Friday, October 31, 2014

राजनीति जब भागती है तब उसके पैरों से छलछंद की घूल उठती है



मेरे स्कूल बिड़ला विद्यामंदिर, नैनीताल में मेरे सबसे प्रिय गुरुओं में एक श्री राजशेखर पन्त की फेसबुक वॉल से एक पोस्ट शेयर कर रहा हूँ.

अब तो हटना ही चाहिये खेलों की दुनिया से इन नेताओं को

राजशेखर पंत

जयशंकर प्रसादके प्रसिद्ध नाटक ध्रुवस्वामिनी की एक पंक्ति है – “राजनीति जब भागती है तब उसके पैरों से छलछंद की घूल उठती है”. संदर्भ भले ही बदल गये हों पर हकीकत आज भी सौ फीसदी यही है. खेल के मैदान और उस पर दौड़़ने वाले खिलाड़ी की बागडोर जब किसी नेता या राजनीति से जुड़े शख्स के हाथ में होती है तब विजय का उल्लास, उपलब्घि की संतुष्टि, पराजय से जन्मी कशमकश और आत्म-विश्लेशण या फिर खेल भावना और नेतृत्व की क्षमता के स्थान पर दिखायी देता है पद का दुरुपयोग, प्रतिभा की उपेक्षा, करदाता के पैसे से विदेशों में मौजमस्ती और शराब के नशे में गाड़ी चलाने या यौन उत्पीड़न जैसे आरोपों के चलते सारे देश को शर्मसार करने वाली धिनौनी और लिजलिजी हरकतें ... बात यहीं पर खत्म नहीं होती होती. खेल के मैदान पर तब नजर आते हैं वो चेहरे जिनके लिए सरकारी खर्चे पर दुनिया की सैर करना, सुविघाओं को भोगना ज्यादा अहम होता है. तब ओलंपिक या किसी अंर्तराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में जाने वाले खिलाडि़यों के दल से बड़ी हो जाती है उन आफीशियल्स की सेना जो इनके साथ जाती है, और लगे हाथों राजनीति के कुछ घुरंधर खिलाड़ी अपने बच्चों के स्कूल के प्रिसिंपिल्स को भी ग्लासगो की सैर करा लाते हैं. ग्रासरूट लेवल पर प्रतिभाओं की खोज और उन्हैं बढ़ावा देने जैसी बातें तब एक सजावटी सामान बन जाती हैं - 15 अगस्त या 26 जनवरी को झाड़पोंछ कर रखी गयी गांधी की मूर्ति की तरह. कोई चन्द्रप्रकाश मौर्य या एस. पी. पृथ्वी तब बार-बार उपेक्षा का शिकार हो कर आत्महत्या करते हैं और किसी अर्जुन एवार्डी की खस्ताहाली में रिक्शा चलाते हुए खींची गई तस्वीर किसी सांध्य दैनिक के आखिरी पन्ने पर छपी एक छोटी सी खबर भर बन जाती है. और यह सब होता है इसलिए क्योंकि इस देश में हिन्दुस्तान की हाकी टीम का कप्तान रहे किसी परगट सिंह की हाकी इंडिया का अघ्यक्ष बनने की दावेदारी को अक्सर किसी 85 वर्षीय विद्या स्टोक्स के बरक्स खारिज कर दिया जाता है.

इन विसंगतियों की फेहरिस्त निहायत ही लंबी है और शायद इससे भी लंबी है उन स्पोट्र्स फेउन्डेशन्स की सूची जिनमें से अघिकांश के अघ्यक्षपद पर राजनीति से जुड़ी शख्सियतों का कब्जा है. राजनीति से अप्रसांगिक हो चुके बहुत से पुराने सामानों को खेल की राजनीति आज भी प्रासंगिक बनाये हुए है. 

इन खेल संगठनों और उन राजनैतिक शख्सियतों का व्यक्तिगत रूप से उल्लेख करना, जो कि पिछले बीस-तीस सालों से इन्हैं अपनी मिल्कियत बनाये हुए हैं यहाँ जरूरी नहीं है. बड़ा सवाल यह है कि खेल जो जमीन, घूल, मट्टी और पसीने से जुड़ा एक सरोकार है उससे अक्सर आसमान में उड़ने वाले राजनैतिज्ञ क्यों जुड़ना चाहते हैं? जब कि यह साफ है कि इन लोगों का खेलों से वैसा ही संबंघ है जैसा कि किसी महानगर की हाइराइज बिल्डिंग में रहने वाले शख्स का हिमालय की तलहटी पर स्थित किसी उजड़े हुए गाँव या खलिहान से होता है. वास्तव में खेल सामान्य जनों से, वोटर से जुड़ी एक फितरत है. जाति घर्म जैसे सरोकारों से उपर है ये. देश के युवा वर्ग में, जिसका प्रतिशत हमारे देश में काफी बड़ा है, यह सीघे जुड़ा है. इसके सहारे राष्ट्रवाद से ले कर क्षेत्रीय अस्मिता तक की भावनाओं को आसानी से भड़काया जा सकता है. एक खालिस शास्त्रीय किस्म का उदाहरण इसे और अघिक स्पष्ट कर देगा. याद कीजिये एक अज़ीम सियासी शख्सियत शरद पवार का राजनैतिक ग्राफ. महाराष्ट्र की क्षेत्रीय राजनीति से चल कर केन्द्र में कृषि मंत्री बनने तक के उनके सफर में कबड्डी और खो-खो जैसे ठेठ मराठी खेलों से ले कर बीसीसीआई से उनके जुड़ने तक की अन्र्तकथा समानांतर रूप से चलती है. बीसीसीआइ की अघ्यक्षता से पहले वह कबड्डी और खो-खो एसोसिएशन के भी प्रधान रहे थे. एक और वाकया है. हमारे तीन बाक्सर्स विजयेन्द्र सिंह, अखिलेश कुमार और जितेन्द्र कुमार जब अच्छे प्रर्दशन के बाद बिजिंग से लौटते हैं, तो हरियाणा की तत्कालीन हुड्डा सरकार का सारा अमला उन्हैं हुड्डा साहब की ब्रेकफास्ट टेबल तक ले जाने के लिए दिल्ली एअरपोर्ट पर होता है. पर इसी बीच बाक्सिंग फेडरेशन के अघ्यक्ष अभय चौटाला इन्हैं सीधे एयरपोर्ट से उठा कर उड़न छू हो जाते हैं, और फिर पांच दिनों तक उनके साथ समारोहों और अभिनन्दनों में व्यस्त हो जाते हैं. जाहिर है चैटाला इन दिनों मीडिया में छाये रहते हैं और काँग्रेस सरकार को इस उपलब्घि के बचे खुचे दोहन का मौका एक हफ्ते बाद मिलता है.

बात सिर्फ प्रचार या चर्चा में बने रहने भर की नहीं है. अकेले राष्ट्रीय खेल फेडरैशन लगभग 50 करोड़ का बजट खेलों के लिए मुकर्रर करता है. खेल से जुड़ा हर संगठन इस पैसे को लेता है. पर टैक्स पेयर की जेब से गये इस पैसे का हिसाब कोई नहीं देता. हास्यास्पद लगता है यह देखना कि मणिशंकर अय्यर जैसा सरकार में मंत्री रहा कोई व्यक्ति यदि इस मुद्दे को उठाता है तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. स्पोर्टस फेडरेशन को नैशनल स्टेडिया में आलीशान आफिस गैस्ट हाउस क्लब इत्यादि मामूली किराये पर मिलते हैं; बावजूद इसके इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन का बिजली का बैकलाग ही, स्पोर्टस अथारिटी आव़ इंडिया के अनुसार, करोड़ों में होता है. मुंबई में फाइल एक पी. आइ. एल. बताती है कि वेस्टर्न इंडियन फुटबाल एसोसिएशन द्वारा नियंत्रित कूपरेज ग्राउंड और मुंबई में ही स्थित महेन्द्रा स्टेडियम खेलों के लिए कम और हाइ प्रोफाइल शादियों के लिए अघिक जाने जाते हैं. विभिन्न स्टेडिआ का उपयोग पार्टियों द्वारा राजनैतिक जलसेां के लिये किया जाता है. स्वाभाविक है राजनैतिक हित जब इस कदर हावी होने लगते हैं तब खेल और खिलाडि़यों का पृष्ठभूमि में जाना तो तय होता ही है. 125 करोड़ की आबादी वाला यह देश एक दर्जन गोल्ड मैडल भी किसी ओलंपिक में नहीं जीत पाता. यहां प्रश्न प्रतिभा की कमी का नहीं उसे पहचानने, उसे संवारने, अवसर देने और उसके दोहन का है, गड़बड़ाती हुई प्राथमिकताओं का है. और जब राष्ट्रीय सन्दर्भों में प्राथमिकताऐं भटक जाती हैं तब खेलों को खोखला करने वाली राजनीति के इतिहास पुरुष रहे सुरेश कलमाडी या प्रहलाद सावंत जैसे लोग महज़ एक दुर्योग या दुर्घटना नहीं, एक आवश्यक बुराई बन जाते हैं. 

राजनेताओं को इन फेडरेशन्स से हटाना एक सामयिक ज़रूरत है और सिविल सोसायटी इस क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा सकती है. पूर्व ओलंपियन्स द्वारा गठित क्लीन स्पोर्ट्स इंडिया की पहल इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कही जा सकती है. राजनैतिज्ञों के एकाघिकार को सीघे चुनौती देते हुए, इस संगठन से जुड़ी अश्विनी नाचप्पा कहती हैं कि इन्हैं खेल, खिलाडि़यों के आत्मसम्मान और इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी सुविधाओं की न तो समझ होती है और न ही इसके महत्व का कोई आभास. सी. एस. आई. द्वारा लिखे गये एक पत्र का- जिसमें इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के खेल के प्रति दुर्भाग्यपूर्ण रवैये को आड़े हाथों लिया गया है- आई. ओ. सी. के प्रेसिडेंट द्वारा संज्ञान लिया जाना ही इस बात का प्रमाण है कि स्थितियां बहुत अच्छी नहीं हैं. राजनैतिज्ञों के खेल जगत में छाये वर्चस्व पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस टी. एस. ठाकुर और जस्टिस चलामेश्वर की बैंच इसे ए सैड कमेंन्ट्री आन स्पोर्टस इन इंडियाकहती है. सोसायटी फ़ॉर जस्टिस ने तो मुंबई हाइकोर्ट में फाइल अपनी पी. आइ. एल. में कुछ नामचीन सियासी हस्तियों को सीधे प्रतिवादी बना दावा किया है कि जो समय इन राजनैतिक हस्तियों को अपने मंत्रालय में बिताना चाहिये था वह पार्टी तथा व्यक्तिगत हितों को साघते हुए इन्होंने स्पोर्टस फेडरेशन में बरबाद किया है.

तो निश्चय ही एक अच्छी शुरुवात हो चुकी है, जो निरंतर बढ भी रही है. इसे यूं ही बढ़ते रहना चाहिये, क्यों कि ऐसा अगर नहीं हुआ तो सवा सौ करोड़ की आबादी वाला यह देश सैकड़ों कलमाडी, शरद पवार या राजीव शुक्ला भले ही पैदा कर ले पर एक ध्यानचंद, सचिन तेंदुलकर या मिल्खा सिंह का पैदा होना महज एक संयोग ही बना रहेगा. खेलों का स्तर तब यूं ही गिरता रहेगा और कभी कभार एक्का-दुक्का मैडल झटक लेने वाले खिलाडि़यों के फोटो हमेशा अपने होठों पर एक पेशेवर मुस्कान चिपकाये रहने वाले इन नेताओं के साथ अखबारों में छपती और न्यूज़ चैनलों पर दीखती रहेगी. ये बात दीग़र है कि तब ज़मींदोज़ हो जाने के इंतजार में क़फन ओढ़ कर बैठा हिन्दुस्तान के खेलों का भविष्य शायद यह कहने लायक भी नहीं रहेगा कि-

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक 
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.

राजशेखर पंत

बद्री भवन
साकेत
भीमताल-263136
जि. नैनीताल
उत्तराखंड
मो. 9412100304


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