Thursday, September 27, 2012

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती पर स्मृति - समकालीन समस्याओं पर साक्षात्कार - दूसरा भाग


(पिछली किस्त से आगे)

प्रश्न: शुक्ल जी, इधर के तमाम लोग ऐसा मानते हैं कि आप हिंदी नव जागरण की प्रगतिशील चेतना के अग्रगामी साहित्य विचारक हैं जिसने भारतीय और पाश्चात्य, नवीन और प्राचीन, ज्ञान की विभिन्न परंपराओं के गंभीर अध्ययन और स्वतंत्र चिंतन के आधार पर हिंदी में वस्तुवादी साहित्य-दृष्टि का विकास किया. आपने इतिहास, दर्शन, भाषाशास्त्र, विज्ञान और साहित्य - संबंधी नए-पुराने चिंतन की वैचारिक यात्रा करने के बाद एक सुनिश्चित समाजोन्मुखी वस्तुवादी साहित्य दृष्टि अर्जित की और अपनी इस अर्जित नई साहित्य दृष्टि से ही परंपरा के मूल्यांकन, वर्तमान की आवश्यकताओं की पहचान और भावी विकास की दिशा खोजने का प्रयास किया. इस सब की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली और इसकी जरूरत कैसे महसूस हुई?

उत्तर: जिस समय मैंने लिखना शुरू किया उस समय हिंदी आलोचना की दशा कुछ ऐसी थी कि वह लक्षण-ग्रंथों में रसों, अलंकारों, नायक-नायिकाओं की सूची बनाने में ही अपनी सिद्धि समझ रही थी. साहित्य के अनुशासन की बात तो दूर साधारण मार्ग निर्देश भी इनसे नहीं हो पा रहा था. आलोचना में अच्छे-बुरे की पहचान का कोई ठौर-ठिकाना नहीं था, जो जिसे ले उड़े बस वही महान. रीतिकालीन दरबारी माहौल आलोचना में भी था और काव्य-चमत्कार पर रीझ ‘कलम तोड़ दी’ वाले अंदाज में आलोचक आह-वाह करते थे. भारतेंदु जी के समय से हिंदी के शिष्ट साहित्य का यह प्रयास हुआ कि आलोचना भी लक्षण-ग्रंथों की इस जकड़ या भावोच्छवासमयी प्रणाली से मुक्त हो सके. इसके लिए कुछ रास्ता भी बनने लगा था. पं. बाल कृष्ण भट्ट के ‘हिंदी प्रदीप’ तथा ‘सरस्वती’ में नए ढंग की समालोचना आने लगी थी. इसी को हमने आगे बढ़ाने की कोशिश की.

दूसरी बात यह कि इस समय अंग्रेजों और उनके पिछलग्गू राजा-बाबुओं के विरुद्ध किसानों के आंदोलन जोर पकड़ने लगे थे. हिंदी के एक हजार वर्ष के साहित्य पर नजर डालने से मेरी यह धारणा और भी पुष्ट होती गई कि ‘‘साहित्य जनता की चित्त वृत्तियों का संचित प्रतिबिंब है.’’ जनता की चित्रवृत्ति में परिवर्तनों के साथ ही साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होते हैं. जनता की चित्रवृत्ति में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन से प्रेरित और प्रभावित होता है. इसलिए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि साहित्य का इतिहास बुनियादी तौर पर साहित्य के विकास और सामाजिक विकास के आपसी संबंधों को लिए-दिए चलता है. भाषा के बारे में भी कुछ इसी तरह की बात कही जा सकती है. मार्च, 1911 की ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’में प्रकाशित ‘हिंदी की पूर्व और वर्तमान स्थिति’ में मैंने यही कहा है कि ‘‘कोई भाषा जितने ही अधिक व्यापारों में मनुष्य का साथ देगी उसके विकास और प्रचार की उतनी ही अधिक संभावना होगी.’’

