Wednesday, January 26, 2011

कबीर-गायन के शिखर टिपानियाजी को पद्मश्री




आज पूरा मालवा का मन-मयूर आनंद से थिरक रहा है ! हाँ हुज़ूर ये पल और समाचार ही कुछ ऐसा है जिस पर मन का तंबूरा ख़ुशी से झनझना गया है.हमारे अपने लोकगीत गायक प्रहलादसिंह टिपानिया का नाम नागरिक अलंकरणों की उस सूची में शुमार है जो आज गणतंत्र-दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति भवन से जारी हुई है. उज्जैन ज़िले के ग्राम लूनियाखेड़ी का लाल प्रहलादसिंह टिपानिया जिसने पिछले पच्चीस बरस में कबीरी पदों का जादू पूरी दुनिया में जगाया है अब पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपानिया कहलाएंगे.म.प्र.के शिखर सम्मान और संगीत नाटक अकादमी के सम्मान से नवाज़े जाने के बाद प्रहलादसिंहजी ज़िन्दगी का यह अनमोल अलंकरण है. यूँ वे जिस कबीरी तबियत और फ़क्कड़पन में जीते हैं;उन्हें इन सम्मानों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. जब उनसे मैंने बात की तो बोले दादा यो म्हारो नीं आखा माळवा को सम्मान हे. और साँची कूँ म्हारे कबीर नी मिलता तो म्हने कूँण पूछतो....तो यो कबीरदासजी को सम्मान पेलाँ हे,म्हारों बाद में. (ये मेरा नहीं पूरे मालवा का सम्मान है.और सच कहूँ ? मुझे कबीर नहीं मिलते तो मुझे कौन पूछता,ये सम्मान कबीर के नाम पहले है,मेरे नाम बाद में) मैंने जब पूछा कि आपने गाने की तरबियत किससे पाई तो पहलादसिंह जी ने विनम्रता से कहा कि “सब काहू से लीजिये;साँचा शब्द निहार” मैंने हर अच्छी शैली से कुछ न कुछ पाया है और उसमें सचाई के शब्दों की थाह पाने की कोशिश की है. पूरी दुनिया जानती है कि प्रहलादसिंह टिपानिया नाम के गुदड़ी के लाल और कबीर पर स्टेनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की शोधार्थी लिंडा हैस लगातार काम कर रही है और इस मालवी पूत को अमेरिका भी आमंत्रित कर चुकीं है. बैंगलोर की शबनम विरमणी का कबीर फ़ाउण्डेशन प्रहलादसिंह टिपानिया के काम का दस्तावेज़ीकरण कर उसे विस्तार देने में ख़ासी मशक़्कत कर रहा है. प्रहलादसिंहजी की इस क़ामयाबी में मालवा हाउस (आकाशवाणी इन्दौर ) का भी बहुत बड़ा योगदान है क्योंकि ग्रामीण परिवेश के इस खाँटी गायक की रचनाओं को सबसे पहले पूरे मध्यप्रदेश की गाँव-गलियों में प्रचारित करने का काम उसी ने किया है. राग-रागिनियों की तालीम और शास्त्र से परे प्रहलाद दादा का काम ख़ालिस रूप से रूहानी है और उसमें मालवा के गाड़ी-गड़ारों से उड़ती धूल की आत्मीय ख़ुशबू आन समाई है. वे कहते हैं कबीर का राग तो बेराग है उसमें उन सारी कुरीतियों पर कुठाराघात है जो बुराई से अच्छाई की ओर ले जाती है. कबीरी गायन का मतलब ही है हद के बाहर जाकर गाना...हद में बंधा वह कबीरी छाप वाला नहीं.बनारस के कबीरचौरा से मालवा के ओटलों पर कबीरी जाजम बिछाने वाले प्रहलादसिंह टिपानिया ने मालवी लोक-संगीत की धजा को आज वाक़ई जगमग दे दी है.

हाँ ये भी बताना मुनासिब होगा कि इस आलेख के साथ जारी तस्वीर जानेमाने छायाकार तनवीर फ़ारूक़ी की खींची हुई है. कबाड़ख़ाना पर जारी करने की इजाज़त देने के लिये तनवीर भाई का शुक्रिया.

12 comments:

Tanveer Farooqui said...

संजय भाई मेरे लिए फख्र की बात है कि टिपानिया जी की मेरी खींची तस्वीर आपके ब्लॉग की शोभा बढ़ाए शुक्रिया आपका भी !!

