Friday, September 2, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - १

जलसा का दूसरा अंक छप कर आ चुका है. निर्वासन इस अंक की थीम है और क्या शानदार सामग्री जुटाई है सम्पादक श्री असद ज़ैदी ने.

इस अंक में मुझे सबसे ज़्यादा आकृष्ट किया जनाब अशरफ़ अज़ीज़ के क़िस्सों ने. यह कबाड़ख़ाने के पाठकों की ख़ुशक़िस्मती है कि इस शानदार रचना को हमारे लिए असद जी ने न केवल पोस्ट करने की अनुमति दी बल्कि ख़ुद ही इस पूरे गद्य को यूनीकोड में कन्वर्ट करके मुझे भेजा. बहुत शुक्रिया उनका. लीजिए पेश है पहला हिस्सा -



(द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूर्वी अफ़रीक़ा में मज़दूरी करने गए और फिर वहीं बस गए एक भारतीय परिवार में अशरफ़ अज़ीज़ का जन्म हुआ. हिन्दुस्तानी फ़िल्में और फ़िल्म संगीत बचपन और जवानी के साथी रहे - इन्हीं से उनने और उनके भाइयों ने अपनी हिन्दुस्तानी - बल्कि दक्षिण एशियाई - सांस्कृतिक पहचान हासिल की. तंज़ानिया और युगांडा में शिक्षाप्राप्ति के बाद वह छात्रवृत्ति पर अमरीका चले गए. वहाँ 1964 में उन्होंने विस्कॉन्सिन-मेडिसन विश्वविद्यालय से प्राणिशास्त्र में पी एच डी की. तब से वह वाशिंगटन के हॉवर्ड विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ मेडिसिन में शरीरविज्ञान पढ़ाते हैं. दक्षिण एशिया की पॉपुलर कल्चर पर उनका काम बहु-प्रशंसित है.

यह संस्मरणात्मक वार्ता रेडियो फ़ीचर के रूप में 1997 में वॉयस ऑफ़ अमेरिका की हिन्दी सेवा द्वारा प्रसारित की गई थी. इसे वयस ऑफ़ अमेरिका की विजयलक्ष्मी देसराम ने रिकार्ड किया. लिप्यान्तर और प्रसारण के लिए पाठ उन्हीं का तैयार किया हुआ है. रेडियो के इतिहास में ऐसी दिलचस्प और जादुई वार्ता - ख़ासकर हिन्दी-उर्दू में - शायद ही कभी सुनने को मिली हो. इसे छापने की अनुमति देने के लिए हम अशरफ़ साहब और विजयलक्ष्मी जी और पाठ की प्रति उपलब्ध कराने के लिए सिने-चिंतक जवरीमल पारख के आभारी हैं. 'जलसा' के नए अंक जलसा २०११ - निर्वासन में प्रकाशित इस वार्ता का मूल शीर्षक है : सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब उर्फ़ जाते हो तो जाओ हम भी यहाँ यादों के सहारे जी लेंगे यानी ईस्ट अफ़रीक़ा में हिंदुस्तानियों का सफ़र, हिंदुस्तानी संगीत के सहारे संगीतकार सज्जाद हुसैन की खोज में)



वो रात दिन वो शाम की गुज़री हुई कहानियाँ
जो तेरे घर में छोड़ दीं प्यार की सब निशानियाँ
- हसरत जयपुरी


साहित्य के बग़ैर इतिहास में कोई ज़िन्दगी नहीं है. वह बेमतलब की तारीख़ों की एक फ़ेहरिस्त है. फिर भी, जो इतिहास लिखा भी गया है, उसमें न तो जनता है और न जीते-जागते इंसान. शहंशाह हैं, राजा हैं, नवाब हैं या ठाकुर. लेकिन जो मुल्क को काँधे पर उठाये थे, वो बेनाम हैं. उनका नाम हमें लोक कला में मिलता है उनके लोक गीतों, पाक विद्या, उनके लिबास और उनकी कहानियों में. हिंदुस्तान का फ़िल्म संगीत उनके इंडिपिडेंस के साथ ही शुरू हुआ और इसे आज़ादी के संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता. मैं इतना दाना नहीं कि कहानी लिख सकूँ. हाँ, कहानी की शक्ल में अपनी कुछ पुरानी यादें साउथ एशिया की पचासवीं साल गिरह पर जागी हैं वह आप तक पहुँचाने का एक छोटा सा प्रयास है. शायद ये आपके कुछ काम आए.


