कनखियों से मेबल  की तरफ़ देखता गया लेकिन उसे मेरी रयाकारी बिलकुल मालूम ना होने पाए. ड्रामे के मुताल्लिक़ कहा करता था
हाँ पढ़ा तो है लेकिन अभी तक में ये फ़ैसला नहीं करसका कि जो कुछ पढ़ने वाले को महसूस होता है वो स्टेज पर जा कर भी बाक़ी रहेगा या नहीं? तुम्हारा क्या ख़्याल है?
और इस तरह से अपनी आन भी क़ायम रहती और गुफ़्तगु का बार भी मेबल  के कंधों पर डाल देता
तन्क़ीद की किताबों के बारे में फ़रमाता
इस नक़्क़ाद पर अठारहवीं सदी के नक़्क़ादों का कुछ-कुछ असर मालूम होता है. लेकिन यूँही नामालूम सा कहीं कहीं. बिलकुल हल्का सा और शायरी के मुताल्लिक़ उस का रवैय्या दिलचस्प है, बहुत दिलचस्प, बहुत दिलचस्प.
रफ़्ता-रफ़्ता मुझे इस फ़न पर कमाल हासिल हो गया. जिस रवानी और नफ़ासत के साथ में नाख़्वान्दा किताबों पर गुफ़्तगु करसकता था और इस पर मैं ख़ुद हैरान रह जाता था, इस से जज़बात को एक आसूदगी नसीब हुई
अब मैं मेबल  से ना दबता था, उसे भी मेरे इलम वफ़ज़ल का मुतआरिफ़ होना पड़ा. वो अगर हफ़्ता में दस किताबें पढ़ती थी, तो मैं सिर्फ दो दिन के बाद इन सब किताबों की राय ज़नी करसकता था. अब उस के सामने नदामत का कोई मौक़ा ना था. मेरी मर्दाना रूह में इस एहसान फ़त्हमंदी से बालीदगी सी आगई थी. अब में उस के लिए कुर्सी ख़ाली करता या दिया-सलाई जलाता तो अज़मत वबरतरी के एहसास के साथ जैसे एक तजरबाकार तनोमंद नौजवान एक नादान कमज़ोर बच्ची की हिफ़ाज़त कर रहा हो
सिरात-ए- मुस्तक़ीम पर चलने वाले इन्सान मेरे इस फ़रेब को ना सराहें तो ना सराहें, लेकिन में कम अज़ कम मर्दों के तबक़े से इस की दाद ज़रूर चाहता हूँ. ख़वातीन मेरी इस हरकत के लिए मुझ पर दुहरी दुहरी लानतें भेजेंगी कि एक तो मैंने मक्कारी और झूट से काम लिया और दूसरे एक औरत को धोका दिया. उनकी तसल्ली के लिए में ये कहना चाहता हूँ कि आप यक़ीन मानिए कई दफ़ा तन्हाई में, मैंने अपने आपको बुरा-भला कहा. बाज़-औक़ात अपने आपसे नफ़रत होने लगती. साथ ही इस बात का भुलाना भी मुश्किल हो गया कि मैं बग़ैर पढ़े ही इलमीयत जताता रहता हूँ, मेबल  तो ये सब किताबें पढ़ने के बाद गुफ़्तगु करती है तो बहरहाल उस को मुझ पर तफ़व्वुक़ तो ज़रूर हासिल है, में अपनी कम इलमी ज़ाहिर नहीं होने देता. लेकिन हक़ीक़त तो यही ना कि मैं वो किताबें नहीं पढ़ता, मेरी जहालत उस के नज़दीक ना सही, मेरे अपने नज़दीक तो मुसल्लम है. इस ख़्याल से इतमीनान क़लब फिर मफ़क़ूद होजाता और अपना आप एक औरत के मुक़ाबले में फिर हक़ीर नज़र आने लगता. पहले तो मेबल  को सिर्फ ज़ी इलम समझता था. अब वो अपने मुक़ाबले में पाकीज़गी और रास्त बाज़ी की देवी भी मालूम होने लगी
