Monday, January 24, 2011

उस वतन के एक गोशे में सुनहरा गाँव है

डॉ. अवस्थी हिमाचल की वरिष्ठ पीढ़ी के उन गिनती के साहित्यकारों में से हैं जिन्हो ने हिन्दी साहित्य का गंभीर और विधिवत अध्ययन किया है। मेरी इन से जान पहचान अग्रज कवि अनूप सेठी जी के मार्फत है। उन की यह ताज़ी कविता आज की बीहड़ गद्य़कविता के बरक्स कुछ अलग सा स्वर लिए जान पड़ती है। कल और परसों मैं नेट पर नही हूँ। अतः आज ही पोस्ट किए दे रहा हूँ
[26 जनवरी की दहलीज़ पर]

एक ही पहचान है

अब नहीं मिलते कहीं भी

पिघलते-से लोग --

धड़कनों की थाप पर वे थिरकते-से लोग --

वे खुले-से लोग, रसभोक्ता-से लोग --

ख़ुशबुओं के पारखी वे कुशल गंधी लोग

जो समन्वित चेतना से अति सहज ही

कन्याकुमारी के नवोदित सूर्य-थालों में

सूँघते थे काश्मीरी गंध केशर की ,

और कस्तूरी-मृगों के दूर पर्वत-प्रान्तरों से

देख लेते थे बँधा रामेश्वरम पर पुल 1

क्या फलक था ! क्या परख थी !! क्या नज़र थी !!!

फ़ासलों को भाव-यानों से सहज में पाट लेते थे ,

कि हर अलगाव को वे

सोच के व्यवहार से ही काट देते थे 1

सच, नहीं मिलते हमें वे लोग, वे पुलों-से लोग;

जी, बहुत नायाब हैं वे विश्व-दर्शक लोग,

राष्ट्रचिन्तक, राष्ट्रजीवी लोग –

राष्ट्र था पहचान जिन की ,

और जिन से राष्ट्र पहचाना गया 1



अर्थ-खोजी उन रसज्ञों की जगह अब

एक सड़िय़ल बेसरोकारी

महज़ आलोचना में बोलती है,

स्वार्थ से सब नापती है, अहम् से सब तोलती है ;

गोदरा से, अवधपुर से, गुलमरग से, मुम्बई से,

जहां से भी छिद्र मिलता है, वहीं से

रोज़ कोई ज़हर जल में घोलती है 1

पोथियों के , जातियों के , बोलियों के नाम पर वह

नफ़रतों को पालती है, आफ़तों को खोलती है 1



बंधुओ ! अंदाज़ उस का फ़लसफ़ाना है,

तर्क घटिया बूर्जवाना है,

कर्म छद्मों से भरा है, क़ातिलाना है,

चलन उस का भीड़ को पीछे चलाना है,

आदमी को रेत कर के शहर को मरुथल बनाना है 1

वह तमिस्रा को हमारे सूर्य-मुखियों पर

स्वयं ही तानती है ,

और फिर ख़बरें बनाती

कि उन्हें अंधा बनाया जा रहा है 1




तुम मगर उस के इरादों को कभी फलने न देना ,

इन विषैली आँधियों को बेधड़क चलने न देना ;

क्योंकि तुम इन से बड़े हो ,

क्योंकि तुम इन से लड़े हो ,

क्योंकि तुम टोपी नहीं हो ,

क्योंकि तुम कुल्ला नहीं हो ,

तुम महज़ वोटर नहीं हो

और कठमुल्ला नहीं हो 1



बस तुम्हारी एक ही पहचान है –

और वह व्यापक वतन है , जो कि शतरंगा वतन है ,

उस वतन के एक गोशे में सुनहरा गाँव है

वह तुम्हारा गाँव है, वह हमारा गाँव है ,

गाँव में पोखर किनारे पितर-पीपल है

जो तुम्हारी आत्मा को उस समूची आत्मा से जोड़ता है 1

उस समूची आत्मा की एक ही प्रतिबद्धता है ;

और वह हर ज़हर को धिक्कारना है ,

और वह अन्याय को ललकारना है 1



तुम जहां भी हो तुम्हें ट्रैक्टर चलाना है,

तुम्हें खेती उगाना है ,

फिर पसीने से नवांकुर सीँचना है 1






--[डॉ.] ओम् अवस्थी
(से.नि. प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष एवं डीन)
शारदा निवास, लोअर रामनगर, धर्मशाला.
फ़ोन: 9418218149, 9625727378 , 01892-222536

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कहाँ मिलेंगे वे लोग।

Jyoti Joshi Mitter said...

very nice poem !