1860 में हिंदुस्तानियों का पहला बनवास और उसके कारण

चाय, शक्कर, रेल और जंग हिंदुस्तान के हज़ारों लोगों की ग़ुलामी और कठोर ज़िदगी की देन बने. पिछली सदी में ब्रिटिश राज में शहंशाह बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून में बेबस जिंदगी जीने पर मजबूर करने के बाद भारत के उत्तर और दक्षिण दोनों इलाकों से हज़ारों की संख्या में लोगों की मज़दूरी के लिए जहाज़ों में भरकर करीबियाई द्वीप, दक्षिण अफ़रीक़ा, पूर्व अफ़रीक़ा, हांगकांग, मलेशिया, सिंगापुर और फ़िजी ले जाया गया. इस तरह बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेजा जाना हिंदुस्तानियों के भविष्य का संकेत बना.

हमारा परिवार ज़िला स्यालकोट से है. लेकिन मेरे माता-पिता का बचपन खडगपुर में बीता. मेरे दादा और नाना ब्रिटिश इंडिया रेलवे में कारीगर थे. मेरे दादा उस दौरान पूर्वी अफ़रीक़ा में, मोंबासा से वोई तक की सौ मील की पहली रेल पटरी डालने के लिए 1896 में पंजाब से मोंबासा गए और काम पूरा होने पर लौट आए.

हमारे बनवास का दूसरा दौर मेरे माता-पिता ने शुरू किया जो पहली जंग के बाद टांगानिका (तंज़ानिया) के टांगा शहर में बस गए. हिंद महासागर में एक छोटा सा बंदरगाह, जर्मन ईस्ट अफ़रीक़ा की राजधानी था. पहली लड़ाई में शहीद हुए हिंदुस्तानियों के निशान टांगा और मोशी के बीच बिछी रेलवे लाइन के दोनों ओर आज भी नज़र आते हैं. सेना में जो मुसलमान थे, उनके फिर भी क़ब्रों के निशान हैं लेकिन हिंदुओं और सिक्खों के वजूद तो अगरबत्ती की महक की तरह फ़िज़ा में गुल हो गए हैं. उनके बलिदान का सबूत है, ब्रिटेन की जीत.


न किसी की आँख का नूर हूँ,
न किसी के दिल का क़रार हूँ,
जो किसी के काम न आ सके
वो एक मुश्ते गु़बार हूँ.


हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत से पहली मुलाक़ात

पहली लड़ाई के बाद लीग ऑफ नेशन ने टांगानिका ब्रिटेन को सौंप दिया. फिर तो इस देश को आबाद करने के लिए और भी हिंदुस्तानी वहाँ पहुँचे. मेरे पिता टांगामोशी रेलवे के मुलाज़िम थे. इस तरह हमारी जिंदगी का कारोबार चलने लगा. मुझे इस बात पर आज भी ताज्जुब है कि वो धमाका जिसने हिरोशिमा और नागासाकी को राख बनाकर इतिहास को नया मोड़ दिया, उसकी मुझे कोई याद नहीं. लेकिन ये साफ़ याद है, 1945-46 में मेरे सबसे बड़े भाई मसूद कीनिया के सबसे बड़े पोर्ट शहर मोंबासा से एक ग्रामोफ़ोन और कुछ 78 आरपीएम रिकार्ड ख़रीद कर लाए. उस शहर में हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत ने पहला क़दम हमारे घर में रखा था. रात की दूधिया चांदनी में, घर के बरांडे में, पहला फ़िल्मी गीत जो मैंने सुना था, वह था नूरजहाँ का गाया फ़िल्म विलेज गर्ल का गीत, ‘बैठी हूँ तेरी याद का लेकर ये सहारा’. इंतज़ार के इस गीत में नूरजहाँ की आवाज़ मुझे बेहद सुरीली और जोश भरी लगी.