अलालत के दौरान मेरा दिल ज़्यादा नरम होजाता है. बुख़ार की हालत में कोई बाज़ारी सा नावल पढ़ते वक़्त भी बाज़-औक़ात मेरी आँखों से आँसू जारी होजाते हैं. सेहत याब हो कर मुझे अपनी इस कमज़ोरी पर हंसी आती है लेकिन इस वक़्त अपनी कमज़ोरी का एहसास नहीं होता. मेरी बदक़िस्मती कि इन ही दिनों मुझे ख़फ़ीफ़ सा इनफ़लोइंज़ा हुआ, मोहलिक ना था, बहुत तकलीफ़-दह भी ना था, ताहम गुज़श्ता ज़िंदगी के तमाम छोटे छोटे गुनाह कबीरा बन कर नज़र आने लगे. मेबल  का ख़्याल आया तो ज़मीर ने सख़्त मलामत की, और में बहुत देर तक बिस्तर पर-पेच व ताब खाता रहा. शाम के वक़्त मेबल  कुछ फूल लेकर आई. ख़ैरीयत पूछी, दवा पिलाई, माथे पर हाथ रखा, मेरे आँसू टप टप गिरने लगे. मैंने कहा, (मेरी आवाज़ भराई हुई थी मेबल  मुझे ख़ुदा के लिए माफ़ कर दो. इस के बाद मैंने अपने गुनाह का एतराफ़ किया और अपने आपको सज़ा देने के लिए मैंने अपनी मक्कारी की हर एक तफ़सील बयान कर दी. हर उस किताब का नाम लिया, जिस पर मैंने बग़ैर पढ़े लंबी लंबी फ़ाज़िलाना तक़रीरें की थीं. मैंने कहा मेबल , पिछले हफ़्ते जो तीन किताबें तुम मुझे दे गई थीं, उनके मुताल्लिक़ मैं तुमसे कितनी बेहस करता रहा हूँ. लेकिन मैंने उनका एक लफ़्ज़ भी नहीं पढ़ा, मैंने कोई ना कोई बात ऐसी ज़रूर कही होगी, जिससे मेरा पोल तुम पर खुल गया होगा.
कहने लगी. नहीं तो
मैंने कहा. मसलन नावल तो मैंने पढ़ा ही ना था, करेक्टरों के मुताल्लिक़ जो कुछ बक रहा था वो सब मन घड़त था.
कहने लगी. कुछ ऐसा ग़लत भी ना था.
मैंने कहा. प्लाट के मुताल्लिक़ मैंने ये ख़्याल ज़ाहिर किया था कि ज़रा ढीला है. ये भी ठीक था?
कहने लगी. हाँ, प्लाट कहीं कहीं ढीला ज़रूर है.
इस के बाद मेरी गुज़श्ता फ़रेब-कारी पर वो और मैं दोनों हंसते रहे. मेबल  रुख़स्त होने लगी तो बोली. तो वो किताबें में लेती जाऊं?
मैंने कहा. एक ताइब इन्सान को अपनी इस्लाह का मौक़ा तो दो, मैंने उन किताबों को अब तक नहीं पढ़ा लेकिन अब उन्हें पढ़ने का इरादा रखता हूँ. उन्हें यहीं रहने दो. तुम तो उन्हें पढ़ चुकी हो.
कहने लगी. हाँ में तो पढ़ चुकी हूँ. अच्छा मैं यहीं छोड़ जाती हूँ.
उस के चले जाने के बाद मैंने उन किताबों को पहली दफ़ा खोला, तीनों में से किसी के वर्क़ तक ना कटे थे. मेबल  ने भी उन्हें अभी तक ना पढ़ा था.
मुझे मर्द और औरत दोनों की बराबरी में कोई शक बाक़ी न रहा.

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