Saturday, January 28, 2012

नए तिब्बत की कविता - ७

तेनजिन त्सुंदे की कविताओं की सीरीज जारी है


मैं थक गया हूँ

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ दस मार्च के उस अनुष्ठान से
धर्मशाला की पहाड़ियों से चीखता हुआ.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ सड़क किनारे स्वेटरें बेचता हुआ
चालीस सालों से बैठे-बैठे, धूल और थूक के बीच इंतज़ार करता

मैं थक गया हूँ
दाल-भात खाने से
और कर्नाटक के जंगलों में गाएं चराने से.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ मजनू टीले की धूल में
घसीटता हुआ अपनी धोती.

मैं थक गया हूँ
थक गया हूँ लड़ता हुआ उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं.

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कितना क्षोभ होता है यह देखकर..

अजेय said...

सच कह रहा है.

कुमार अम्‍बुज said...

त्‍सुंदे की ये तमाम कविताएं अपने यथार्थबोध, भावना की तीव्रता, व्‍यग्रता और प्रस्‍तुत संसार को गहन संवेदनशीलता के साथ देखती हैं। इतनी अच्‍छी कविताएं पढ़कर उदासी,अवसाद और सर्जनात्‍मकता की खुशी एक साथ मिलती है। हर बेहतर रचना यह काम करती ही है। अशोक, तुम्‍हें धन्‍यवाद।
तिब्‍बत का मामला दरअसल इतना राजनैतिक और अमानवीय ढंग से बिगड़ चुका है कि आस नजर नहीं आती। यह तानाशाही और वर्चस्‍ववादिता का नया, ग्‍लोबल रूप है। कलाएं इसे कैसे सुधार सकती हैं जब तक कि लेखकों, कवियों की बात सुनने के लिए सत्‍ताधारी न तो तैयार हैं और न ही इसके लायक किसी तरह की योग्‍यता उनमें है।
लेकिन सामूहिकता इसमें जरूर ही कुछ योगदान दे सकती है। त्‍सुंदे की कविता बहुत महत्‍वपूर्ण है।