Tuesday, February 9, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 11

4.

मजाज़ तन्हा कॉफ़ीहाउस में बैठे थे कि एक साहब जो उनसे परिचित न थे, उनके साथवाली कुर्सी पर आ बैठे. कॉफ़ी का ऑर्डर देकर उन्होंने गुनगुनाना शुरू किया - 

"अहमकों की कमी नहीं ग़ालिब
एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं"

मजाज़ ने उनकी तरफ देखते हुए कहा - "ढूंढनी की नौबत भी कहाँ आती है हज़रात! खुद-ब-खुद तशरीफ़ ले आते हैं."

5.
हिन्दू-मुस्लिम एकता पर एक मुशायरा हो रहा था. दूसरे शाइरों के साथ जब मजाज़ मुशायरा-गाह में दाखिल होने लगे तो वहां दरवाज़े पर लिखा हुआ था - "मज़हब के नाम पर लड़ना हिमाकत है."

मजाज़ ने एक लम्हा इस इबारत पर नज़र डालने के बाद कहा - "और हिमाकत के नाम पर लड़ना मजबह है."

6. 
फ़िराक गोरखपुरी अपनी रुबाइयात की दूसरे शाइरों की रुबाइयों से तुलना करते हुए कह रहे थे - "कहने को तो रुबाइयां जोश साहब भी कहते हैं लेकिन वे इस सनफ-ए-सुखन का बाकायदा फ़न की हैसियत से इस्तेमाल नहीं करते. दरअस्ल वे अपनी शाइरी के मुंह का मज़ा बदलने के लिए दूसरी चीज़ें लिखते-लिखते कभी-कभार रुबाइयां भी लिख देते हैं. उनकी रुबाइयाँ एक लिहाज़ से चटनी हैं और मेरी रुबाइयां ..."

मजाज़ ने फिराक़ की बात काटते हुए कहा - "एक लिहाज़ से मुरब्बा!"

7.
कोई साहब मजाज़ के सामने ग़ालिब का ये शेर पढ़ रहे थे -

शमअ जलती है तो उसमें से धुआं उठता है
शोल-ए-इश्क़ सियःपोश हुआ मेरे बाद  

मजाज़ ने सर धुनते हुए कहा - "सुब्हान अल्लाह क्या शेर है. जल तो शमअ रही है और धुआं 'मैं' के अंदर से उठ रहा है."
['शमअ बुझती है' के बजाय 'शमअ जलती है' - गलत शेर पढ़े जाने पर मजाज़ ने यह व्यंग्य किया था.]

8.
मजाज़ अपनी नीम दीवानगी के आलम में एक बार किसी व्याख्यान सभा में पहुँच गए तो किसी परिचित ने हैरतज़दा होते हुए कहा - "हज़रत-ए-मजाज़! आप और यहां?"

"जी हां" मजाज़ ने बहुत ही संजीदगी से कहा "आदमी को बिगड़ते क्या देर लगती है भाई?"

9.
मजाज़ अपने एक बहुत बेतकल्लुफ दोस्त और बड़े शाइर के यहाँ मेहमान थे. उनके शाइर दोस्त ने एक कमसिन बच्ची से उन्हें मिलवाते हुए कहा - "मजाज़! ये मेरी भांजी है. बहुत शरीर है. कल दोफ्हर को मैं सो रहा था कि अचानक आँख खुल गयी. उसी हालत में क्या देखता हूँ कि मेरे सिरहाने खड़ी मेरी पेशानी को सहलाती हुई ये बार-बार कह रही है - 'पाजी! पाजी!'"

मजाज़ ने बच्ची के मासूम चेहरे पर नज़रें डालते हुए कहा - "काफी मर्दुम शनास (आदमी पहचाननेवाली) बच्ची मालूम होती है."

10.
"देखो मजाज़! ये बम्बई वी.टी. का स्टेशन है. कितनी आलीशान इमारत है! कैसे बड़े-बड़े खुले और रोशन कमरे हैं!"

मजाज़  के इस दोस्त ने अपनी पतली-पतली और लम्बी-लम्बी उँगलियों को फ़ज़ा में लहराकर निहायत जज्बाती होते हुए कहना शुरू किया - "और इसी बंबई में हज़ारों बल्कि लाखों मजदूर कीड़े-मकौडों की तरह तंग-ओ-तारीक खोलियों में रहने को मजबूर हैं. उन्हें रहने के लिए न जाने ऐसे कमरे कब बनेंगे!"

मजाज़ ने ठीक उसी के लबो-लहजे में उदास सा होकर कहा - "हां यार तुमने ठीक ही तो कहा है -

रेलवे वालों ने दौलत का सहारा लेकर
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक

(जारी)

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