बैठी हूँ तेरी याद का लेकर ये सहारा
आ जाओ कि चमके मेरी क़िस्मत का सितारा.


हमारे बड़े भाई ने तुरंत कहा, ‘भाई गीत नूरजहाँ गा रही है, लेकिन संगीतकार हैं, श्यामसुंदर.’ उस दिन दूसरा गीत जो उन्होंने बजाया वह फ़िल्म दोस्त का था, लेकिन आवाज़ नूरजहाँ की ही थी. संगीतकार थे, सज्जाद हुसैन. ‘कोई प्रेम का देके संदेसा हाय लूट गया, हाय लूट गया.’ भाई साहब ने बड़े अंदाज़ से कहा, ‘जिस होनहार नौजवान संगीतकार ने संगीत दिया है, आने वाले समय में बहुत चमकेंगे.’


आज मेरे दिल का शीशा
हाय टूट गया, हाय टूट गया.


उस रात के बाद भाई जब भी मोंबासा जाते वहाँ की मशहूर सलीम रोड के शंकर दास एंड संज़ से रिकार्ड ले आते. टांगा और मोंबासा की दूरी लगभग 120 मील की है. उस ज़माने में रास्ते कच्चे थे. थोड़ी ही बरसात में कीचड़ से भर जाना आम बात थी. बारिश में वहाँ की लूंगा लूंगा नदी में पंटून (फ़ेरी) की आवाजाही बंद हो जाती. और फिर मोंबासा पहुंचने के लिए एक और फ़ेरी लिकोनी पर जाना पड़ता था. बचपन में लगता था, मोंबासा चांद के पार है. फ़िल्मी गीत वहीं से आते हैं.

सबसे बड़े भाई पिता समान थे. बहुत से कामों की शुरुआत उन्होंने की. ग्रामोफ़ोन और फ़िल्मों के गीत भी घर में वही लाए. उन्हें संगीत से लगाव था लेकिन उनसे छोटे भाई अय्यूब को तो फ़िल्मी संगीत और फ़िल्मों का जूनून था. जबकि मैं सोचता था कि हिंदुस्तानी फ़िल्मों और उनके गीतों को अलग नहीं किया जा सकता. हालाँकि अय्यूब सगे भाई थे, लेकिन मुझे लगता था कि वह आधे हमारे साथ हैं और आधे फ़िल्मों की स्क्रीन में हैं. क़द के छोटे थे, आवाज़ भारी और अदाओं की वजह से बडे़ भाई से भी बड़े लगते थे. वह पुरानी फ़िल्मों - पृथ्वी वल्लभ, सिकंदर और पुकार - का ज़िक्र करते समय एक साथ तीन-चार भूमिकाएँ करते. उन्हें इन फ़िल्मों का एक एक डायलॉग याद था. जो फ़िल्में मैंने नहीं देखी थीं, उनकी एक्टिंग से मुझे आज भी लगता है कि मैं उन्हें देख चुका हूँ. यह फ़िल्में उन्होंने बचपन में मोंबासा में देखी थीं. पुकार फ़िल्म में चंद्रमोहन और सोहराब मोदी की एक्टिंग और डायलॉग को वो सिनेमा की कला की हद मानते थे. उनका कहना था कि अभिनेताओं के बीच दो बातें नहीं हो रही थीं, तलवारें चल रही थीं. और उनके डायलॉग से कहानी आगे बढ़ रही थी. उनकी नज़र में मोतीलाल और अशोक कुमार ही सिनेमा के सही आर्टिस्ट थे क्योंकि इन दोनों की एक्टिंग बड़ी सधी हुई थी. लेकिन ये बड़ी दिलचस्प बात थी कि भाई स्वयं सोहराब मोदी और चंद्रमोहन की (पारसी) थियेटर वाली एक्टिंग करते थे. इस बारे में उनकी सोच थी कि अगर वे ख़ुद भी सिनेमा में होते तब वह मोतीलाल बनते.