मैंने उनके विचार-प्रवाह के बीच फिर व्यवधान उपस्थिति करते हुए प्रश्न किया: लेकिन शुक्ल जी, यह बात समझ में नहीं आती कि एक ओर तो आप लक्षण-ग्रंथों के जंजाल को तोड़ रहे थे और शास्त्रबद्ध चिंतन की जगह नव-जागरण और जन-आंदोलन की आवश्यकताओं के आधार पर साहित्य संबंधी नया दृष्टिकोण गढ़ रहे थे और दूसरी ओर रस को ही काव्य का अंतिम सर्वोपरि लक्ष्य मानकर रसवाद की ही प्रतिष्ठा कर रहे थे. आखिर वह कौन सी मजबूरी थी कि आप एक बारगी ही उस सबसे पिंड छुड़ाकर नए प्रतिमानों की खोज की ओर वैसे साहस के साथ अग्रसर नहीं हुए.

शुक्ल जी सीधे आंखों में झाँकते हुए सवाल के अर्थ को समझकर मुस्कुराए, फिर बोले: देखिए,मैं सर्वथा नएपन का वैसा कायल नहीं हूँ जैसा लोग समझते हैं. वैसे भी पश्चिम में रोज-रोज उठने-मिटने वाले नए-नए साहित्यांदोलनों को मैं संदेह की दृष्टि से देखता रहा हूँ. ऐसे आंदोलनों के कारण वहाँ इस शताब्दी में आकर काव्यक्षेत्र के भीतर बड़ी गड़बड़ी और अव्यवस्था फैली. काव्य की स्वाभाविक उमंग के स्थान पर नवीनता के लिए आकुलता मात्र रह गई. कविता चाहे हो, चाहे न हो, कोई नवीन रूप या रंग-ढंग अवश्य खड़ा हो. पर कोरी नवीनता केवल मरे हुए आंदोलन का इतिहास छोड़ जाय तो छोड़ जाय, कविता नहीं खड़ी कर सकती. समालोचना की भी कुछ ऐसी ही हवाई स्थिति इस नवीनता के चक्कर में हुई. रहस्यवाद, प्रतीकवाद,मुक्तछंदवाद, ‘कलाका उद्देश्य कलावाद’ इत्यादि तो अब वहाँ बहुत दिन के मरे हुए आंदोलन समझे जाते हैं. इस शताब्दी के आंदोलनों में अभिव्यंजनावाद, जार्जकाल-प्रवृत्ति, मूर्तिमत्तावाद, संवेदनावाद, और नवीन मर्यादावाद चले.

लेकिन मुझे लगता है इन बहुत सी ‘वाद’ व्याधियों का प्रवर्तक है ‘व्यक्तिवाद’ जो बहुत पुराना रोग है. इसकी नींव भेदवाद पर है. अब तक कवि के व्यक्तित्व के नाम पर भेद प्रदर्शन होता था, अब उसकी कृति के व्यक्तित्व के नाम पर होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं. अब तक किसी कविता में उसके कवि के व्यक्तित्त्व को प्रधान वस्तु कहने की चाल थी पर अब कृति ही प्रधान वस्तु कही जाने लगी है और उसकी सत्ता कवि और पाठक दोनों से स्वतंत्र ठहराई जाने लगी है. अब नवीनता के नाम पर होने वाले इन तमाशों और उड़ाए जाने वाले कनकौवों पर मेरी आस्था नहीं रही. एक तो इसलिए.

