Saturday, May 26, 2012

टूट मेरे मन टूट



टूट मेरे मन टूट

-शिवप्रसाद जोशी

गेहूं पिसाने के लिए चक्की के पास खड़ा था और वहीं पर वो दंपत्ति था. गद्दे की सिलाई करता हुआ. पहले औरत थी. दो बच्चे थे. बड़ा एक कॉपी पर कुछ लिखता जाता था. उसने वन लिखा. आड़ी तिरछी डंडियां. छोटा बच्चा. शायद दो साल का. वह रो रहा था. उसे बुखार था. मां ने सिलाई का काम छोड़ा और उसे देखने लगी. पुरुष आया. उसके सिर पर रुई बिखरी हुई थी. रुई धुनकर वो लौटा था और अब अपनी पत्नी की मदद कर रहा था. ये दिहाड़ी पर काम करने वाला दंपत्ति था. वे गन्ने का जूस निकालने की मशीन लगाते थे. बादल थे आसमान में इसलिए उस दिन मशीन नहीं चलाई. उस दिन रजाई गद्दे की दुकान में काम किया.

कमज़ोर काया के लोग और मेहनत से भरे हुए. इस इलाक़े में नगरपालिका वाले मशीन नहीं लगाने देते. बहुत पैसे मांगते हैं. 2000 रुपए. 1000 हज़ार रुपए पुलिस वाले. इतनी कमाई कहां है. जायज़ मांगें तो दें. मुझे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का ख़्याल आया. सब एक जगह आ गए हैं. एक जगह जाते हुए दिख रहे हैं. समाजसेवी, कॉरपोरेट, गैरसरकारी संस्था, बंबइया फ़िल्मों के लोग, नेता और समर्थक और भीड़ और मीडिया. लड़ाइयां किस तरह की हो गई हैं. विश्व कप की जीत के जुनून और भ्रष्टाचार को मिटा डालने के अभियान में क्या कोई समानता है.

वे लोग क्या सड़क किनारे गन्ने का रस निकालने की मशीन लगाने से जुड़ी इस विकटता को समझ पाएंगें. क्या ऐसा होगा कि ये दंपत्ति चैन से अपना ये मासूम सा कारोबार कर सके. इस सड़क पर जहां ज़्यादातर बड़ी गाड़ियां और सरकारी गाड़ियां आती जाती हैं. रुकने वाले कम हैं. पैदल चलने वाले भी कम हैं. मज़दूर छात्र बेरोज़गार महिलाएं बच्चे कुछ मनचले अक्सर घूमते आते हैं. ये एक बहुत साधारण सा बिजनेस मॉड्युल है. खुले आसमान के नीचे. एक मशीन. बर्फ़ की सिल्लियां, नींबू नमक गन्ने के कुछ मुड़ेतुड़े गट्ठर स्टील का एक जग पास में एक बाल्टी एक मग. कुछ गिलास.

अभी उस मशीन पर कपड़ा पड़ा है. आज वो नहीं चली. मुझे केयर्न, वेदांता, पोस्को याद आए. सिंगुर में टाटा का बंद कारखाना. गुजरात के बड़े अभूतपूर्व निवेश. देश का सकल घरेलू उत्पाद और आकर्षक विकास दर याद आई. सुपर पावर बनने की राह कहां से खुली, मैं खोजता रहा. मुझे ओबामा का कथन याद आया कि चीन और भारत उन्हें सबसे अच्छे लगते हैं.

मैं गेहूं पिसवा रहा हूं. आटा चक्की वाला एक शांत निर्विकारता के साथ चक्की के पास है. औरत तन्मयता से सुई में धागा पिरो रही है और रजाई को सिल रही है. उसने रोते हुए बच्चे को एक किसी डॉट पेन की घिसी हुई कैप दे दी है बहलाने के लिए. क्या वे अपने बच्चे को डॉक्टर के पास नहीं ले जाएंगें. मैं सोचता हूं. सोचता हूं कि उनसे कह दूं. नहीं कहता. काम ख़त्म कर ही तो जाएंगें. वरना दिहाड़ी जाएगी. बच्चा रोते रोते चुप हो गया. उसे यह सीखते रहना होगा. मां उठी. उसने अपने पति से कहा बाक़ी आप टांको, मैं इसे देखती हूं. उसने अपनी गोद में बिठा लिया बच्चे को. उसके सिर पर हाथ रखा. आदमी अपने काम पर लग गया. कितनी गरिमा है इस उखड़े हुए परिवार में.

बड़े बच्चे ने कॉपी फेंक कर दी. उसका ढंग स्वाभाविक था. उसमें कॉपी के सम्मान अपमान की बात नहीं थी. बालसुलभता जैसी होती ही है. मां मैंने लिखा, देखो. मां ने डांटा, ऐसे फेंकते हैं. गंदी बात. बच्चे की समझ में नहीं आया. वह अपनी निस्पृह उदासी में फिर से कॉपी लेकर बैठ गया. नए गद्दों पर, सोफ़े में बैठते हैं जैसे. कितना आराम था. पिता ने डांटा नहीं बैठ उन पर, अंकल डाटेंगे. चक्की वाले की दुकान थी रजाई गद्दों की. उसने कुछ नहीं कहा. शहतूत का पेड़ था वहां पर, उसकी छाया में दूकान थी और हम लोग थे. बच्चों ने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा. उनका ध्यान दुकान में टंगे चिप्स कुरकरों के पैकेटों की ओर भी कभी नहीं गया. वे न जाने कौनसी अपनी धुन में ही रमे हुए थे. उन्हें सड़क पर आते जाते लोग गाड़ियां बस टैम्पू से भी मतलब न था. एक लिखता जाता था और एक रोता जाता था. और जैसे यही उनका खेल था अपने को बहलाने के लिए.

जीवन इतनी छोटी सी जगह में अपने ढंग से घटित हो रहा था, जहां कोई शोर नहीं था, चिल्लाहटें और मक्कारियां नहीं थीं. हम सब एक जैसे उदास थे. अपनी अपनी चुप्पियों में. इस जीवन में श्रम था. एक थकान थी और एक कंपन. एक भरापूरा प्यार था. और सब आपस में जुड़े हुए थे जैसे सब एक दूसरे का दुख जानते थे. मैंने उस दंपत्ति से एक ज़िद ग्रहण की. लड़ते रहना चाहिए. लड़ना ही होगा. ये भी एक लड़ाई है.

हम कुछ देर बात करते रहे. जीवन की वस्तुनिष्ठता के इस हिस्से में हम लोग अपने ढंग से सुखी थे अपने ढंग से दुखी. ये एक ऐसी तल्लीनता थी जिसमें अवसाद हिलता रहता था, गुस्सा था एक ऊब और एक टूट थी. गेंहु पिसवा कर रवाना होने लगा, तो मुझे जीवन-संघर्ष की असाधारणता की अनुभूति हुई.

1 comment:

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

जीवन की आपाधापी में किसकी कौन परवाह करता है . अपने ही देश में लोग भूख से दम तोड़ते है . लोग पिसते जाते है उसी तरह जिस तरह से चक्की में गेंहू !
सुन्दर यथार्थपरक विश्लेषण !