Thursday, November 25, 2010

सबसे युवा कबाड़ी का स्वागत



नीरज बसलियाल सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हैं. पूना में रहते हैं. उनके ब्लॉग कांव कांव पब्लिकेशन्स लिमिटेड की कुछेक पोस्ट्स ने मेरा ध्यान खींचा था. उन्हें कबाड़ख़ाने का सदस्य बनाने की नीयत से मैंने उन्हें एक मेल लिखी और कल रात टेलीफ़ोन पर कुछ देर बात भी की. थोड़ा सा शर्मीला सा लगने वाला यह नजवान अभी फ़क़त पच्चीस साल का है. कबाड़ख़ाना अपने सबसे युवा साथी का इस्तकबाल करता है और यह उम्मीद भी कि उनके बेबाक और अनूठे गद्य का रसपान करने का हमें यहां भी मौका मिलेगा. फ़िलहाल प्रस्तुत है उनकी नवीनतम पोस्ट उन्हीं के ब्लॉग से:

नयी, पुरानी टिहरी

जमनोत्री आज सुबह से कुछ अनमनी सी थी| सर्दियों की धूप वैसे भी मन को अन्यत्र कहीं ले जाती है| इतवार का दिन सारे लोग घर पर ही थे, छत पर धूप सेंकने के लिए| जेठ जेठानी, उनके बेटे, बहुएँ भी अपनी छत पर घाम ताप रहे थे| ऐसा नहीं कि अलग छत पे हों, दोनों छत मिली हुई थी, लेकिन मनोमालिन्य ने दूरियों को एक छत से ज्यादा बढ़ा दिया था| सुधीर छुटियाँ लेकर आया था, बहू भी साथ आई थी, अमेरिका से| अमेरिका बोलने में जमनोत्री को मे पर काफी जोर डालना पड़ता था| सुधीर के पापा तो सुबह ही उठकर भजन गाने लगते हैं, अभी भी इस आदत को नहीं छोड़ा| 'बस भी करो, थोड़ा धीमे बोलो या चुपचाप सो जाओ, बच्चे सो रहे हैं|' जमनोत्री ने उलाहना दिया| सुधीर के पापा गाते रहे 'इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें...' हारकर जमनोत्री को उठना पड़ा|

बहू अमेरिका से साड़ी लेकर आई थी| 'नहीं मम्मी जी, इसे पहनों... देखो , आप पर कितनी अच्छी लग रही है|' जमनोत्री हतप्रभ थी- 'उस देश में साड़ी मिलती है क्या? साड़ी पहनती है तू वहां'| सुधीर नाश्ता करते हुए बोला- 'अरे माँ, इसके पास तो इतनी साड़ी हैं कि उनके लिए एक कमरा खाली करना पड़ा हमें वहां'| 'अच्छा' जमनोत्री ने बनावटी आश्चर्य प्रकट किया| 'और आप मेरी दी हुई साड़ी पहनती भी नहीं' बहू की नाराजगी जायज़ थी| 'अरे बेटा, यहाँ कहाँ पहनूं मैं अब? कभी कभी शादियों पार्टियों में पहन लेती हूँ|' जमनोत्री बचाव कर रही थी, बहू को दुःख नहीं पहुँचना चाहिए| 'क्या बात कर रही हो मम्मी जी, अरे वो तो मैंने घर पे पहनने के लिए लायी थी, आप उन्हें घर पे पहना कीजिये' बहू कहीं से भी उनका उपहास नहीं कर रही थी| यहाँ भी हारकर जमनोत्री को बहू की लायी गयी साड़ी पहनकर बैठना पड़ा|

जेठानी समझदार थी, बाहर से ही घर में चल रहा वातावरण समझ गयीं| 'अरे बहू! क्या बात है, क्यूँ डांट रही हो इसे|' जमनोत्री की जेठानी ने वातावरण को और हल्का करने की कोशिश की|'नहीं मम्मी जी, मैं मम्मी जी को कह रही थी कि....और आप भी मेरी दी हुई साड़ी नहीं पहनती|' बहू अब जेठानी से सवाल जवाब करने लगीं| 'नहीं बेटा, पहनती हूँ...' जेठानी जी भी सकपका गयीं 'मैंने अभी स्नान-ध्यान कुछ नहीं किया, उसके बाद पहनूंगी'| 'आज बहू सबकी तलाशी लेगी|' जमनोत्री को अपनी बहू पर लाड़ आ गया| कभी कभी बच्चों जैसी जिद पे उतर आती है, सुधीर की दादी तो अभी तक हमपे इतने ताने मार चुकी होती कि...खैर जमाना बदल गया है, तो हमें भी बदलना चाहिए 'अरे बहू! हम लोगों का भी क्या पहनना ओढ़ना| पूरा बचपन और जवानी जंगल में काट दी| घर से निकले मुँह-अँधेरे और जंगल गए घास-पात कभी लकड़ी लेने, खेतों में काम, बैलों को सानी, दिन भर में इतने काम होते कि किसे याद कि फैशन भी करना है| हाँ , कभी किसी की शादी-ब्याह के वक़्त देख लिया ऐना तो ठीक, नहीं तो ऐसे ही चल दिए|' बहू के मुँह से बेसाख्ता निकल गया -'हाँ तो अब थोड़े ही जंगल में हो|'


