Sunday, April 17, 2011

सभी वजीफ़े हमें मिले हैं कल्चर के नग़मानिगार हम

संजय चतुर्वेदी की कविताओं के क्रम को जारी रखते हुए पढ़िये उनकी कुछ और कविताएं -

ग़नीमत ख़त्म होती जा रही है

निग़ाहे शौक है हिन्दी जुबाँ में
सुख़न मुश्ताक आलम आज भी है
महाकवि रोज़ पैदा हो रहे हैं
ग़नीमत ख़त्म होती जा रही है

कौम बोली कि नदीदा है मुआ ये नौशा
आँख मारे है सरे बज़्म उठाकर सेहरा

पकी हुई फ़सल का रंग

पकी हुई फ़सल का रंग
सोने जैसा नहीं होता
उसका रंग धूप जैसा होता है

पहाड़ काटकर
छोटी-छोटी सीढ़ियों पर दाने उगाए हैं आदमी ने
उसके बच्चों की तरह पत्थरों से पैदा हुई हैं ख़ुशियाँ
लोहे ने सूरज से धूप खुरची है आदमी के लिए
पकी हुई फ़सल का रंग लोहे जैसा होता है

सूरज जब अगली दुनिया को रोशनी देने जाता है
पकी हुई फ़सल धूप-सी चमकती है सारी रात

अगली भाषाओं की तलाश में

क्या पता लोहे में जीवन हो
पत्थर हों वनस्पति
क्या पता कल हम समझ सकें जल और वायु का व्यवहार
कण-कण से आती बिजली की आवाज़
हो सके बातचीत पत्थरों और पेड़ों से
बढ़ जाए इतनी रोशनी
एक शब्द का हो एक ही अर्थ
दोहरा होना रह जाए पिछड़ेपन की निशानी
क्या पता कविता न रह जाए आज जैसी
आज जहाँ है, वहाँ बस जाएँ बस्तियाँ
और वह निकल जाए अगली भाषाओं की तलाश में


'दर्दपुर' पर चुप्पी देखकर

मक्कारों की प्रगति-व्यवस्था के भीतर उत्पात न करना
क्षमा कौल के उपन्यास की बात न करना

दरबदरी की मजलूमों की
हमीं बनाते हैं परिभाषा
फिलिस्तीन पर पीटें छाती घर की आफ़त लगे तमाशा
समाचार के धूर्त व्याकरण के भीतर हैं पत्रकार हम
बुदिख़ोर तबके में बैठा गर्हित पेशेवर विचार हम
सभी वजीफ़े हमें मिले हैं कल्चर के नग़मानिगार हम
सभी जगह पर लगे हुए हैं अपने बन्दे
बन्दे क्या हैं
उनकी भी हरकत के पीछे हमीं ख़ुदा हैं
अगर ज़रा भी समझदार हो
सबसे पुख़्ता रूलिंग क्लास हमीं को समझो
बाकी सब आने जाने हैं
हमासे तुम पंगे मत लेना
सधा हुआ आधा सच कहना
झूठ देखकर भी चुप रहना
फ़ैशन यश का रामबाण है
इसका बड़ा कमाऊ हल्क़ा
यहीं हमारी लक्ष्मण रेखा
उसके बाहर पाँव न धरना
क्षमा कौल के उपन्यास की बात न करना

(नोट- इस कविता में सन्दर्भित क्षमा कौल विस्थापन का दर्द भोगने वाली कश्मीर की कवयित्री, लेखिका हैं. भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा २००४ में प्रकाशित उनके उपन्यास दर्दपुर को उसकी स्तरीयता के बावजूद आलोचकों ने अनदेखा किया.)

मती गंवावै नूर

कविता जनै तो सत्य जन,
उठै संचरै दूर
नै तौ रहिओ बांझड़ी,
मती गंवावै नूर

4 comments:

बाबुषा said...

समय से आगे की कुछ कवितायें !
Excellent !

Unknown said...

वाह! लोहे ने आदमी की कुत्ते जैसी सेवा की इसीलिए पकी हुई फ़सल का रंग लोहे जैसा ही होता है.

प्रवीण पाण्डेय said...

स्तरीय कविता और उनके विषय। आभार पढ़वाने का।

Unknown said...

Powerful poetry !