Sunday, February 7, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 6

(पिछली क़िस्त से आगे)


मजाज़ कुछ इतनी ऊंची अट्टालिका में रहनेवाली शहज़ादी से आंख लड़ा बैठे कि जिसका दीदार तो किया जा सकता था लेकिन जिस तक पहुँचने के लिए कमंद फेंकना असंभव था. वह एक ऐसी छुई-मुई थी जिसे दूर से निहारना तो मुमकिन मगर हाथ लगाना गुनाह था. वह एक ऐसी कली थी जिसकी सुबास से मन का भंवरा चंचल तो हो पाता था लेकिन रस का हकदार नहीं था. उसके मार्ग में पलक-पांवड़े तो बिछाए जा सकते थे मगर चरणों का चुबन लेना वर्जित था. उस शोलारू न्र मजाज़ को झुलसा तो दिया मगर उस जलन पर मरहम रखने को राजी न हुई. मजाज़ को बर्फ़ की तरह गलते तो देखती रही मगर उसके सीने को सेंकने के लिए तैयार न हुई.

मजाज़ की यह प्रेयसी बहुप्रतिष्ठित, संपन्न आयर उच्च शिक्षित परिवार की कन्या थी. उसको पाने का सपना देखना बौने का चाँद छूने जैसी अनधिकार चेष्टा थी. यह माना कि वह परदे की पाबन्द न थी, बहुत से दकियानूसी रीति-रिवाजों से भी मुक्त थी. निर्भय और स्वच्छंद थी. फिर भी थी तो बड़े घराने की लड़की न? वह कैसे मजाज़ को इतनी अधिक इश्क़ की पेंगें बढाने की इजाज़त दे सकती थी कि अंत में जीवनसाथी बनने की नौबत आ जाए. उसे अपनी वंश-प्रतिष्ठा, अभिभावकों की मान-मर्यादा और अपने रहन-सहन के स्तर का भी तो ध्यान था. वह मृगनयनी तोते के पिंजरे में क्यों और कैसे आती? वह कुछ दिनों आँख मिचौली का खेल तो खेल सकी, पर हमेशा को आँखें बंद करने पर राजी न हुई. वह मजाज़ के साथ बालू-रेत के घरोंदे बनाती रही, मगर जब उसे शक हुआ कि यही घरौंदा स्थाई घर बनने वाला है तो वह उसे ढहाकर मजाज़ की पकड़ से दूर जा खड़ी हुई. लेकिन इसमें मजाज़ का भी क्या दोष? इश्क़ किया नहीं जाता, वह तो अनायास हो जाता है. बकौल 'असर' लखनवी-

इश्क़ से लोग मनअ करते हैं
जैसे कुछ इख्तियार है अपना

और इश्क़ के सौदे में कौन मुनाफे में है और कौन घाटे में रहता है? किसकी हार हुई और किसकी जीत, यह भी कौन ख़याल करता है. इश्क़ का ज्वार जब आता है तब अच्छे अच्छे तैराक भी गोता खा जाते हैं, गफलत का पता तो ज्वार उतरने पर ही लगता है - 

इक निगह करके उनने मोल लिया
बिक गए आह हम भी क्या सस्ते  - मीर

दिल बचाकर न रख सकने और उसे लुटा बैठने की मजबूरी का बयां खुद मजाज़ ने इस तरह से किया है -

जिनकी इक जुम्बिश से बुनियाद-ए-हरम में इर्तिआश
जिनकी इक ठोकर से ज़ंजीर-ए-क़दामत पाश-पाश

रुख पे शादाबी, लबों में रस, तबस्सुम बर्क पाश
चुस्त पैराहन नुमायाँ जिस्मे-सीमीं की तराश

शोखियाँ उसकी हया के रंग में डूबी हुईं
सादगी उसकी अदा के रंग में डूबी हुई

अंचलों की सरसराहट ज़मज़मे गाती हुई
पैराहन से निकहते-खुल्देबरी आती हुई

गुफ़्तगू कुछ इस सलीके से कुछ इस अंदाज़ से
दिल बचाना सख्त मुश्किल था कमंद-ए-नाज़ से

वह लचक-सी जिस्म-ए-नाज़ुक में खुद अपने बार से
फूट निकली थी शुआएं आरिज़-ओ-रुखसार से

आरिजों पर इक गुलाबीपन सा, माथे पर दमक
अंखड़ियों में इक सरूर-ए- फ़तहमन्दी की झलक

इश्क़ की शुरुआत हुई तो मजाज़ ने प्रेयसी की जश्न-ए-सालगिरह पर आठ बंद की एक नज़्म कही जिसके कुछ बंद इस तरह थे - 

उसका जश्न-ए-सालगिरह 

इक मजमए रंगीं में वह घबराई हुई-सी
बैठी है अजब नाज़ से शरमाई हुई-सी
आँखों में हया, लब पे हंसी आयी हुई-सी 

लहरें-सी वह लेता हुआ इक फूल का सेहरा
सेहरे में झमकता हुआ इक चाँद सा मुखड़ा
इक रंग सा रुख पर कभी हल्का कभी गहरा

सरसार निगाहों में हया झूम रही है
है रक्स में अफ़लाक ज़मीन घूम रही है
शाइर की वफ़ा बढ़के कदम चूम रही है

ऐ तू कि तेरे दम से मिरी ज़मज़माख्वानी 
हो तुझको मुबारक ये तेरी नूरजहानी
अफ़कार से महफूज़ रहे तेरी जवानी

छलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा
महकें तेरे आरिज़ के गुलाब और ज़ियादा
अल्लाह करे जोर-ए-शबाब और ज़ियादा

(जारी)

No comments: