Saturday, May 26, 2012

हम जहां पहुंचे कामयाब आये - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आपबीती – ३



(पिछली किस्त से आगे)

उस समय मेरे सामने दो रास्ते थे या तो विदेश सेवा से संबंद्ध हो जाता या फिर सिविल सेवा से. लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया. यह वह ज़माना था जब पाकिस्तान के लिए आंदोलन और भारतीय कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था. मेरे एक पुराने मित्रा जो एक बड़े ज़मींदार भी थे और जो पंजाब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहने के बाद मुस्लिम लीग में आ गये थे मुझसे कहने लगे कि मैं सिविल सेवा में जाने की इच्छा समाप्त कर दूं क्योंकि वह लाहौर से एक अंग्रेज़ी दैनिक निकालने की योजना बना रहे थे. उन्होंने उस अख़बार का संपादन करने का प्रस्ताव दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया और मैंने जनवरी 1947 में लाहौर आकर पाकिस्तान टाइम्स का संपादन संभाल लिया. मैं चार साल पाकिस्तान टाइम्स का संपादक रहा. इसी अवधि में पाकिस्तान टेªड यूनियन का उपाध्यक्ष भी मुझे बना दिया गया. 1948 में नागासाकी और हिरोशिमा पर होने वाली बमबारी के बाद कोरियाई युद्ध भी छिड़ गया. इस बीच स्काटहोम से यह अपील आयी कि हम शांति-स्थापना के लिए आंदोलन चलायें. उस अपील के समर्थन में अमन कमेटी की स्थापना हुई और मुझे उसका संचालक बना दिया गया. अब मैं ट्रेड यूनियन, अमन कमेटी और पाकिस्तान टाइम्स तीनों मोर्चे पर सक्रिय था और सक्रियता तथा कार्यशैली के लिहाज़ से यह बहुत व्यस्त समय था. उसी ज़माने में आई.एल.ओ की एक मीटिंग में भाग लेने के लिए पहली बार देश से बाहर जाने का अवसर मिला. मैंने सन फ्ऱांसिस्को के अतिरिक्त जेनेवा में भी दो अधिवेशनों में भाग लिया और इस तरह अमेरिका और यूरोप से मैं पहली बार परिचित हुआ.

1950 में मेरी मुलाक़ात अपने एक पुराने मित्रा से हुई. यह जनरल अकबर ख़ान थे जो उस वक़्त फ़ौज में चीफ़ आफ़ जनरल स्टाफ़ नियुक्त हुए थे. जनरल अकबर ने बर्मा और कश्मीर के मोर्चे पर होने वाले युद्धों में बड़ा नाम कमाया था. मैं इस साल मरी में छुट्टियां बिताने गया हुआ था. वहीं उनसे भेंट हुई. बातों के दौरान उन्होंने कहा कि हम लोग फ़ौज में हैं. उन्होंने यह भी बताया कि जिन्होंने कश्मीर में हुई मोर्चेबंदी का सामना किया है वे देश की वर्तमान परिस्थिति से असंतुष्ट हैं और यह मानते हैं कि देश का नेतृत्व कायरों के हाथों में है. हम अभी तक अपना कोई संविधान नहीं बना पाये. चारों ओर अव्यवस्था और वंशवाद का चलन है. चुनाव की कोई संभावना नहीं, हम लोग कुछ करना चाहते हैं. मैंने पूछा क्या करना चाहते हो? उनका जवाब था हम सरकार का तख़्ता पलटना चाहते हैं और एक विपक्षी सरकार बनाना चाहते हैं. मैंने कहा यह तो ठीक है लेकिन उन्होंने मेरी राय भी मांगी. मैंने कहा यह तो सब फ़ौजी क़दम है. इसमें मैं क्या राय दे सकता हूं. इस पर जनरल अकबर ख़ान ने मुझे अपनी गोष्ठियों में आने और उनकी योजनाओं के बारे में जानकारी लेने की बात कही. मैं अपने दो ग़ैर-फ़ौजी दोस्तों के साथ उनकी गोष्ठी में गया और उनकी योजनाओं से अवगत हुआ. उनकी योजना यह थी कि राष्ट्रपति भवन, रेडियो स्टेशन वगै़रह पर क़ब्ज़ा कर लिया जाये और फिर राष्ट्रपति से यह घोषणा करवा दी जाये कि सरकार का तख़्ता पलट दिया गया है और एक विपक्षी सरकार सत्ता में आ गयी है. छह महीने के भीतर चुनाव कराये जायेंगे और देश का संविधान निर्मित किया जायेगा. इसके अतिरिक्त अनगिनत सुधार किये जायेंगे. इस पर पांच छः घंटे तक बहस होती रही और अंततः यह तय हुआ कि अभी कुछ न किया जाये क्योंकि अभी देश किसी भी ऐसी स्थिति से नहीं जूझ रहा है कि जिसके आधार
पर जनता को आंदोलित किया जाये. दूसरे, इस तरह की योजनाओं के क्रियान्वयन में ख़तरों का सामना करना पड़ता है. उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान थे. किसी तरह इस योजना की ख़बर सरकार के कानों तक पहुंच गयी.

मैं तो इस अवधि में उन सभी घटनाओं को भूल चुका था कि अचानक सुबह चार बजे मेरे घर को फ़ौजियों ने घेर लिया और मुझसे कहा गया कि मैं उनके साथ चलूं. मैंने कारण पूछा तो मुझे जवाब मिला कि मुझे गवर्नर जनरल के आदेश से गिरफ़्तार किया जा रहा है. चार महीने तक मुझे कै़द रखा गया और फिर मुझे मालूम हुआ कि मुझे क्यों क़ैद किया गया.

संवधिान सभा ने एक विशेष अधिनियम को पारित किया और उसे रावलपिंडी षड्यंत्र अधिनियम का नाम दिया गया. उस अधिनियम के तहत हम पर गुप्त मुक़द्दमा चलाया गया. अंग्रेज़ों के ज़माने से ही षड्यंत्र संबंधी क़ानून बड़े ख़राब थे. आप कुछ कर नहीं सकते थे. अगर यह सिद्ध हो जाये कि दो व्यक्तियों ने मिलकर क़ानून तोड़ने की योजना बनायी है तो उसे षड्यंत्र का नाम दे दिया जाता था और अगर कोई तीसरा व्यक्ति इसकी गवाही दे दे तो फिर अपराध सिद्ध मान लिया जाता था. सरकार ने अधिनियम बनाकर बचाव करने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था. बनाये जाने वाले अधिनियम के तहत तो केवल सज़ा ही मिल सकती थी, भागने का कोई रास्ता भी नहीं था. यह मुक़द्दमा डेढ़ साल तक चलता रहा और हममें से हर एक के लिए उसके पद के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड निश्चित किये गये. जनरल को दस साल, ब्रिगेडियर को सात साल, कर्नल को छः साल और हम सब असैनिकों को उससे कम यानी चार साल की क़ैद की सज़ा सुनायी गयी.

मेरी हिरासत का यही वह समय था जो रचनात्मक रूप से मेरे लिए बहुत उर्वर सिद्ध हुआ. मेरे पास लिखने-पढ़ने के लिए वक़्त ही वक़्त था, फिर मुझमें शासकों के विरुद्ध बहुत आक्रोश और क्रोध था, क्योंकि मैं निर्दोष था. इसी अवधि में मेरी शायरी के दो संग्रह, काल कोठरी के उस दौर में तैयार हो गये. एक तो हिरासत के दिनों में ही प्रकाशित हो गया था और दूसरा मेरी रिहाई के बाद प्रकाशित हुआ. जब आप को चार साल के क़रीब जेल में रखा गया हो और बंदी होने का दुख भी आपके हिस्से में आया हो, तो निश्चित रूप से बाहर की दुनिया में आपका मूल्य बढ़ जाता है. जब मैं जेल से बाहर आया तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं पहले की तुलना में अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो गया हूं. मैं दोबारा पाकिस्तान टाइम्स से जुड़ गया और मैंने अमन कमेटी तथा ट्रेड यूनियन से अपने संबंध फिर से स्थापित कर लिये. यह तीन चार साल का समय ऐसी ही गहमागहमी में गुज़र गया. पाकिस्तान में वामपंथी आंदोलनों पर पाबंदी लगा दी गयी. यही स्थिति तीन चार साल तक जारी थी कि देश में पहला मार्शल लॉ लागू हो गया और पहली सैनिक सरकार स्थापित हो गयी, जिसका अर्थ था कि किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के गिरफ़्तार किया जा सकता है.

उस समय के मार्शल लॉ ने एक अत्याचार यह भी किया कि हर उस व्यक्ति को पकड़ना शुरू कर दिया गया जिसका नाम 1920 के बाद की पुलिस रिपोर्टों में दर्ज़ मिला था. इस तरह जेल में हमें नब्बे साल और अस्सी साल के बूढ़े मिले, कुछ की तपेदिक तथा अन्य बीमारियों के कारण जेल में ही मृत्यु हो गयी. मैंने लाहौर क़िला में डेढ़ महीने गुज़ारा और फिर चार पांच महीने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया. मैंने फिर पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर की ओर रुख़ किया और तब मैंने देखा कि उसका दफ़्तर पुलिस के घेरे में था. मेरे पूछने पर पता चला कि पाकिस्तान टाइम्स पर फ़ौजी सरकार ने क़ब्जा कर लिया है और इस तरह मेरी पत्राकारिता का अंत हो गया. मैं ऊहापोह में था कि क्या करूं. उन दिनों एक अमीर वर्ग जो मेरी शायरी को पसंद करता था, मेरी चिंता से अवगत था. उन लोगों ने पूछा आप क्या करना चाहते हैं? मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो किसी ने सुझाव दिया, क्यों न संस्कृति से संबंधित कोई गतिविधि आरंभ की जाये. मैंने कहा यह अच्छा विचार है और इस
प्रकार हमने लाहौर में ‘आर्ट कौंसिल’ की स्थापना की. कौंसिल एक पुराने और टूटे-फूटे घर में थी जो आज के आलीशान भवन जैसा आकर्षक नहीं था. कौंसिल का आरंभ हुआ और उसके भवन में प्रदर्शनियों, नाटकों और आयोजनों का तांता लगा रहता था. तीन चार साल तक यह गतिविधि चलती रही और मैं इसी अवधि में बीमार पड़ गया. पहली बार दिल का दौरा पड़ा.

और इसी बीच मुझे लेनिन विश्व शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई. किसी ने मुझे फोन पर ख़बर सुनायी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ, मैंने जवाब में कहा बकवास मत करो, मैं पहले ही बीमार हूं. मेरे साथ ऐसा मज़ाक न करो. उसने उत्तर में कहा, मैंने टेलीप्रिंटर पर यह ख़बर ख़ुद देखी है, तुम्हारे साथ पुरस्कार पाने वालों में पिकासो और दूसरे भी हैं. जब मैं स्वस्थ हो गया तो मुझे पुरस्कार ग्रहण करने और मास्को आने के लिए आमंत्रित किया गया.

(जारी)

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