Thursday, October 31, 2013

गनेशी लाल के पोते के भविष्य के लिए गुड़ बेचना मुनासिब रहेगा या सन्दलवुड - के. पी. सक्सेना को श्रद्धांजलि


जनाब के. पी. सक्सेना यानी कालिका प्रसाद सक्सेना के निधन की ख़बर आई है. लम्बे समय से कैसर के जूझ रहे सक्सेना साहब ने आज लखनऊ में अपनी अंतिम साँसें लीं.
उन पर एक आलेख मैंने काफ़ी समय से सम्हाला हुआ था सो जस का तस यहाँ लगा रहा हूँ और उसके बाद इस शानदार रचनाकार की एक रचना भी.
कबाड़ख़ाने की श्रद्धांजलि.
सन २००० की बात है इसी साल के.पी. सक्सेना साहब को भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था. एक रोज़ सुबह आठ बजे के.पी. साहब के घर का फोन बजा. उन्होने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज़ आई- “के.पी. सक्सेना साहब से बात हो सकती है, मै मुंबई से आमिर खान बात कर रहा हूं.” के.पी. सक्सेना ने कहा- “अमां सुबह सुबह आपको हमी मिलें तफरीह के लिए,” और फोन काट दिया. इस एक जुमले में के.पी. साहब के व्यंग्य की धार महसूस की जा सकती है. बाद में आमिर खान ने परेश रावल से फोन करवाया जोकि के.पी. साहब के पुराने दोस्त हैं और ये ख्वाहिश जताई कि वे उनसे लगान के संवाद लिखवाना चाहते हैं. के.पी. मान गए लेकिन एक शर्त पर कि पूरी फिल्म वे लखनऊ में अपने घर पर बैठकर ही लिखेंगें, मुंबई के नहीं. ये है लखनऊ से केपी सक्सेना का रिश्ता. न सिर्फ लगान बल्कि जोधा-अकबर, स्वदेस और हलचल के संवाद भी के.पी. साहब ने लखनऊ में रहकर ही लिखे और उनकी लिखी इन चारो फिल्मों के डायलॉग लोगों के सर चढ़कर बोले.
सन 1931 में लखनऊ में जन्मे के.पी. सक्सेना की गिनती वर्तमान समय के सबसे बड़े व्यंग्यकारों में होती है. हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पहचाने गए व्यंग्यकार है, जिन्होने लखनऊ के मध्यवर्गीय जीवन के इर्द-गिर्द अपनी रचनाएं बुनीं. के.पी. साहब के रचना कर्म की शुरूआत उर्दू में अफसानानिगारी के साथ हुई थी लेकिन बाद में अपने गुरू अमृत लाल नागर के कहने और आशीर्वाद पाने पर वे व्यंग्य के क्षेत्र में आ गए. नागर साहब की शैली और आशीर्वाद दोनों ने के.पी. साहब के वयंग्य में खूब असर पैदा किया. उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि आज उनके तकरीबन पन्द्रह हजार प्रकाशित व्यंग्य हैं जो कि अपने आप में एक दुर्लभ कीर्तिमान है. उनकी पांच से ज्यादा फुटकर वयंग्य की पुस्तकें प्रकाशित हैं जबकि कुछ व्यंग्य उपन्यास भी छप चुके हैं.
के.पी. साहब की शैली हरिशंकर परसाई और मुजतबा हुसैन की तरह के तीखे व्यंग्य की नहीं है. वे शरद जोशी की तरह व्यंग्य को हास्य में लपेटकर पेश करने में ज्यादा सहज हैं. उनकी लखनवी शैली की उनकी मौलिकता और देशजता उन्हे अनूठा बना देती है. ये भी एक आश्चर्य ही है कि देश में के.पी. सक्सेना ही अकेले ऐसे गद्यलेखक रहे हैं जिनको कवि सम्मेलनों में जनता ने कवियों के बीच भी सुना है और सराहा है.
एक लम्बे कालखण्ड तक के.पी. साहब की ख्याति देशभर में व्यंग्यकार के बतौर रही है लेकिन पिछले एक दशक में उन्हे जो ख्याति आशुतोष गोवारिकर की फिल्मों के लिए उनके लिखे संवादों ने दिलाई उसका कोई जोड़ नहीं. खुद के.पी. भी ये मानते हैं. फिलहाल वे आशुतोष गोवारिकर की ही नई फिल्म के संवाद लिख रहे हैं जिसकी विषयवस्तु प्रागैतिहासिक काल के जनजीवन पर आधारित है.
लखनऊ सोसाइटी के संस्थापक ने कुछ रोज़ पहले के.पी. साहब से उनके घर पर मुलाकात की. इस दौरान के.पी. लखनऊ सोसाइटी के प्रयासों से बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि ये कोशिश ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पहुंचनी चाहिए.
(http://lucknow.me/ से साभार)

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चन्दनवुड चिल्ड्रन स्कूल...!

