Friday, September 9, 2011

सिगरेट, सिनेमा, सहगल और शराब - 6

(पिछली पोस्ट से जारी)

हाजीभाई से मुलाक़ात: हिंदुस्तानी फ़िल्मी कहानी का अंतरा

बातों बातों में हम रेलवे शेड पहुँचे तो उन्होंने कारख़ाने के बाहर ही रुकने को कहा और अंदर जाकर एक बुजु़र्ग से बातें करने लगे। थोड़ी देर में उन्हें लेकर हमारे पास आ गए। हम लोगों से हाथ मिलाया और कहा, ‘मेरा नाम है, हाजीभाई। आप में ग़लतफ़हमी पैदा न हो, मैं कभी मक्का-मदीना नहीं गया। मेरे पिता जी गए थे। उनके अच्छे कामों का नाम मुझे मिल गया है।’ उन्होंने मेरे भाई से पूछा, ‘आप लोग क्या करते हैं?’ भाई ने कहा, ‘हम आधे मुसलमान हैं।’ ये सुनकर वह चैंके और कहा, ‘भई ये कैसे?’ भाई ने जवाब में कहा, ‘ख़ुदा को मानते हैं लेकिन डरते नहीं।’ उन्होंने कहा, ‘ये क्या चक्कर है?’ भाई बोले, ‘हम मस्जिद नहीं जाते, रोज़ा नहीं रखते। लेकिन ईद मनाते हैं।’ यह सुनकर हाजीभाई बहुत हँसे और बोले आज का खाना हमारे घर।


दोपहर का वक़्त गुज़ारने के लिए हमने बरसात फ़िल्म देखी। बालू सिंह ने पिक्चर की फ़ोटोग्राफ़ी पर लेक्चर पर लेक्चर दिये। शाम को हम हाजीभाई के घर पहुँचे। वह बाहर बरामदे में हमारे इंतज़ार में बैठे थे। फिर से सलाम दुआ हुई। कुर्सियाँ आईं और हमें बिठा कर ख़ुद घर के अंदर चले गए। थोड़ी देर में मुर्ग़े की चीख़ सुनाई दी। तब बालूसिंह ने कहा, ‘मुझे लगता है आपका काम बन जाएगा।’ इतने में हाजीभाई भी आ गए थे। बैठकर बातें होने लगीं। वे कहने लगे मुझे उन लोगों पर ताज्जुब होता है जो रूह की सच्चाई को नहीं मानते। मुर्ग़े के गले पर जब छुरी चलती है, तो वह उड़ने की कोशिश करता है। परों की आवाज़ रूह के उड़ने का सबूत है। फिर उन्होंने पूछा, ‘आज क्या किया?’ तो बताया, बरसात पिक्चर देख कर आए हैं। उन्होंने यह सुनते ही कहा, ‘पृथ्वीराज के बेटे की फ़िल्म तो...’ उन्होंने दो गालियाँ राजकपूर को दीं। बोले, इस नौजवान पर तो बड़ों का आशीर्वाद नहीं होगा जिसने राम गांगुली को निकाल दिया और शंकर जयकिशन को लिया। फ़िल्म आग का ‘न आँखों में आँसू, न होठों पे हाय’ (मजरूह सुलतानपुरी) जिसने ऐसा डायमंड गीत दिया उसके साथ ऐसी बेवफ़ाई तो हमने कभी नहीं देखी।

न आँखों में आँसू न होठों पे हाय
मगर एक मुद्दत हुई मुसकराये।


बोले, ‘शंकर जयकिशन में क्या है? ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म में लाल दुपट्टे की बात कर रहे हैं। इनकी मत मारी गई है। कौन इन पागलों को सुनेगा?’ ये सुनकर बालूसिंह अपना सिर हिलाने लगे। यह होता है नतीजा फ़िल्म को कान से सुनने का। हाजीभाई के घर के दरवाज़े के पीछे एक साया इधर-उधर जा रहा था। मैं समझ गया, वो एक कुएँ में गिर गए हैं। ये एक्सप्रेशन हमारे बुज़ुर्ग उन हिंदुस्तानियों के लिए करते थे जिनकी शादी काली अफ्रीकी औरतों से होती थी।


ज्यों ही शाम होने लगी कि लगा हाजीभाई अपने आप में इतिहास हैं। सिनेमा संगीत का इतना ज्ञान था, वह और मेरे भाई ऐसे बैठे मानो सिनेमा संगीत के महान ज्ञानी हों। उन्होंने बताया वह बहुत दिनों में इस पसोपेश में हैं कि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि फ़िल्म बैजू बावरा में नौशाद कहना क्या चाहते हैं? लोक संगीत को क्लासिकल संगीत के ज़रिए महलों तक पहुँचाया जाए या शास्त्रीय संगीत को लोक संगीत की तरह सरल बनाकर आम लोगों तक पहुँचाया जाए। क्या बात सच है इसका जवाब न मिलने के कारण काम में भी मन नहीं लगता। मेरे भाई ने कहा, अंत में तो वही गीत है, ‘तू गंगा की मौज मैं जमना की धारा’ आप जो जवाब ढूँढ़ रहे हैं, वह इसी गीत में है। उन्होंने कहा, ‘ये तो आपने अच्छी बात सुझाई। हो सकता है कल मैं अपना काम ठीक से कर पाऊँगा।’ फिर कहने लगे, ‘अगर मरते वक़्त उनके कानों में ये गीत ”झूले में पवन के आई बहार प्यार छलके“ सुनाई पड़ेगा तो उन्हें लगेगा वह स्वर्ग छोड़ कर जा रहे हैं।’