ये मेरी खु़शकिस्मती है कि अय्यूब मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े थे, परंतु उनका हर छोटे, बड़े के साथ दोस्त का सा व्यवहार था. उनके साथ बैठकर कभी महसूस नहीं हुआ कि बड़े भाई के साथ बैठे हैं, बल्कि जिगरी दोस्त का एहसास होता.

हमारे शहर के पहले सिनेमाघर का नाम था मैजेस्टिक. ये पहले युद्ध के सिपाहियों के क़ब्रिस्तान के सामने था. भाई ने समझाया था, सिनेमा और क़ब्रिस्तान का गहरा संबंध है. सिनेमा इंसान की मौत का रिकार्ड है. कहते, सहगल चल बसे लेकिन देवदास फ़िल्म में हम उन्हें बारबार मरते देख सकते हैं. मैजेस्टिक में हमने पहली हिंदुस्तानी फ़िल्म रतन देखी थी. वो मुझे कंधे पर बिठा कर ले गए थे. शाम का समय था. ऊंचाई से मैंने देखा, क़ब्रिस्तान लोगों से भरा हुआ है. ये वह लोग थे जिन्हें फ़िल्म के टिकट नहीं मिले थे. वहाँ अच्छी खासी जंग चल रही थी. मुझे लगा, ऐसी हालत में आज तो फ़िल्म नहीं देख सकेंगे. भाई ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हमने सब बंदोबस्त किया हुआ है.’ बड़े भाई अय्यूब की दोस्ती सिनेमा के प्रोजेक्शनिस्ट अफ़रीक़ी भाई उम्टो से थी. उन्होंने उम्टो को समोसे खिलाकर पहले ही टिकट लिये हुए थे. फ़िल्म रतन में करन दीवान और स्वर्णलता पर फ़िल्माए गीतों की याद आज भी ताज़ा है. ‘अँखियां मिलाके, जिया भरमाके, चले नहीं जाना/ ओ, ओ चले नहीं जाना’. रतन के गीतों ने विलेज गर्ल और दोस्त के गीतों को धूमिल कर दिया. लेकिन ये गीत पुराने गीत जो चमड़े के ख़ूबसूरत बैग में संभालकर रखे हुए थे, हम लोग कभी कभी रात की तनहाई में बजाते.


‘अँखियाँ मिलाके...’

संगीतकार सज्जाद अपनी बदमिज़ाजी की वजह से मशहूर होते रहे. उनके साथ के संगीतकार थोड़े ही वक़्त में एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते आगे बढ़ गए. एक दिन मेरे भाई मसूद के एक दोस्त ने ‘कोई प्रेम का देके संदेशा’ रिकार्ड लिया, तो कभी लौटाया नहीं. हमारे यहाँ उसूल था कि कोई हमारे यहाँ से कोई चीज़ उधार लेकर गया है, तो वही लौटाएगा, हम उसे याद नहीं दिलाते. आज तक उस रिकार्ड के खोने का अफ़सोस पूरे परिवार को है. कभी-कभी भूली बिसरी याद की तरह उस रिकार्ड का ख़़याल आता तो हम उस रात की बातें करते जब हमने यह गीत पहली बार अपने घर में सुना था. सज्जाद के बारे में चर्चा होती कि वह क़ुदरत का ऐसा तराशा हुआ हीरा है, जिसका इल्म न तो हिंदुस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री को, न ही फ़िल्म संगीत को चाहने वालों को है.

(जारी)

(जलसा की अपनी प्रति बुक कराने हेतु दांई तरफ़ की पट्टी में लगे लिंक में लिखे पते/ नम्बर पर सम्पर्क करें)

2 comments:

अजेय said...

नॉस्टेल्जिया मे गुँथा इतिहास ..... पठनीय !

Dr Varsha Singh said...

निःशब्द कर दिया है मुझे....आभार ....