-सर्जना शर्मा- said...

मेरी बरसों की इच्छा पूरी हुई टिपाणिया का सम्मान कबीर का सम्मान है , निर्गुण का सम्मान है , लोक गायकी का सम्मान है । मैं तो जब कुमार गंधर्व को सुनती हूं तो लगता हैं टिपाणिया की झलक है । और टिपाणिया को सुनती हूं तो कुमार गंधर्व जैसा आभास लगता है । बहुत बधाई

-सर्जना शर्मा- said...

मेरी बरसों की इच्छा पूरी हुई टिपाणिया का सम्मान कबीर का सम्मान है , निर्गुण का सम्मान है , लोक गायकी का सम्मान है । मैं तो जब कुमार गंधर्व को सुनती हूं तो लगता हैं टिपाणिया की झलक है । और टिपाणिया को सुनती हूं तो कुमार गंधर्व जैसा आभास लगता है । बहुत बधाई

प्रवीण पाण्डेय said...

अतिशय बधाई टिपानिया जी को।

iqbal abhimanyu said...

घर पर कैसेट थी, मजे से सुना करता था. दादाजी के कारण मालवा ओर मालवी पर हक़ मैं भी जमाया करता हूँ, खैर अदमश्री-पदमश्री तो सरकारी खेल हैं. बस टिपानिया जी ओर कबीर का आनंद ज्यादा से ज्यादा लोग उठाएं ओर लोक संगीत जन-जन में प्रतिष्ठित हो यही उम्मीद है.

Unknown said...

घणी घणी बधाईया |

Unknown said...

घणी घणी बधाईया |

शिवा said...

अतिशय बधाई टिपानिया जी को।

RAJESH BHANDARI said...

पेलाद दादा तू तो वंश में भागीरथ पैदा हुयो
तने तो आखा मालवा के तारी दिया दादा
.......मालवी को एक अदनो सो सेवक ......राजेश भंडारी "बाबु "

अजेय said...

सोचता हूँ , बधाई किसे दूँ ? कबीर को, टिपानिया जी को, संजय जी को या कबाड़्खाने को?
भाईयो बधाई का हक़दार भारत की पूरी वह *अक्खड़ परम्परा* है , जो आज भी लोक में ज़िन्दा है. अलग अलग भाषाओं, शैलियों और इलाक़ों में..... आदमी का भीतरी "सत्त" और उसके प्रति उस की आदिम "ज़िद" का प्रतीक बन कर.मैं खुद को भी बधाई देता हूँ कि उस ज़िद से मुझे इश्क़ है....
जो कहती है , हमन हैं इस्क मस्ताना, हमन से होसियारी क्या ?
कुछ साल पहले राजस्थान से एक भोपा (भील) दम्पति यहाँ से हो कर लद्दाख जा रहा था. उन्हों ने मुझे कबीर के जो पद गा कर सुनाए , अद्भुत थे, और मैं ने पहले कभी न सुने थे. मैं दफ्तर छोड़ कर दिन भर उन्हे सुनता रहा. कि कुछ तो स्मृति में क़ैद हो जाए. ... रेकार्ड नहीं कर पाया, लेकिन इस परम्परा की याद ही बची रह जाय, काफी है. उस गायक की ज़िद की हद देखिए कि वह लद्दख में भी इस बानी को समझे जाने की उम्मीद करता था. क्यों कि उस के मुताबिक़ इस मे 33 करओड़ देवताओं का *सत्त* घुला हुआ है....... इस ज़िद को बधाई!

जीवन और जगत said...

इसे मेरा सामान्‍य अज्ञान कहें या कुछ और, लेकिन मैं पहली बार टिपनिया जी का नाम सुन रहा हूँ और वह भी आपके ब्‍लॉग के माध्‍यम से। आपने उनके बारे में जो जानकारी दी है, उसे पढ़कर टिपनिया जी के प्रति नतमस्‍तक हो गया। साथ ही उस दुखिया दास कबीर के प्रति भी जिसने 'मसि कागद छुयौ नहीं, कलम गही नहिं हाथ' लेकिन फिर भी अपनी गहन काव्‍यानुभूति के बल पर हिन्‍दी के महानतम कवियों में स्‍थान प्राप्‍त किया।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

कबाड़ख़ाने से निकली यह पोस्ट ज्ञानवर्धन भी करती है ... टिपयानि जी को बधाई, और आपको भी बधाई..
.आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी आज के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
आज (28/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com