- के. पी. सक्सेना

आँख मुलमुल...गाल...गुलगुल...बदन थुलथुल, मगर आवाज बुलबुल ! वे मात्र वन पीस तहमद में लिपटे, स्टूल पर उकडूं बैठे, बीड़ी का टोटा सार्थक कर रहे थे ! रह-रह कर अंगुलियों पर कुछ गिन लेते और बीड़ी का सूंटा फेफड़ों तक खींच डालते थे! जहां वे बैठे थे वहाँ कच्ची पीली ईंट का टीन से ढका भैंसों का एक तवेला था ! न कोई खिड़की न रौशनदान ! शायद उन्हें डर था कि भैंसें कहीं रोशनदान के रास्ते ख़िसक ने जाएं ! सुबह सवेरे का टाइम था और भैंसें शायद नाश्तोपराँत टहलने जा चुकी थीं ! तवेला खाली पड़ा था ! उन्होंने मुझे भर आँख देखा भी नहीं और बीड़ी चूसते हुए अंगुलियों पर अपना अन्तहीन केल्क्यूलेशन जोड़ते रहे !...
मैंने उनसे सन्दलवुड चिल्डन स्कूल का रास्ता पूछा तो उनकी आंखों और बीड़ी में एक नन्ही सी चमक उभरी !...धीरे से अंगुली आकाश की ओर उठा दी गोया नया चिल्ड्रन स्कूल कहीं अन्तरिक्ष में खुला हो ! मगर मैं उनका संकेत समझ गया ! नजर ऊपर उठाई तो तवेले की टीन के ऊपर एक तख्ती नजर आई, जिस पर गोराशाही अंग्रेजी में कोयले से लिखा था-दि सन्दलवुड चिल्ड्रन स्कूल !...प्रवेश चालू ! इंगलिश मीडियम से कक्षा ६ तक मजबूत पढ़ाई ! प्रिन्सिपल से मिलें !...

'तख्ती पढ़कर मैं दंग रह गया !...यही है चंदन लकड़ी स्कूल ?...चंदन दर किनार, कहीं तारपीन या कोलतार तक की बू नहीं थी ! मेरी मजबूरी अपनी जगह थी ! मुहल्ले के गनेशी लाल के पोते के दाखले की जिम्मेदारी मुझ पर थी ! खुद गनेशी लाल उम्र भर पढ़ाई लिखाई की इल्लत से पाक रहे और अपने बेटे को भी पाक रखा ! सिर्फ गुड़ की किस्में जान लीं और खान्दानी कारोबार चलाते रहे ! मगर पोता ज्यों ही नेकर में पांव डालने की उम्र को पहुंचा, उनकी पतोहू ने जिद पकड़ ली कि छुटकन्ना पढ़ि़ है जरूर, और वह भी निखालिस इंगलिश मीडियम से !...उसकी नजर में हिन्दी मीडियम से पढ़ने से बेहतर है कि गुड़ बेच ले !

पतोहू ने अपने मैके में देखा कि अंग्रेजी मीडियम से पढ़े छोकरे कैसे फट-फट आपस में इंगलिश में गाली गलौज करते हैं !...एक स्मार्टनेस सी रहती है सुसरी !...चुनांचे गनेशी लाल मेरे पीछे पड़ गये कि छोकरे को कहीं अंग्रेजी मीडियम में डलवा ही दूं !...उधर जुलाई-अगस्त की झड़ी लगते ही चिल्ड्रन स्कूलों में वह किच-किच होती है कि आदमी अपना मरा हुआ बाप भले ही दोबारा हासिल कर ले, मगर बच्चे को स्कूल में नहीं ठूंस सकता !...

अंग्रेजी के 'डोनेशन' और हिन्दी के 'अनुदान' का फर्क इसी वक्त समझ में आता है आदमी को ! अनुदान के बीस रूपयों में बच्चा हिन्दी मीडियम में धंस जाता है, मगर डोनेशन तीन अंकों से नीचे होता ही नहीं !...अंग्रेजी की ग्रेटनेस का पता यहीं पर चलता है ! खैर...! शिक्षा सन्दर्भ में यह एक अच्छी बात है कि बारिश में फूली लकड़ी पर उगे कुकुरमुत्तों की तरह, जुलाई-अगस्त में चिल्ड्रन स्कूल भी दनादन उग आते हैं ! हर गली-मुहल्ले में भूतपूर्व लकड़ी की टालों और हलवाईयों की दुकानों पर नर्सरी मोन्टेसरी स्कूलों के बोर्ड टंग जाते हैं ! हर साइन बोर्ड का यही दावा होता है कि हमारे यहाँ बच्चा माँ की गोद जैसा सुरक्षित रहेगा और आगे चलकर बेहद नाम कमायेगा !...ऐसे ही दुर्लभ तथा नये उगे स्कूलों में 'सन्दल वुड चिल्ड्रन स्कूल' का नाम भी मेरे कान में पड़ा था!

