Tuesday, March 24, 2015

एक क़स्बे की कथाएँ - 1

फेसबुक पर दो दिन पहले मैंने अपने शहर हल्द्वानी के कुछ किस्से लगाना शुरू किया है. अभी इनका क्या बनेगा, ऐसी कोई ठोस सूरत इस विचार ने नहीं ली है. फिलहाल उन्हें यहाँ भी शेयर कर रहा हूँ –


हल्द्वानी के किस्से - 1

माँ ने आकर कहा "ज़रा देख तो, कोई आया है."

दरवाज़े पर थोड़ा सा परेशान लगता पैसठ-सत्तर साल का एक टिपिकल रिटायर्ड मध्यवर्गीय दिख रहा आदमी. कुछ कहने-पूछने से पहले ही बोला "ये डी पैंतीस नहीं मिल रहा." "ये डी पैंतीस ही है." मैंने कहा.

वह थोड़ा और परेशान हो गया. थोड़ा पूछताछ के बाद मालूम चला कि उसकी बेटी हमारे मोहल्ले के डी/35 में रहती है जहां आज उसके बच्चे का मुंडन संस्कार है. अब डी/35 मेरे घर का नंबर है. अच्छा खासा पसर जाने के बावजूद हमारे मोहल्ले में आज भी पड़ोसियों को हरेक छोटे-बड़े आयोजन में न्यौते जाने का रिवाज़ बना हुआ है. मैंने माँ से पूछा कि आज कहीं ऐसा कोई कार्यक्रम तो नहीं. उसे जानकारी नहीं थी.
मैंने भरसक सहानुभूति जताई कि हो सकता है उसकी बेटी ई/35 में रहती हो. उसे वहां जाने का रास्ता भी बता दिया.

दसेक मिनट बाद पाया कि वह फिर घर के बाहर की सड़क पर ही परेशान टहल रहा था. चेहरा बताता था वह अच्छा परेशान हो चुका. मुझे दया आ गयी.

बरामदे पर उसके लिए कुर्सी लगाई. साप्ताहिक कॉलम लिखने का जो काम मैं इमरजेंसी की हालत में कर रहा था, उसे किनारे रखा और बूढ़े की तकलीफ का समाधान खोजने की जुगत में लग गया.

दामाद एक आधुनिक बैंक में है. स्मार्टफोन पर उस बैंक हल्द्वानी का नम्बर खोजा. लैंडलाइन था. उठा नहीं. एकाध बैकर दोस्तों से पूछा फोन पर. कुछ नहीं.

इधर बूढ़ा उस रिक्शेवाले को कई बार गालियाँ दे चुका था जिसने उसे नहर के पास छोड़ने के बजाय क्रियाशाला के आगे छोड़ दिया था, वरना अपनी बेटी के घर तो वह कितनी बार जा चुका है वगैरह .
"आपके पास कोई फोन नंबर है?" - मैंने यह सवाल पहले पूछ लेना चाहिए था. उसे अपना नंबर याद था लेकिन फोन वह घर पर भूल आया था. शुक्र है नंबर याद था. घंटी मारी तो तीसरी कॉल पर उसकी बीवी ने उठाया. मैंने ज़रूरी सूचनाएं देकर बुढ़िया से कहा कि मेरे नंबर पर फोन करे. बीवी की आवाज़ ने उसे तात्कालिक राहत दिला दी थी. बूढ़े की बात भी कराई.

इधर माँ ने उसके लिए पहले पानी और फिर सेव-अंगूर पेश कर दिए. अंगूर टूंगता बूढ़ा अब आत्मकथात्मक मोड में आ गया था. बैंक में नौकरी करता था. २००४ में रिटायर हुआ. हल्द्वानी में मकान बना लिया है. कोई दोस्त नहीं है. टीवी कोई कितना देखे. सुबह-शाम वॉक करता है. एक बेटा अफ्रीका में कहीं है. बड़ी फैक्ट्री का मालिक है. छोटा इंजीनियर है गुडगाँव में. वहीं उसने दूसरा फ़्लैट खरीद लिया है, पहला फ़्लैट नोएडा में था ही. दामाद-बेटी-कुलीन ब्राह्मण-रिश्तेदार-भांग-घंटा-प्लाट वगैरह.

