Saturday, October 6, 2012

मंटो के मीराजी – ३





(पिछली किस्त से आगे)


किसी भी औरत से इश्क़ किया जाए तिगड्डा एक ही किस्म का बनता है.  हुस्न, इश्क़ और मौत. आशिक़, माशूक और वस्ल. मीरा से सनाउल्लाह का विसाल, जैसा कि जानने वालों को मालूम है, न हुआ या न हो सका. इस होने या न हो सकने का रद्द-ए-अमल मीराजी था. उसने मुआश्के में शिकस्त खा कर उस तसलीस के टुकड़ों को इस तरह जोड़ा था कि उनमें एक सालिमियत आ गयी थी, मगर असलियत मस्ख हो गयी थी. वह तीन नोकें जिनका रुख़ ख़त-ए-मुस्तक़ीम में एक दूसरे की तरफ होता है, दब गयी थीं. विसाल-ए-महबूब के लिए अब ये लाजिम नहीं था कि महबूब मौजूद हो. वह ख़ुद ही आशिक़ था, ख़ुद ही माशूक और ख़ुद ही विसाल.


मुझे मालूम नहीं उसने लोहे के ये गोले कहाँ से लिए थे. ख़ुद हासिल किए थे या उसे कहीं पड़े हुए मिल गए थे. मुझे याद है एक मर्तबा मैंने उनके मुताल्लिक बम्बई में उससे इस्तिफ़सार किया था तो उसने सरसरी तौर पर इतना कहा था : मैंने ये ख़ुद पैदा नहीं किए, अपने आप पैदा हो गए हैं.


फिर उसने उस गोले की तरफ इशारा किया जो सबसे बड़ा था : पहले यह वुजूद में आया था. इसके बाद यह दूसरा जो इस से छोटा है. इसके पीछे यह कोचक.


मैंने मुस्करा कर उस से कहा था : बड़े तो बाबा आदम अलैहस्सलाम हुए. ख़ुदा उनको वह जन्नत नसीब करे जिससे वह निकाले गए थे ... दूसरे को हम अम्मा हव्वा कह लेते हैं और तीसरे को उनकी औलाद.


मेरी इस बात पर मीराजी खूब खुल कर हंसा था मैं अब सोचता हूँ तो मुझे उन तीन गोलों पर सारी दुनिया घूमती नज़र आती है. तस्लीस क्या तख्लीक़ का दूसरा नाम नहीं? वह तमाम मुसल्लसें जो हमारी ज़िन्दगी का उकलीदीस हैं मौजूद हैं क्या उनमें इंसान की तख्लीक़ी कुव्वतों का निशान नहीं हैं?   


ख़ुदा, बेटा और रूहुलकुदूस : ईसाइयत के अक़ानीम त्रिशूल, महादेव का सह शाखा भला तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश : आसमान, ज़मीन और पाताल खुश्की, तरी और हवा तीन बुनियादी रंग : सुर्ख, नीला और ज़र्द. फिर हमारे रुसूम और मजहबी अहकाम यह तीजे, सोम और तलैडिया. वुज़ू में तीन मर्तबा हाथ मुंह धोने की शर्त. तीन तलाक़ें और सह गुना मुआनके. और जुए में नर्दबाज़ी के तीन पांसों के तीन नुक़ते यानी तीन काने. मौसीकी की तिय्ये हयात-ए-इंसानी के मलबे को अगर खोद कर देखा जाए तो मेरा ख्याल है ऐसी कई तस्सीसें मिल जाएंगी, इसलिए कि उसके तवालुद और तनासुल के अफ़ाल का महवर भी आज़ा-ए-सुलासा है.


उक़लीदिस में मुसल्लस बहुत अहम हैसियत रखती है. दूसरी अशकाल के मुकाबले में यह ऐसी कट्टर और बेलोच शक्ल है जिसे आप किसी और शक्ल में तब्दील नहीं कर सकते. लेकिन मीराजी ने अपने दिल-ओ-दिमाग और जिस्म में इस तिकोन को, जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है, कुछ इस तरह दबाया कि उसके रुकन अपनी जगहों से हट गए, जिसका नतीज़ा यह हुआ कि आस-पास की दूसरी चीज़ें भी इस तिकोन के साथ मस्ख हो गईं और मीराजी की शायरी ज़हूर में आई.