दूसरे, मुझे लगा कि काव्य के संदर्भ में सौंदर्यानुभूति प्रारंभिक स्थिति है. और रसानुभूति बाद की. भारत प्राचीन देश है जिसका काव्य चिंतन भी काफी लंबा है इसलिए वह सौंदर्यानुभूति से संतुष्ट न होकर रसानुभूति पर पहुँचा. इस रस की जो व्याख्या बाद में चलकर होने लगी और उस पर अलौकिकत्व और आनंदवाद के जो आवरण डाले गए वह चाल दार्शनिकों के कारण पड़ी. इसलिए सवाल इस इतने अच्छे सिद्धांत को छोड़कर नया गढ़ने का उतना नहीं था जितना उसे इस मायाजाल से मुक्त कर नई स्थितियों में उसकी नई व्याख्या करने का था. रूढ़िवादियों, आनंदवादियों, कलावादियों की जकड़ से छुड़ाकर उसे वस्तुगत और सामाजिक अर्थ में स्वीकार करने का था. ‘लोकमंगल’ की भावना से उसकी नई व्याख्या हुई और रसानुभूति का दर्जा तय किया गया.

तीसरे, पश्चिम के जागरूक और गंभीर साहित्य चिंतकों ने भी भारतीय चिंतन में रूचि ली है और उससे उन्हें नया आलोक मिला है. इधर तो सुना है कि बहुत से रूपवादी संप्रदाय हमारे ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति से अपने को जोड़कर नए सिद्धांत गढ़ रहे हैं. रस उनके काम का नहीं है क्योंकि उसमें सामाजिक की प्रतिष्ठा है और लोकहृदय से साधारणीकरण की माँग है, कवि, पाठक, समीक्षक सभी से. इसलिए मैंने आज की परिस्थितियों में इस सिद्धांत में काफी संभावनाएँ देखीं. इसे छोड़कर कोई सिद्धांत खड़ा नहीं किया जा सकता है.

इसके अलावा एक और कारण भी रहा. जिस समय हम लोग साहित्य में सक्रिय हुए उससे पहले अंग्रेज विद्वानों ने कुछ ऐसा माहौल बना दिया था जैसे मनुष्य ने जो कुछ भी आज तक अर्जित किया है, वह पश्चिम की देन है. हमारे देश की तमाम उपलब्धियों और चिंताधारा को असभ्य और जड़ता के रूप में पेश किया गया. ऐसे में अपनी प्राचीन उपलब्धियों के प्रति कुछ दुराग्रह भी स्वाभाविक था. राजनीति में गाँधी जी भी कुछ-कुछ वैसा ही रवैया अपनाए थे. हम लोग उनके सब तरीकों से तो सहमत नहीं थे, फिर भी प्राचीन के पुनर्स्थापन की भावना से तो प्रेरित थे ही. हाँ, शायद अब वैसी कोई मजबूरी लोगों को महसूस न होती हो.

(लगभग दो-तीन घंटे इस बातचीत को हो चुके थे और यह लगने लगा था कि वे कुछ अनौपचारिक होते जा रहे हैं, इसलिए अनुकूल अवसर जान मैंने वह प्रसंग छेड़ दिया.)

पूछा: शुक्ल जी, यह सब चीजें और तर्क तो हमारी समझ में आते हैं लेकिन एक बात समझ में नहीं आती. आप जानते हैं कि 1917 में दुनिया में एक बड़ी घटना सोवियत समाजवादी क्रांति के रूप में हुई जिसने शोषित-पीड़ितों की सत्ता स्थापित की और साम्राज्यवाद की नींव हिला दी. अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर यह ऐसी सत्ता और शक्ति थी जो न केवल सिद्धांत में साम्राज्यवाद-विरोधी थी बल्कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के माध्यम से दुनिया के तमाम उपनिवेशी देशों के स्वाधीनता आंदोलनों की व्यावहारिक मदद भी कर रही थी. उसने दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के ऊपर क्रांतिकारी प्रभाव डाला. लेकिन आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि आप जैसे कट्टर साम्राज्यवाद, सामंतवाद-विरोधी, शोषितों-दलितों के पक्ष में बराबर आवाज उठाने वाले और चीजों को बुद्धि और तर्क से परखने वाले व्यक्ति ने कभी उसका गंभीरता से अध्ययन करने की आवश्यकता ही न समझी. इसके उलट कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ आपने उस पर कीं-

‘‘रूस के बोल्शेविकों की बात सुनिए तो वे बड़ी उपेक्षा से अब तक के सारे साहित्य को ऊँचे वर्ग के लोगों का साहित्य बताकर बढ़ैयों, लोहारों और मजदूरों के साहित्य का आसरा देखने को कहेंगे.’’ (चिंतामणि-3, पृ.276)

या-

‘‘ऊँची श्रेणियों के कर्त्तव्य की पुष्ट व्यवस्था न होने से ही योरप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ जिससे लाभ उठाकर ‘लेनिन’ अपने समय में महात्मा बना रहा. समाज की ऐसी वृत्तियों पर स्थित ‘महात्म्य’ का स्वीकार घोर अमंगल का सूचक है...रूस से भारी-भारी विद्वानों और गुणियों का भागना इस बात का आभास दे रहा है.’’(गोस्वामी तुलसीदास, पृ. 42).

उनके इन उद्धरणों का हवाला देने के बाद मैंने आवेश में यह भी कह ही तो डाला: क्या आपका यह सोचउस समय सोवियत रूस के बारे में हो रहे व्यापक साम्राज्यवादी प्रचार से प्रभावित नहीं है? क्या ये सब बातें वस्तुस्थिति की गंभीर पड़ताल किए बिना केवल दुष्प्रचार के बहाव में आकर कही गई बातें नहीं हैं ? आप जैसे समीक्षक से क्या इसकी अपेक्षा की जा सकतीहै? आपकी समीक्षा का यह सबसे कमजोर और ग्लानिजनक प्रसंग है.

(बात कुछ यहाँ तक पहुंच गई थी कि मेरी बगल में बैठे पं. कृष्ण शंकर भी बार-बार मेरा हाथ दबाते. वे भी सकते की हालत में थे कि मामला गलत मोड़ ले रहा है. पहले-पहल मैंने पाया कि शुक्ल जी थोड़े अंतस्थ हुए. काफी देर तक मौन रहे. इस प्रसंग ने उन्हें जैसे बेहद विचलित कर दिया था. उनका जवाब भी काफी टाल-मटोल वाला और कमजोर था.)

फिर भी कुछ स्थिर होकर वे बोले - हो सकता है यह ऐसे ही हो जैसा आप सोच रहे हैं. लेकिन मैं जिस वातावरण में पला-बढ़ा और कार्यरत था उसमें यही स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. यह बात कुछ हद तक सही है कि मैंने कभी गंभीरता से मार्क्सवाद या सोवियत व्यवस्था के बारे में अध्ययन नहीं किया. जो भी बातें कहीं वे आम धारणा के आधार पर ही कहीं. और...

(इसके बाद मजदूर और किसान आंदोलन, प्रगतिशील लेखक संघ, वर्णाश्रम व्यवस्थाबद्ध दृष्टि और वर्ग-दृष्टिकोण, उस समय की रचनाशीलता में उभरते यथार्थ के नए स्वर, सोवियत क्रांति के साहित्य पर पड़ते प्रभाव आदि कितने ही ऐसे विषयों पर बहस होती रही, जो शुक्ल जी की दुखती रग की तरह थे. इस पूरे समय वे बहुत असहज रहे और बीच में कई बार चाय मँगाई. पता लगा कि वे चाय के कितने शौकीन हैं. वातावरण को सहज बनानेके लिए कुछ खान-पान, रुचियों-अरुचियों पर बातें कीं.)