बीसेक मिनट बीत गए थे. बूढ़े की आत्मकथा समाप्त हो चुकी थी. बुढ़िया का फोन अब तक नहीं आया.
इधर माँ उसके लिए कॉफ़ी बना लाई.

फिर बुढ़िया को फोन लगाया. शायद ऐसा पहली बार हुआ था सो बुढ़िया के पास परिस्थिति से निबटने को कोई तात्कालिक स्ट्रेटेजी नहीं थी. मैंने उसकी बेटी का नंबर माँगा. यह भी मैंने बीस मिनट पहले कर लेना था.

बेटी ने दूसरी बार में फोन उठाया.

"येस" - फोन उठा. बेटी शायद हल्द्वानी के किसी पब्लिक स्कूल की मास्टरनी थी.

उसे बताया कि उसके पिताजी पौन घंटे से यहाँ भटक रहे हैं और यह भी कि मैं डी/35 से बोल रहा हूँ. वह भी डी/35 से बोल रही है - ऐसा उसने कहा.

वह हमारे अगले मोहल्ले से थी. यानी बूढ़ा गलत मोहल्ले में पहुँच गया था.

बेटी ने कहा वह किसी को स्कूटी से भेज रही है, मेरे मन में अब भी बूढ़े के लिए सहानुभूति बची हुई थी. सोच रहा था पिताजी ऐसे कहीं भटके होते तो!

पन्द्रह मिनट और बीत गए. बूढ़े ने अपनी जीवनगाथा रिपीट कर के सुनाई - इस बार दामाद-बेटी-कुलीन ब्राह्मण-रिश्तेदार-भांग-घंटा-प्लाट वगैरह पर ज़्यादा जोर था. इस रिपीट नेरेशन ने पहली बार मेरे भीतर उसके लिए नापसंदगी जैसी कोई चीज़ पैदा की. अब अपनी कल्पना में मैं उसे नौकरी के दौरान बैंक में आये गरीबों पर झींकता, चिल्लाता देख सकता था.

स्कूटी आ गयी. कलावा बांधे, तिलक लगाए बीसेक साल का गुटकाखोर एक मुटल्ला लौंडा था. लौंडे ने बूढ़े को देखा. बूढ़े ने लौंडे को. मैंने दोनों को देखा. बिजली की फुर्ती से बूढ़े ने उठकर गेट खोला. स्कूटी में बैठने से पहले बूढ़े लोगों को जितनी मशक्कत करनी पड़ती है उतनी करने में दो-तीन मिनट लगे. मैं गेट के बाहर सड़क पर खड़ा था.

यह विदा करने का समय था. आज के दिन के अच्छे काम के उपसंहार का समय.

लौंडे ने किक मारी, स्कूटी फुर्र. बूढ़े ने एक अक्षर बोलना तो दूर एक सेकेण्ड को भी पलट कर नहीं देखा. और दरअसल स्कूटी को देखने के बाद से उसके लिए मैं मर गया था. लौंडे से किसी तरह की थैंक्यू वगैरह की उम्मीद मुझे नहीं थी.

गेट बंद करता मैं कुर्सी, कप, प्लेट, संतरे के छिलके वगैरह देख रहा हूँ.

फिर एक बार गेट खोलता हूँ, सड़क पर निगाह मारता हूँ. स्कूटी पर एक तरफ को तनिक लटक सी गयी बूढ़े की पिछवाड़ी मोड़ पर ओझल होने को है.

गले में थूक भर गया है. मन माँ की गाली देने का कर रहा है.

(घटनाकाल: मार्च २०१५)

3 comments:

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

रोचक . ऐसा भी खूब होता है .लेकिन नईं पीढ़ी में ऐसा प्रायः नहीं होता .नए शिक्षित बच्चों में शिष्टाचार और समझदारी देखि जाती है .

Hem Pant said...

काश इसको बुड़ज्यु के परिवार के वो लोग पढ पाते जो गुड़गांव, नोइडा और अफ्रीका में ’सेट’ हैं।

कामता प्रसाद said...

कलेवा मतलब वही लाल धागा, जो अक्सर चूतिया किसिम के लोग बांधे रहते हैं।