झूले में पवन के आई बहार प्यार छलके


बातों-बातों में ही खाना आ गया। उससे पहले हाजीभाई ने कहा, ख़ुदा का शुक्र है उन्होंने मुर्ग़े को मुर्ग़ा और हमें आदमी बनाया, नहीं तो कौन जाने, कौन किसको खा रहा होता।

खाना ख़त्म हुआ। रात के लिए गैस का लैंप जला। चाय का एक दौर हुआ और फिर हाजीभाई कहने लगे, हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत का न तो लोक संगीत और न ही शास्त्रीय संगीत से ही कोई गहरा ताल्लुक़ है। यह हिंदुस्तान में नया इंक़लाब है। ये नयी बोतल में पुराना नशा नहीं, नयी बोतल में नया नशा है। यह इसलिए कि हर टेक्नोलाजी अपने आप में एक नया पैग़ाम है। पहले तो माइक्रोफ़ोन ने हमारी गायकी बदली। माइक्रोफ़ोन के बगैर तलत महमूद जैसे गायक अपना काम नहीं चला सकते थे। फिर 78 आरपीएम का रिकार्ड साढ़े तीन मिनट में जो कहना है, वो कह देता है। यह ऐसा गीत नहीं है जब मूड आया बना लिया। ये कहानी की सिचुएशन के लिए, कहानी को आगे बढ़ाने के लिए है। अगर हम फ़िल्मी गीत को सुनते हैं, तो उसमें धुन को बाँटा हुआ है। प्रिल्यूड और इंटरल्यूड वाले भाग में हमें आर्केस्ट्रा मिलता है और अगर वह सिर्फ़ धुन को दोहराये तो वह हिंदुस्तानी रहेगा। लेकिन विदेश से हारमनी और रंग को भी हमारे संगीतकारों ने प्रयोग किया। हमारा परंपरागत संगीत लकीर की तरह फ़्लैट है। हारमनी ने उस पर मंज़िलें बनाईं। उससे गीत को और भी ख़ूबसूरत बनाया जा सका, उसमें बारीकियाँ डाली जा सकीं। इसके पायनियर संगीतकार थे, आर सी बोराल और पंकज मलिक। ये वे नौजवान थे जो अपनी संस्कृति की बहुत इज़्ज़त करते थे। उन्हें पता था कि धुन पुरानी चीज़ है, उसमें विदेशी वाद्य, प्रिल्यूड और इंटरल्यूड में लगाये और धुन को साफ़ सुथरा रखा। आवाज़ में इंसान की रूह बोलती है। धुन को उससे जोड़ा, फिर बोलों ने कहानी को आगे बढ़ाया। आम गीत इसी स्ट्रेटेजी पर बने हैं।


संगीतकार सज्जाद हुसैन ने इस सिद्धांत को नहीं अपनाया क्योंकि वह ख़ुद वादक थे। सज्जाद हुसैन का नाम सुनकर हम चैंके। लेकिन बाहर से ज़रा भी उत्सुकता नहीं दिखाई ताकि उनको कोई शक न हो। हम हाजीभाई को धोखा देने में कामयाब रहे। हाजीभाई ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा सज्जाद हुसैन जानते थे कि एक माहिर कलाकार के हाथ में वाद्य भी गा सकता है और आवाज़ वाद्य भी बन सकती है। उनका कहना था कि जिन गीतों में बोल ऊँचे दर्जे पर हैं और साज़ नीचे, तो वह बराबर नहीं है। अब जब बोलती गाती फ़िल्म 1931 में आई तो हिंदुस्तान की आज़ादी का आंदोलन तेज़ी पर था। आज़ादी के बाद लोगों में एकता होगी, लोग बराबर होंगे। सज्जाद ने अपने गीतों में साज़ और आवाज़ में एकता पैदा की। जो लोग समाज में एकता और बराबरी नहीं चाहते उन्हें सज्जाद हुसैन का संगीत पसंद नहीं आएगा। जहाँ गौतम बुद्ध अपने इसी मक़सद में कामयाब नहीं हुए, तो सज्जाद हुसैन की क्या बिसात! एक शायर ने कहा है- ‘तम्हीदे ख़राबी की तकमील ख़राबी है’ - सीमाब। हाजीभाई ने कहा, ‘मैं इसकी कहानी बताता हूँ।

(जारी)

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