बहस को आगे बढ़ाने के लिए मैंने नए कोण से सवाल को उठाया - आचार्य जी, यह अवांतर चर्चा तो यूँ ही चल पड़ी, मूल विषय से इसका अधिक संबंध नहीं था. असल में तो निर्णय इस आधार पर नहीं हो सकता किकोई आदमी अपने बारे में क्या कहता है. असल बात है कि समग्र रूप में उसका प्रभाव क्या पड़ता है, व्यवहार में वह क्या दर्शाता है. बाल्जाक की तारीफ मार्क्स ने और ताल्स्ताय की लेनिन ने इन्हीं बड़े और व्यापक प्रतिमानों से की थी. कालिदास से लगाकर तुलसी और भारतेंदु, आ. द्विवेदी और आपके बारे में भी हमारा दृष्टिकोण वही है. हम जानते हैं कि आपकी स्पष्ट सहानुभूति शोषितों-पीड़ितों के पक्ष में और अन्यायी अत्याचारियों के विरुद्ध है. इसके लिए आपका अप्रस्तुत विधान अकाट्य गवाही पेश करता है. अप्रस्तुत विधान व्यक्ति के राग-विराग का सबसे बड़ा प्रमाण होता है क्योंकि वहाँ अचेतन मन बोलता है. यही नहीं, आपने छायावादी कवियों के रहस्यवाद, सौंदर्यवाद की कटु आलोचना करने के बावजूद पंत और निराला की उन कविताओं की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है जिनमें यथार्थ जीवन के वास्तविक चित्र हैं और लोकमंगल की भावना है. इसी लोकमंगल की भावना से आपने साहित्य में अच्छे-बुरे का निर्णय किया है. समकालीन कविता में लोकमंगल की यही भावना व्यक्त हो रही हैं. इसी नाते भी हम चाहते हैं कि आपके लोक मंगल का अर्थ हम लोगों के लिए स्पष्ट हो सके.

शुक्ल जी: मैंने अन्यायियों, अत्याचारियों या शोषितों, दमितों या लोकमंगल की जब-जब बात की है तो वह उतनी अमूर्त नहीं है कि उसे समझा न जा सके. हाँ, उसे समाजवादी दर्शन या वर्ग-दृष्टि का जामा मैंने नहीं पहनाया. लेकिन ये अत्याचारी या शोषित कोई व्यक्ति प्रतीक मात्र नहीं हैं, वे जनता के बीच मौजूद वर्गों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. मैं हमेशा कवि के लिए यह जरूरी मानता रहा हूँ कि उसे लोक हृदय की पहचान हो. लोकहृदय का अर्थ विशिष्ट वर्गों से नहीं व्यापक जनसमूह से ही है.

कविता को भी मैंने निष्प्रयोजन खिलवाड़ या मनोरंजन की चीज कभी नहीं स्वीकार किया. उसे मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करने वाली भावात्मिका वृत्ति माना और कहा कि कविता भाव-प्रसार द्वारा कर्मण्य के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है. इसका स्पष्ट उदाहरण देकर कहूँ तो यदि किसी जन समुदाय के बीच कहा जाय कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है तो संभव है उस पर कुछ प्रभाव न पड़े. पर यदि दारिद्र्य और अकाल का भीषण और करुण दृश्य दिखाया जाय, पेट की ज्वाला से जले हुए कंकाल कल्पना के सम्मुख रखे जाएँ और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्द्र क्रंदन सुनाया जाय तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से व्याकुल हो उठेंगे और इस दशा को दूर करने का उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेंगे. पहले ढंग की बात करना राजनीतिज्ञ या अर्थशास्त्री का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य भावना में लाना कवि का. अतः यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं.

