Monday, December 20, 2010

इन सपनों को कौन गाएगा

सपने में एक प्रेम गीत गाता हूँ . मेरी मुट्ठी में माईक बेहद ठण्डा है . मुझे अपनी भारी खुरदुरी आवाज़ पर यक़ीन नहीं होता. ऑडिएंस में एक लड़का ढीली पेंट और लम्बे बालों ,वाला उठा है और झूम कर नाचा है. बॉब मार्ले और बराक ओ बामा ने मेरे साथ हाथ मिलाया है और हम सब ने मिल कर उस मंच से एक पहाड़ी गीत गाया है . उन की घुँघराली लटें बहुत मुलायम है. सपने मे मैं ऊन कातने लगा हूँ .तकलियाँ चरखा हो गई हैं चरखा स्पिनिंग मशीन . एक बहुत बड़े मिल में रफल, पशम और टसर का जंजाल है . एक बुनकर कबीर डूबा हुआ अपने ‘पिटलूम’ में सूत की गुमशुदा महीन तंत टटोल रहा है . अपने कोकून में सिकुड़ा अपनी इंगला पिंगला का ताना बाना लपेट रहा है. उस का सहस्रार सुषुम्ना से कटा हुआ है और सूत्र पकड़ मे नहीं आ रहा . मेरा सपना शहर के आऊटस्कर्ट्स में एक दागदार चेहरे वाला डरा हुआ आशंकित आर्टीज़न है.

यह सपना मुझे सोचने की वजह देता है!
इस सपने में हमेशा डूबा नहीं रह सकता मैं !!
इस सपने से मुझे एक फ्लाईट मिलती है...........

मुझे एक बेचैन मुक्तिबोध दिखता है.... नेब्युला मे विचरण करता... अद्भुत शक्तिमान द्युतिकण खोजता. बाहरी खगोल की तरंगें, बेंजमिन फ्रेंकलिन की पतंगें... बारहा कौंध जाती हैं सपने में.कैसी मुश्किलों से हमारे पुरखों ने वश में किया था आग और बिजली को . और कौन सा उपयोग हम ने तय किया है इन का ! सपने में मूसलाधार बारिश होती है . एक लाख अठसठ हज़ार तीन सौ पिचहत्तर डॉल्फिन तड़प कर पृथ्वी की ओर गिरते हैं. दयार के गहरे नीले जंगलों में हिरन हो जाते हैं. एक साँवली औरत पीतल की बाँसुरी बजाती है .मैं उस लम्बी धुन पर सवार हो कर ‘भूण्डा’ खेलता हूँ चूड़धार के उस पार-- खड़ा पत्थर से पौड़िया ..... पौड़िया से चौपाल तक. नीचे शिलाई की तराई में दढ़ियल क़द्दावर ‘खूँद’ हो--हो करते हैं हाथ उठा कर.

सपने में एक ‘गद्दी’ दौड़ रहा है बदहवास. उस् के मवेशी खो गए हैं .सपने मे कोई राजा नहीं है
जहाँ गुहार लगाई जा सके . वो सारे के सारे कसाई उस के पहचाने हुए हैं जिन्हों ने उस का माल चुराया है. लेकिन वो अपने आस्तीनों में चापड़ और तेग छिपाए रखते हैं. और ताक़त की तरह खड़ा रहता उन के पीछे एक बाज़ार ! एक ‘बणबला’ घातक चाँदनी रातों की . ठण्डी नीली तीखी आँखों से घूरती है . दाहिना स्तन बाँयें काँधे पर ओढ़े हुए . बिखरे बाल , अलफ नंगी .पिछवाड़ा खाली और सामने से सालम जनानी.
कुत्ता खामोश हो गया है . ऐसी मनहूस है यह घड़ी कि डेरे में कोई ‘घ्याना’ नहीं . कि ‘झूण्ड’ उठा के बला को मार भगाया जाए . गद्दी का कमज़ोर हाथ चिपक गया है उस की पसीजती छाती पर ....वह धूड़ू स्वामी की एंचली गाना चाहता है. अपनी चोली फाड़ देना चाहता है. उस के पूरे शरीर में काँटे चुभ रहे हैं . सपने में एक दहशत है और एक हिदायत........लगातार दौड़ते रहने की. कि सपने में ही मिल जाएगा हवा में तैरता एक ज़िन्दा बचा जीवाणु. और उस गद्दी का बेटा जेनेटिक इंजीनियर.... नहीं, शायद आई आई टी बेंगलुरू के क्लासरूम में सफेद शर्ट और नीली टाई वाला स्मार्ट प्रख्यात युवा कम्प्यूटर एनिमेटर . फिर से खड़ा कर रहा है एक विशाल रेवड़ बहुत पुराने टायरेनॉसॉरस टी रेक्सेज़ का !..... और मैं इस सपने को आगे गा नहीं सकता !

