Sunday, July 17, 2011

रोटी, हशीश और चन्द्रमा

निज़ार क़ब्बानी की कविताओं की सीरीज़ में एक लम्बी कविता -


रोटी, हशीश और चन्द्रमा

जब भी चन्द्रमा उगता है पूरब में,
और रोशनी के ढेर के तले
सफ़ेद छतें ऊंघती हुई सो जाती हैं,
लोग अपनी दुकानें छोड़ देते हैं और झुण्डों में निकल पड़ते हैं
चन्द्रमा से मिलने
पहाड़ों की चोटियों की तरफ़
डबलरोटी, रेडियो और अपना-अपना नशा लेकर.
वहां वे फ़न्तासियों और छवियों की
ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं,
और मर जाते हैं - जैसे जैसे ज़िन्दा होता जाता है चन्द्रमा.
वह चमकीली तश्तरी
क्या कर देती है मेरी मातृभूमि के साथ?
पैग़म्बरों की धरती
सादगीभरे लोगों की धरती
तम्बाकू चबाने वाले, नशे के कारोबारी?
चन्द्रमा क्या कर देता है हमारे साथ
कि हम नष्ट कर देते हैं अपनी वीरता
और ज़िन्दा रहते हैं सिर्फ़ स्वर्ग से भीख मांगते रहने को?
आलसी और कमज़ोर आदमी के लिए
क्या है स्वर्ग के पास?
जैसे जैसे चन्द्रमा में जीवन आता जाता है
वे तब्दील हो जाते हैं लाशों में
और झकझोरने लगते हैं सन्तों के मकबरों को
थोड़े चावल, थोड़े बच्चे दिए जाने की उम्मीद में
वे बिछाते हैं अपने उम्दा और सुन्दर गलीचे,
और ख़ुद को तसल्ली देते हैं उस अफ़ीम के साथ जिसे हम मुकद्दर कहते हैं
मेरी धरती में, सादा लोगों की धरती में
किस कमज़ोरी, किस पतन ने
ह पर शिकंजा कस लिया, जब रोशनी धार बहती आती है!
ग़लीचे, हज़ारों टोकरियां
चाय के प्याले और बच्चे झुण्ड की तरह बिखरे रहते हैं पहाड़ियों पर.
मेरी धरती में
जहां सादा लोग रोते हैं
और ज़िन्दा रहते हैं उस रोशनी में जिसे वे समझ नहीं पाते;
मेरी धरती में
जहां लोग रहते हैं बग़ैर आंखों के
और प्रार्थना करते हैं
और सम्भोग करते हैं
और जीवित रहते हैं समर्पण में
जैसे वे हमेशा से रहते आए हैं,
नए चन्द्रमा को पुकारते हुए -
"ओ नए चन्द्रमा!
ओ संगेमरमर के टंगे हुए ईश्वर!
ओ अविश्वसनीय
तुम हमेशा से पूरब के लिए रहे हो, हमारे लिए,
सुन्न बना दी जा चुकी चेतना वाले लाखों लोगों के वास्ते
हीरों का एक गुच्छा."

पूरब की इन रातों को
जब पूरा चन्द्रमा चमकता है
पूरब त्याग देता है अपना समूचा सम्मान
और जोश
लाखों लोग जो नंगे पांव चलते हैं
जो चार बीवियों
और क़यामत के दिन पर यक़ीन करते हैं;
लाखों जिनका सामना रोटी से
फ़क़त ख़्वाब में होता है;
जो खांसियों से बने घरों के भीतर
अपनी रातें काटते हैं;
जिन्हें दवा देखने तक को कभी नसीब नहीं हुई;
वे गिर पड़ते हैं रोशनी के तले शवों की तरह.

मेरी धरती में
जहां अहमक रोया करते हैं
और रोते हुए मर जाते हैं
जब भी उभरता है नया चन्द्रमा
और उनके आंसू बढ़ने लगते हैं;
जब भी कोई दयनीय तम्बूरा उन्हें भावुक बना देता है ...
या "रात" के वास्ते कोई गीत
मेरी धरती में
सादा लोगों की धरती में
जहां हम जुगाली करते हैं अपने अन्तहीन गीतों की -
पूरब को तबाह करता एक क्षय -
अपना इतिहास चबाता हमारा पूरब
उसके आलसभरे ख़्वाब,
उसकी खोखल गाथाएं
हमारा पूरब जो तमाम पराक्रमों का जोड़ देखता है
अबू ज़ायद अल हिलाली की कल्पित गाथा में

(अबू ज़ायद अल हिलाली -११वीं सदी का एक अरब नायक)

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