यदि यह भाव इधर के साहित्य में आया है तो मंगल का सूचक है. लेखक के काम को अर्थशास्त्री या राजनीतिज्ञ से अलगाने की जरूरत है. कई बार लोग वादों के चक्कर में पड़ कविता न लिखकर वाद लिखने लगते हैं. विचारधारा के लंबे-लंबे भाषण देकर उपदेशक बन जाते हैं. सूर तुलसी के बारे में लिखते हुए मैंने बार-बार यह सवाल उठाया है कि उन्हें हमें उपदेशक के रूप में न देखना चाहिए. उपदेशों का ग्रहण ऊपर ही ऊपर से होता है. न वे हृदय के मर्म को भेद सकते हैं न बुद्धि की कसौटी पर ही स्थिर भाव से जमे रह सकते हैं. हृदय तो उनकी ओर मुड़ता ही नहीं और बुद्धि उनको लेकर अनेक दार्शनिक वादों के बीच जा उलझती है. उपदेशवाद या तर्क गोस्वामी जी के अनुसार ‘वाक्य ज्ञान’ मात्र कराते हैं, जिससे जीव-कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं होता-

वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुन भव पार न पावै कोई.
निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्त नहीं होई. 


इसलिए कविता को उपदेशात्मकता और प्रकृतवाद से भी बचाना होता है. अब यदि हम किसी कारखाने का पूरे ब्यौरे के साथ वर्णन करें, उसमें मजदूर किस व्यवस्था के साथ क्या काम करते हैं ये सब बातें अच्छी तरह सामने रखें तो ऐसे वर्णन से किसी व्यवसायी का ही काम निकल सकता है, काव्य प्रेमी के हृदय पर कोई प्रभाव न होगा. बात यह है कि ये सब विधान जीवन के मूल और सामान्य स्वरूप से बहुत दूर के हैं. पर यदि हम उसी कारखाने के पास बने हुए मजदूरों के झोंपड़ों के भीतर के जीवन का चित्रण करें, रोटी के लिए झगड़ते हुए कृशकाय बच्चों पर झल्लाती हुई माँ का दृश्य सामने लाएँ तो कविकर्म में हमारे वर्णन का उपयोग हो सकता है.

इस फर्क को समझना जरूरी है.

प्रश्न: शुक्ल जी आपने बहुत ही अच्छी तरह से आज के संदर्भ में इन बातों को स्पष्ट कर दिया. अब इसी से जुड़ा एक सवाल और इधर उठ रहा है. आज के जनवादी रचनाकार अपनी रचनाओं में जब मजदूर-किसान को लाते हैं, उसके संघर्ष को लाते हैं तो कई बार लोगों को लगता है कि उन्होंने उन्हें इकहरे रूप में ही पेश किया,जहाँ सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा, सफल-ही-सफल है. सोवियत रूस में जनवादी यथार्थवादी उपन्यासों के पॉजीटिव हीरो जैसा कुछ देखने में आता है. आपका इसके बारे में क्या विचार है?

शुक्ल जी: देखिए इसको सीधे रूप में नहीं द्वंद्वात्मक रूप में देखना चाहिए. इसी एक पक्षीयता के लिए मैंने ताल्स्ताय, गाँधी और रवींद्रनाथ की कटु आलोचना करते हुए एक जगह लिखा है-

‘‘दीन और असहाय जनता को निरंतर पीड़ा पहुँचाते चले जानेवाले क्रूर आततायियों को उपदेश देने, उनसे दया की भिक्षा माँगने और प्रेम जताने तथा उनकी सेवा-सुश्रुषा करने में ही कर्तव्य की सीमा नहीं मानी जा सकती, कर्मक्षेत्र का एक मात्र सौंदर्य नहीं कहा जा सकता. मनुष्य के शरीर के जैसे दक्षिण और वाम दो पक्ष हैं वैसे ही उसके हृदय के भी कोमल और कठोर, मधुर और तीक्ष्ण, दो पक्ष हैं और बराबर रहेंगे. काव्य-कला की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षों के समन्वय के बीच मंगल या सौंदर्य के विकास में दिखाई पड़ती है.’’