पहली मुलाक़ात में ही उसकी-मेरी बेतकल्लुफी हो गयी थी. उसने मुझे दिल्ली में बताया था कि उसकी जिन्सी इजाबत आमतौर पर रेडियो स्टेशन के स्टूडियोज में होती है. जब वह कमरे खाली होते थे तो वह बड़े इत्मीनान से अपनी हाज़त रफा कर लिया करता था. उसकी वह जिन्सी जलालत ही, जहां तक मैं समझता हूँ, उसकी मुब्हम मंजूमात का बाईस है, वरना जैसा कि मैं पहले बयान कर चुका हूँ आम गुफ्तगू में वह बड़ा वाज़े दिमाग़ था. वह चाहता था कि जो कुछ उस पर बीती है अशआर में बयान हो जाए, मगर मुश्किल यह थी कि जो मुसीबत उस पर टूटी थी उसको उसने बड़े बेढंगे तरीके से जोड़कर अपनी निगाहों के सामने रखा था. उसको इसका इल्म था. इस ज़िम्न में वह अपनी बेचारगी अच्छी तरह महसूस करता था लेकिन आम आदमियों की तरह उसने अपनी इस कमजोरी को अपना ख़ास रंग बनाने की कोशिश की और आहिस्ता-आहिस्ता उस मीरा को भी अपनी गुमराही की सूली पर चढ़ा दिया.


बहैसियत शायर के उसकी हैसियत वही है जो सड़े-गले पत्तों की होती है, जिसे खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. मैं समझता हूँ उसका कलाम बड़ी उम्दा खाद है जिसकी इफ़ादियत एक न एक दिन ज़रूर ज़ाहिर हो के रहेगी.उसकी शायरी एक गुमराह इंसान का कलाम है जो इंसानियत की अमीक़ तरीन पस्तियों से मुताल्लिक होने के बावजूद दूसरे इंसानों के लिए ऊंची फिजाओं में मुर्ग़-ए-बाद नुमा का काम दे सकता है. उसका कलाम एक जिगसौ पज़ल है जिसके टुकड़े बड़े इत्मीनान और सुकून से देखने चाहिए.


बहैसियत इंसान वह बड़ा दिलचस्प था. परले दर्जे का मुख्लिस जिसे अपनी इस करीब-करीब नायाब सिफत का मुत्लक़न अहसास नहीं था मेरा जाती ख़याल है कि वह अशखास जो अपनी ख्वाहिशात-ए-जिस्मानी का फैसला अपने हाथों को सौंप देते हैं आमतौर पर इसी किस्म के मुख्लिस होते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ख़ुद को सरीहन धोखा देते हैं, मगर इस फरेबदिही में जो ख़ुलूस होता है, वह ज़ाहिर है.


मीराजी ने शायरी की, बड़े ख़ुलूस के साथ. शराब पी बड़े ख़ुलूस के साथ. भंग पी वह भी बड़े ख़ुलूस के साथ. लोगों से दोस्ती की और उसे निभाया. अपनी ज़िन्दगी की एक अज़ीमतरीन ख्वाहिश को जुल देने के बाद वह किसी और से धोखा-फ़रेब करने का अहल नहीं रहा था. इस अहलियत के अखराज़ के बाद वह इस कद्र बेज़रर हो गया था कि बेमिस्रिफ सा मालूम होता था. एक भटका हुआ मुसाफिर जो नगरी नगरी फिर रहा है. मंजिलें क़दम क़दम पर अपनी आगोश उस के लिए वा करती हैं मगर वह उनकी तरफ देखे बगैर आगे निकलता जा रहा है, किसी ऐसी जगह जिसकी कोई संत है न रक़बा एक ऐसी तिकोन की जानिब जिसके अरकान अपनी जगह से हटकर तीन दायरों की शक्ल में उसके गिर्द घूम रहे हैं.


(जारी)    

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