नाम में ही चंदन सी महक और हाली-वुड जैसी चहक थी !...और अब मैं टीन जड़ीत, रोशनदान रहित उसी स्कूल के सामने खड़ा था !... बीड़ी तहमद वाले थुलथुल सज्जन ने आखिरी कश खींच कर बीड़ी को सदगति तक पहुंचाया, और तहमद के स्वतन्त्र कोने से मुंह पोंछ कर आंखों ही आंखों में पूछा कि क्या चाहिए ?...मैंने दोनों हाथों से बच्चे का साइज बताया और धीरे से पूछा कि प्रिंसिपल कहाँ हैं...कब उपलब्ध होंगे ? वे भड़क गये ! गुर्रा कर बोले-'हम आपको क्या नजर आवे हैं ? टाई-कमीज अन्दर टंगी है तो हम प्रिन्सिपल नहीं रहे ? जरा बदन को हवा दे रहे थे ! आप बच्चा और फीस उठा लाइए ! भर्ती कर लेंगे !'

मैं सटपटा गया और इस बार उन्हें उस ढंग से अभिवादन पेश किया जिस ढंग से अमूमन अंग्रेजी मीडियम से होता है ! यह पूछने पर कि बाकी टीचिंग स्टाफ कहाँ है, उन्होंने बताया कि बाकी का स्टाफ भी वह खुद ही हैं ! क्लास थ्री स्टाफ भी, और क्लास फोर (झाडू, पोंछा, सफाई) भी !...दो अदद लेडी टीचस भी हैं, जिनमें से एक उनकी मौजूदा पत्नी हैं और दूसरी भूतपूर्व ! फिलहाल दोनों घर में लड़ाई-झगड़े में मसरूफ हैं ! चट से टीचिंग सेशन शुरू होते ही आ जाएगी !...अभी कुल तेईस बच्चे नामजद हुए हैं ! पच्चीस पूरे होते ही ब्लैक बोर्ड मंगवा लेंगे और पढ़ाई जो है उसे शुरू करवा देंगे !...मुझे तसल्ली हुई ! डरते-डरते पूछा-खिड़कियां, रोशनदानों, पंखों और बैंचों वगैरा का झंझट आपने क्यों नहीं रखा ?'...
वे दूरदर्शी हो गए !...आप चाहते हैं कि बच्चों को अभी से आराम तलब बना दें ?... ग्लासगो कभी गए हैं आप ? वहाँ के सन चालीस के पैटर्न पर हमने स्कूल शुरू किया है ! बच्चों को, उसे क्या कहते हैं...हां...हार्डशिप की आदत डालनी होगी !...फिर धीरे-धीरे सब कुछ हो जइहे !...अगले साल रोशनदान खुलवा देंगे...फिर अगले साल पंखों वगैरा की देखी जाएगी !...पईसा चाहिए, कि नाहीं चाहिए ?...पच्चीस बच्चों की फीस लईके सुरू में ही आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी खोल दें का ?...टाइम पास होते-होते सब कुछ हुई जयिहे !...बच्चा ले आवो !...दो ही सीटें बची हैंगी !...

'सो साहब, चंदन वुड चिल्ड्रन स्कूल के प्रधानाचार्य के श्रीवचन सुनकर मैं काफी से भी अधिक प्रभावित हुआ ! सारी हिम्मत बटोर कर एक अन्तिम प्रश्न पूछा- 'माहसाब ! वैसे तो अपने इण्डिया में चारे-भूसे की कमी चाहे भले ही हो, मगर बच्चों का टोटा नहीं है ! फिर भी मगर दो बच्चे और न हाथ लगे तो क्या आप स्कूल डिजाल्व कर देंगे ?' वे पुन: भड़क गये !...आये गए सूबे-सूबे नहूसत फैलाने !... जिस भगवान ने तेईस बच्चे दिये, वह दो और नाहीं भेजिहे का ? डिजालव कर भी दें तो कौन सी भुस में लाठी लग जईहे ?...पहले इस टीन में पक्के कोयला कर गुदाम रहा !...सोचा कि इस्कूल डाल लें ! डाल लिया !...इन्ते पढ़े लिखे हैंगे कि कक्षा ६ तक पढ़ाये ले जावें ! नाहीं चल पईहे इस्कूल तो कोयले का लैसंस कोई खारिज हुई गवा है का ?...लपक के बच्चा लै आओ !...' मैं लपक कर चल पड़ा !...

रास्ते भर प्रधानाचार्य की उस अंग्रेजी से प्रभावित रहा जो एक फिल्मी गाने 'आकाश में पंछी गाइंग...भौरां बगियन में गाइंग' जैसी थी ! मास्साब दूर तक टकटकी बांधे मुझे उम्मीदवार नजरों से देख रहे थे, गोया कह रहे हों- बच्चा लईहे जरूर ! जईहे कहां? इधर मैं यह सोच रहा था कि गनेशी लाल के पोते के भविष्य के लिए गुड़ बेचना मुनासिब रहेगा या सन्दलवुड चिल्ड्रन स्कूल में अंग्रेजी मीडियम से शिक्षा अर्जित करना?...


(नोट - यदि किसी स्कूल का नाम यही हो, तो अन्यथा न लें! नाम काल्पनिक है !)

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