इस सपने का प्रेम गीत भाप बन कर उड़ गया है !
और आप इस सपने को नाच नहीं सकते......
यह सपना अभी चुपचाप सुना जाना है.

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रफल, पशम = ऊन की क़िस्में
टसर = रेशम की क़िस्म
भूण्डा = प्राचीन हिमाचल मे नर बलि का अनुष्ठान
खूँद = प्राचीन हिमाचल मे खश जाति के गण
गद्दी = हिमालय की एक चरवाहा जाति
बणबला = मिथकीय शक्ति जो चरवाहों के मवेशी लूटती है.
घ्याना = अलाव
झूण्ड = जलती लकड़ी की टहनी
धूड़ू स्वामी की ऎंचली = लोक परम्परा मे शिव स्तुति

11 comments:

उत्‍तमराव क्षीरसागर said...

संवेद्य.......सपने में कोई राजा नहीं है....नि‍स्‍संदेह यह लयबद्ध गद्य झिंझोड़ता है।

Unknown said...

ब्रह्मांड के नागरिक! सपने में स्पीड है, ताजगी है। सुषुम्ना से कटा सहस्रार आनंदहीन चैतन्य।

Unknown said...

ब्रह्मांड के नागरिक! सपने में स्पीड है, ताजगी है। सुषुम्ना से कटा सहस्रार आनंदहीन चैतन्य।

siddheshwar singh said...

अनहद बरसै!!

Neeraj said...

कुछ डरे हुए ख्वाब हैं, हकीकत और भयावह है |
इस गद्य को समझने के लिए अनुभव चाहिए | समझ का दायरा थोड़ा और विकसित करना पड़ेगा |

sanjay vyas said...

तीव्र आवेश युक्त कण प्रकाश की गति से दौड़ते.सब कुछ झनझनाते हुए.
शायद स्टीफन हौकिंग ने ठीक ही कहा था,समय में सुरंगें बना कर ब्रह्माण्ड का छोर तलाशा जा सकता है.समय के अपरिमित विस्तार तक जाता सपना.

अजेय said...

सभी का आभार कि अति स्थानीयता के चलते लगभग अपाठ्य श्रेणी का यह गद्य आप लोगो ने पढ़ा.... . दर असल यह पोस्ट संजय व्यास को ही समर्पित था. उन के पिछले कुछ पोस्टों ने मुझे अपनी डायरी के पुराने पन्ने खंगालने के लिए मज़बूर किया . सपनो के इस सिलसिले मे मुझे हिमाचल के विरिष्ठ कवि मधुकर भारती का एक स्वप्न चित्र याद आता है.यदि उप्लब्ध हुआ तो आगामी किसी पोस्ट मे लगाऊँगा . मुझे सपनों से आसक्ति है. और उन के गाए न जा सकने का दुख.
# नीरज जी सपने मुझे भी समझ नही आते. सपनो को स्वप्न विष्लेशक ही समझ सकते हैं. मेरे और आप के लिए उस तड़प का महत्व ज़्यादा है जो अकथ को कह डालने के लिए हमारे भीतर मौजूद रहता है.

वीरेन डंगवाल said...

tum wakai ho ajeya?tum ek durlabhata ho.

अजेय said...

यदि आप सच में वीरेन डंगवाल हैं , तो थेंक्स , सर!

Arun Aditya said...

गद्यं कवीनां निकषं वदन्तिः।
सपनीला गद्य।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

सुन्दर गद्य! रोचक सपना!