प्रतीक भी अब इस ओर नहीं आता, जाने उसकी दादी ने क्या कहा उससे कि अब सिर्फ अपनी छत पे ही खेलता रहता है| जमनोत्री ने नन्हे प्रतीक को अपनी गाडी को उलट पलटकर ठीक करते हुए देखा| पिछली छुट्टी में सुधीर लेके आया था प्रतीक के लिए, अमेरिका से| 'ए प्रतीक! इधर आ!' जमनोत्री ने पुकारा| प्रतीक ने सर उठाकर देखा, और फिर सर झुका लिया 'देख नहीं रहे, मैं अभी बिजी हूँ|' प्रतीक भी बिजी था, प्रतीक की दादी ने स्नान-ध्यान करके बहू की दी हुई साड़ी पहनी थी| इधर सुधीर के पापा धूप में चटाई बिछा के लेट गए और अखबार पढ़ने लगे| अभी थोड़ी देर में अखबार पढ़ते पढ़ते ही सो जायेंगे| सुधीर इस बीच छत पे आ गया, अपने मोबाइल पे गाने बजाने लगा| जरूर सुधीर ने बहू के साथ कुछ चुहल की होगी, तभी भागते भागते छत पे आया है| जमनोत्री का अनुमान बिलकुल सही था, बहू भी भागते भागते छत पे आई, और आँखों ही आँखों में सुधीर से गुस्सा भी थी|


रास्ते में लगे हुए पेड़ों की शाखाएं बिजली के तारों को छूने लगे थे| एक निश्चित समय अंतराल पर उनकी शाखाएं काटने के लिए बिजली विभाग किसी को भेजता था| खट-खट की आवाज आने लगी, और एक शाख काट दी गयी| शाख के गिरते ही छत की आखिरी छोरों पे खड़ी जमनोत्री और उसकी जेठानी की आँखों आखों में ही कुछ बातें हुई| फ़ौरन से दोनों उठ गयी| मंहंगी अमेरिकन साड़ी के आँचल को कमर में बाँधा, और दोनों चल पड़ी टूटी हुई शाखें उठाने के लिए| 'मम्मी जी , कहाँ जा रही हैं' बहू ने सुधीर से पूछा| सुधीर का ध्यान रास्ते पे गया, जहाँ जमनोत्री टूटी हुई डाल को कंधे पे उठा के विजयी मुद्रा में चली आ रही थी| उनके पीछे ही जेठानी भी दूसरी डाल लेकर आ रही थी| 'माँ, क्या कर रही हो उनका' सुधीर ने जिज्ञासा प्रकट की| जमनोत्री का ध्यान सुधीर की बातों पे नहीं था, जेठानी एक डाल अपनी छत पे रखके दूसरी लेने के लिए जल्दी कर रही थी| जमनोत्री ने जल्दी से डाल रखी और चली गयी| सुधीर के पापा ने धूप में लेटे लेटे एक आँख खोली| 'पिता जी! माँ ये डालें क्यों ला रही है| क्या करेगी इन लकड़ियों का?' सुधीर ने माँ की ओर दिखाकर पूछा| तभी, जमनोत्री ने कई सारी टूटी शाखों का गट्ठर बना लिया| उसे पीठ पर लादकर लाने लगी| 'पता नहीं बेटे! तभी तो मैं इसे गंवार कहता हूँ|' सुधीर के पापा हँसते हुए बोले| 'अरे सूखी लकड़ियाँ बहुत काम आती हैं|' जमनोत्री ने झुके झुके ही जवाब दिया| सुधीर के पापा ने गट्ठर को पीठ से उतार दिया| 'अरे लेकिन अब तो गैस है, और नहाने के लिए गीज़र है बाथरूम में| फिर भी?' सुधीर ने अपना तर्क प्रस्तुत किया| जिस पर जवाब देने की जमनोत्री की कोई इच्छा नहीं थी| सुधीर के पापा, जमनोत्री का ये भाव समझ गए| 'और रखोगे कहाँ? छत पे? छत खराब हो जायेगी|' सुधीर ने आखिरी तर्क प्रस्तुत किया| 'ए जमनोत्री| और भी हैं अभी वहां, रास्ते के दूसरी तरफ, जल्दी चल' छत के दूसरे छोर से जेठानी की आवाज आई|

सुधीर चुपचाप माँ को शाखें ला लाके इकट्ठी करता हुआ देखता रहा| बीच बीच में सुधीर के पापा, सुधीर की ओर देखकर सांत्वना भरे स्वर में कहते रहे 'गंवार है, कभी शहर देखा ही नहीं, तो ये हरकत तो करेगी ही|' सुधीर जानता था कि पापा की इसमें मौन सहमति है| बहू, अपनी अमेरिकन साड़ी की दुर्दशा देख रही थी| सड़क के दूसरे छोर से जमनोत्री और जेठानी खिलखिलाते हुए आ रहे थे, प्रतीक भी एक छोटी सी डाल कंधे पे लादके चला आ रहा था, उन छोटे छोटे बच्चों की तरह जो बड़ी दीदी के साथ पहली बार स्वेटा पीठ पे बाँध के घास-पात लेने जाते हैं| इधर सुधीर के मोबाइल पे गाना अभी भी बज रहा था

'अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ,
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ|'

18 comments:

दीपक बाबा said...

