Saturday, April 16, 2011

लोहे ने आदमी की कुत्ते जैसी सेवा की

संजय चतुर्वेदी की कविताएं हाल ही में यहां आप पढ़ चुके हैं. आज और आने वाले एकाध दिन उनकी कुछ और रचनाओं से रू-ब-रू होइए. अस्सी-नब्बे के दशक में अपने असाधारण मुहाविरे से ख़ासा नाम कमा चुके भाषा के साथ निर्मम प्रयोग करने के हिमायती संजय जी ने अचानक लिखना क्यों बन्द कर दिया मेरी समझ से परे है अलबत्ता यह एक बड़ी साहित्यिक पड़ताल का विषय बन सकता है.

फ़िलहाल उनकी चार कविताएं -



शोकसभा में बच्चे की खिलखिलाहट

शोकसभा में
अचानक खिलखिला कर हँसने लगा बच्चा
सन्नाटे में आ गए माँ-बाप

कैसे समझाते बच्चे को
हँसना गन्दी बात

बच्चा आ गया बीच की खुली जगह में
माँ-बाप की गिरफ़्त से छूटकर
फेंक के मारी लात हवा में
एक झटके में झाड़ दिया सारा शोक

कैसे हो सकती है हँसना गन्दी बात
भले ही मर गया हो कोई।


लोग नहीं नष्ट होने वाले

हो सकता है हमारा मूल्यांकन हो
विद्वान लोग हमारी उपेक्षा करते-करते नहीं रहें
लोग फिर भी रहेंगे

जंगल जल जाएँ
पहाड़ समतल हो जाएँ
नदियाँ उड़ जाएँ हवा में
लोग नहीं नष्ट होने वाले
चाहे नष्ट हो जाएँ उनके प्राणाधार
उनके श्रीमान भाग जाएँ दूसरी दुनिया में

जंगल जल जाने के बाद भी
हम सब बाक़ी रहेंगे

अत्याचारियों के स्मारकों पर धर्मलेख

उन्होंने कोई अच्छॆ काम नहीं किए थे ज़िन्दगी में
यह उन्हें पता था
और उन्हें भी
जिन्होंने किया उनका अन्तिम संस्कार
उन्हें पता था
शायद इन्सान उन्हें कभी माफ़ न कर सकें
पर उन्हें उम्मीद थी
इबारतें उन्हें माफ़ कर देंगी
और वे ऎसा पहले भी करती रही हैं

लोहे ने आदमी की कुत्ते जैसी सेवा की

लोहे ने आदमी की कुत्ते जैसी सेवा की
और वैसा ही फल पाया
सोना सिर चढ़कर बैठा
सिर फुड़वाया आदमी का आदमी से
लोहा आदमी की बातों में रहा
हाथ-पैरों में और दिमाग़ के धारदार हिस्से में
सोना घुस गया उसकी ख़्वाबगाह में
नींदें हराम कर दीं उसकी

आदमी क्या इन सब बातों को जानता नहीं
शताब्दियों में कराहता लोहा
भविष्य में चिल्लाता है

5 comments:

Ashok Pandey said...

वैसे तो चारों कविताएं अच्‍छी हैं, लेकिन अंतिम रचना कविता की ताकत का बखूबी अहसास करा रही है। जिस युगसत्‍य को समझाने के लिए लंबा लेख लिखना पड़ता, उसे चंद शब्‍दों में और बिलकुल नए अंदाज में बयान कर दिया गया है। सभ्‍यता के विकास के हर मोड़ पर लोहा ने मानव की मदद की, फिर भी वह महत्‍वहीन रहा। सोना ने खून बहवाने के सिवा कुछ नहीं किया, फिर भी वह सम्‍मान के शिखर पर है।

Unknown said...

हा हा हा हा

Unknown said...

कवि आलोचक अद्भुत जोरी।
मिलि होटल में बोतल फोरी।।
हमहूं तात रहे ओहि संगा।
देखा काम चरित अति नंगा।।

प्रवीण पाण्डेय said...

लोहे ने सेवा भी की और हृदय भी लोहे का बना दिया।

roushan said...

सुन्दर कवितायें