और यह बात हर कहीं लागू होती है. प्रकृति के संबंध में भी. मसलन वनों, पर्वतों, नदी-नालों, कछारों, पटपरों, खेतों की नालियों, घास के बीच से गई हुई ढुर्रियों, हल-बैलों, झोंपड़ों और श्रम में लगे हुए किसानों इत्यादि में जो आकर्षण हमारे लिए है वह हमारे अंतःकरण में निहित वासना के कारण है, असाधारण चमत्कार या अपूर्व शोभा के कारण नहीं. जो केवल पावस की हरियाली और वसंत के पुष्पहंस के समय ही वनों और खेतों को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिन्हें केवल मंजरी मंडित रसालों, प्रफुल्ल कदंबों और सघन मालती कुंजों का ही दर्शन प्रिय लगता है, ग्रीष्म के खुले हुए पटपर, खेत और मैदान, शिशिर की पत्र विहीन नंगी वृक्षावली और झाड़-बबूल आदि जिनके हृदय को कुछ भी स्पर्श नहीं करते उनकी प्रवृत्ति राजसी समझनी चाहिए.

अब रही नायकों के सौंदर्य और सफलता की बात. तो मंगल-अमंगल के द्वंद्व में कवि लोग अंत में मंगल शक्ति की जो सफलता दिखा दिया करते हैं उसमें सदा शिक्षावाद या अस्वाभाविकता की गंध समझकर नाक-भौं सिकोड़ना ठीक नहीं. अस्वाभाविकता तभी आएगी जब बीच का विधान ठीक न होगा अर्थात जब प्रत्येक अवसर पर सत्पात्र सफल और दुष्टपात्र विफल या ध्वस्त दिखाए जाएँगे. पर सच्चे कवि ऐसा कभी नहीं करते. इस जगत में अधर्म प्रायः दुर्दमनीय शक्ति प्राप्त करता है जिसके सामने धर्म की शक्ति बार-बार उठकर व्यर्थ होती रहती है.

यही स्थिति नायकों के सर्वगुण संपन्न होने की है. वास्तव में लोक-हृदय आकृति और गुण, सौंदर्य और सुशीलता, एक ही अधिष्ठान में देखना चाहता है. 19वीं शती के कवि शैली-जो राजशासन, धर्मशासन, समाज शासन आदि सब प्रकार की शासन व्यवस्था के घोर विरोधी थे उन्होंने भी अपने प्रबंध काव्यों में रूप सौंदर्य और कर्मसौंदर्य का ऐसा ही मेल किया है. उनके नायक (या नायिका) जिस प्रकार पीड़ा अत्याचार आदि से मनुष्य जाति का उद्धार करने के लिए अपने प्राण तक उत्सर्ग करने वाले, घोर से घोर कष्ट और यंत्रणा से मुँह न मोड़ने वाले पराक्रमी, दयालु और धीर हैं उसी प्रकार रूप माधुर्य संपन्न भी.

(अंत में शैली का प्रसंग आ गया तो मैंने शैली के बारे में विस्तार से उनसे पूछा कि वे उसे इतना अधिक पसंद क्यों करते हैं कि बार-बार अपने लेखों में उसकी प्रशंसा लिखी है. साथ ही मैंने शैली के संबंध में मार्क्स की उस बात को उद्धृत किया जिसमें बायरन से उसकी भिन्नता दर्शाते हुए उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि-‘‘जिन्होंने भी बायरन और शैली को समझा और जिया है वे इस बात पर संतोष व्यक्त करते हैं कि बायरन 36 साल की उम्र में मर गया क्योंकि अगर वह और जीवित रहता तो एक प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी लेखक हो गया होता. वे शैली की मृत्यु पर गहरा अफसोस प्रकट करते हैं कि वह 29 साल में ही क्यों मर गया क्योंकि वह बुनियादी तौर पर क्रांतिवादी था और हमेशा ही समाजवाद के लिए लड़ने वालों की अगली पाँत में रहता.’’ इस तरह के प्रसंगों को शुक्ल जी बड़े गौर से सुनते रहे और भावाविष्ट होकर शैली के बारे में बातें करते रहे.)

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