कबाड़ख़ाने में उनका स्वागत करता हूं,

कहानी कांव कांव में पढ़ ली थे....

नीरज में संभावनाएं असीम हैं..

सोमेश सक्सेना said...

बहुत खूब, नीरज जी का स्वागत है...
उनकी ये रचना लाजवाब है...

मुनीश ( munish ) said...
This comment has been removed by the author.
मुनीश ( munish ) said...

Highlanders whether Brits or Indians HAVE ALWAYS BEEN GREAT FIGHTERS and WRITERS and Neeraj is definitely one of them i believe

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

नवागत का हार्दिक स्वागत।

Unknown said...

'अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ,
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ|'
sahi kaha.

siddheshwar singh said...

स्वागत है भाई!

Neeraj said...

हाई अशोक जी,
बहुत बहुत शुक्रिया मुझे इतने सारे लोगों के बीच लाने का| एक एक कर अपने फ्रेंड लिस्ट में लोगों को लिंक भेज रहा हूँ, देखो मेरे बारे में लिखा है, उनको भी जिन्हें हिंदी ब्लोगिंग का ज्यादा कुछ पता नहीं है|

@दीपक जी,
आप रेगुलर पढ़ते हैं , और हौसला बढ़ाते हैं| आपका आभार|

@सोमेश जी,
ये रचना टिहरी की उस टीस से उपजी है, जो इसका तर्कपूर्ण पहलु सुनना ही नहीं चाहती| आपको रचना लाजवाब लगी| उम्मीद है, आप यूँ ही पढ़ते रहेंगे|

@मुनीश जी,
मयखाने ने सही मायने में मुझे नोटिस करवाया, जहाँ तक मुझे लगता है| आपने मेरी टिप्पणी का अलग पोस्ट ही बना दिया|

@सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
बहुत धन्यवाद|


@Poorviya जी,
ख़लील धनतेजवी की ये ग़ज़ल आपको पसंद आई| वाकई, विस्थापन का दर्द ये दो लाइनें ही बयां कर देती हैं|

@ sidheshwer जी,
धन्यवाद भाई,

राजेश उत्‍साही said...

चलिए ब्‍लाग जगत की इस कांव कांव के बीच कुछ तो ढंग का पढ़ने का मिला। लेखन में प्रवाह है। उम्‍मीद भी है और संभावना भी। बधाई।

sanjay vyas said...

एक कबाडी के रूप में स्वागत नीरज भाई.आपका ब्लॉग तो खैर इन दिनों हिंदी ब्लॉगजगत की एक सुखद घटना है.

अरुण चन्द्र रॉय said...

नीरज जी का स्वागत है...

The Serious Comedy Show. said...

swaagat hai.

डॉ .अनुराग said...

अच्छा लड़का है ...नीरज को पढना उसी के ब्लॉग से शुरू किया था ...... ....बस उसकी ये वेवलेंथ ओर एनर्जी बनी रहे....

iqbal abhimanyu said...

बहुत अच्छी रचना है, कबाड़खाना और नीरज जी दोनों को बधाई.. :)

Shubham Shubhra said...

waqai mein majedaar....bahut achcha....

प्रवीण पाण्डेय said...

पढ़ ली और फीड में डाल दी। आभार।

पंकज थपलियाल said...

कबाड़खाने के बारे मेँ जानकर अच्छा लगा ,
बताने के लिए पंकज बसलियाल को धन्यवाद।
नीरज का लेखन प्रभावी है।

Neeraj said...

@ राजेश उत्साही जी

आपकी छोकरा श्रृंखला सामान्य पोस्ट्स से बहुत अधिक पसंद आती हैं|

@संजय व्यास जी, अरुण चन्द्र रॉय जी, unkavi जी, डॉ. अनुराग जी, iqbal abhimanyu जी, cutelikecobra जी, प्रवीण पाण्डेय जी

स्वागत के लिए आप सबका बहुत आभार| पूरी कोशिश रहेगी कि साफदिल होकर लिखूं, वेवलेंथ अपने आप दुरुस्त रहेगी|

@ pankaj thapliyal जी
आप पंकज बसलियाल के दोस्त हैं| कबाड़ख़ाने में आने के लिए आपका बहुत शुक्रिया|

पंकज बसलियाल मेरे बड़े भाई हैं| कवि-ह्रदय इंसान हैं, दूसरो पर दया करते हैं, इसलिए कविता कम ही सुनाते हैं| जल्द ही मैं आपको उनकी कुछ बेहतरीन कविताओं से रूबरू कराऊंगा||