Thursday, June 24, 2010

मां के लिए पांच ख़त

रूमानियत और ऐन्द्रिकता से भरपूर उनकी कविता के लिए अरब संसार के पाठकों की कई पीढ़ियों ने निज़ार क़ब्बानी (१९२३ - १९९८) को लगातार इज़्ज़त और प्रेम बख़्शा है. उनकी कविताएं उनके दस काव्य संग्रहों के अलावा अरबी अख़बार अल हयात में लगातार छपती रहने के साथ साथ लेबनान और सीरिया के गायकों द्वारा लोकप्रियता के चरम पर पहुंचाई गईं.

स्त्रियों को क़ब्बानी ने अपनी काव्य प्रेरणा का स्रोत बनाया. चाइल्डहुड ऑफ़ अ ब्रेस्ट नामक उनका पहला काव्य संग्रह १९५४ में छपा था जिसकी इरोटिक और रूमानी कथावस्तु ने अरब साहित्य के पारम्परिक संसार में खासी हलचल पैदा की थी. क़ब्बानी की एक बहन थी जिसने इस वजह से आत्महत्या कर ली थी कि वह अपनी नापसन्द के आदमी से ब्याह नहीं करना चाहती थी. इस घटना ने क़ब्बानी को गहरे प्रभावित किया. अपने रचनाकर्म में उन्होंने लगातार पुरुषों के वर्चस्व वाले समाज के प्रति अपने विरोध को स्वर देने के साथ साथ स्त्रियों की सामाजिक स्वतन्त्रता की हिमायत की.

सन १९६७ से वे लन्दन में रहने लगे थे अलबत्ता दमिश्क शहर उनकी कविताओं में बहुत मज़बूती के साथ उपस्थित रहा है.

१९६७ के अरब-इज़राइल युद्ध में अरबों की हार के बाद उन्होंने लन्दन में निज़ार क़ब्बानी पब्लिशिंग हाउस स्थापित किया जो जल्द ही अरबी हितों का महत्वपूर्ण माउथपीस बन गया.

क़ब्बानी एक निष्ठावान अरब राष्ट्रवादी थे और बाद के वर्षों की उनकी कविता और बाकी लेखन में स्पष्ट राजनैतिक स्वर सुनाई देते हैं. उनके लेखन में रूमानी और राजनैतिक हताशा का समन्वय देखने को मिलता है.

उनकी दूसरी पत्नी बिल्क़ीस अल-रावी एक ईराक़ी अध्यापिका थीं जिनसे उनकी मुलाक़ात बग़दाद में एक काव्यपाठ के दौरान हुई थी. बिल्क़ीस बेरूत में ईराक़ी संस्कृति मंत्रालय में कार्यरत थीं जहां ईरानी गुरिल्लाओं द्वारा अंजाम दिए गए एक बम विस्फोट में उनकी मौत हो गई. यह निज़ार क़ब्बानी के लिए बहुत बड़ा सदमा था.

७५ की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से लन्दन में उनकी मृत्यु हुई.

निज़ार क़ब्बानी कीकविताओं से आपका पहला परिचय सिद्धेश्वर सिंह करा चुके हैं. बाद में मैंने उनकी कुछ प्रेम कविताएं आपके सम्मुख प्रस्तुत की थीं. आज उनकी एक और कविता श्रृंखला:


मां के लिए पांच ख़त

१.

सुप्रभात मेरी प्यारी
सुप्रभात मेरी प्यारी सन्त
दो साल बीत गए मां
तुम्हारा लड़का निकल गया था
अपनी मिथकीय यात्रा पर.
जब वह छिप गया था अपने असबाब में
अपनी मातृभूमि की हरी सुबह में
और उसके सितारों, धाराओं
और लाल पॉपियों में.
जब वह छिप गया था अपने वस्त्रों में
पोदीने और अजवाइन के गुच्छों में
और दमिश्क के फूलों में.

२.

मैं अकेला हूं.
उकता चुका मेरी सिगरेट का धुंआ
मुझसे उकता चुकी मेरी कुर्सी
मेरे दुख मौसम में किसी हरे खेत को तलाशते चिड़ियों का एक झुण्ड हैं.
मैं परिचित हुआ यूरोप की स्त्रियों से
मैं परिचित हुआ उनकी थकी सभ्यता से.
मैं हिन्दुस्तान गया, चीन गया मैं,
मैंने समूचे पूर्व का भ्रमण किया
मुझे कहीं नहीं मिली वह स्त्री
जो मेरे सुनहरे बाल काढ़ती.
एक स्त्री जो अपने बटुए में छिपाती मेरे वास्ते एक टॉफ़ी.
एक स्त्री जो मुझे कपड़े पहनाती जब मैं होता निर्वस्त्र
और गिर जाने पर उठाती मुझे.
मां - मैं हूं वह लड़का जो निकल गया था समुद्री यात्रा पर
बंधा हुआ लेकिन अब भी उसी टॉफ़ी से.
तो ऐसा कैसे हो सकेगा मां
कि मैं बन सकूं एक पिता और कभी बड़ा न होऊं.

३.

सुप्रभात, मैं मैड्रिड में हूं
बच्ची कैसी है?
मैं विनती करता हूं उसका ख़याल करना
सबसे अलग वह बच्ची.
वह सबसे प्यारी थी अपने पिता की.
उसने उसे बेटी की तरह ही बिगाड़ा.
वह उसे सुबह कॉफ़ी पीने बुलाया करता.
और उसे बचाता अपनी दया से.
और जब उसकी मृत्यु हुई
वह हमेशा उसकी वापसी का सपना देखा करती.
उसने अपने पिता को उसके कमरे के कोनों में तलाशा.
उसने सवाल किए पिता के वस्त्रों के बारे में
उसके अख़बार के बारे में
और गर्मियां आने पर सवाल किए
उसकी नीली आंखों के बारे में,
ताकि वह फेंक सके पिता की हथेलियों में
सोने के अपने सिक्के.

४.

मेरी शुभकामनाएं
उस एक घर को जिसने हमें प्रेम और दया के पाठ पढ़ाए.
शुभकामनाएं तुम्हारे सफ़ेद फूलों को,
जो सबसे बेहतरीन होते थे सारे मोहल्ले में.
शुभकामनाएं मेरे बिस्तर को, मेरी किताबों को
गली के सारे बच्चों को.
शुभकामनाएं उन सब दीवारों को
जिन्हें हम भर दिया करते थे अपनी लिखावट के शोर से.
शुभकामनाएं बालकनी में सो रही आलसी बिल्ली को
पड़ोसी की खिड़की पर चढ़ रही फूलदार बेल को.
दो साल बीत गए मां,
चिड़िया जैसा दमिश्क का चेहरा
मेरे अन्तर को कचोटता रहता है
कुतरता मेरे परदों को,
और मेरी उंगलियों पर मारता अपनी उदार चोंच.
दो साल बीत गए मां,
दमिश्क की रातें
दमिश्क की ख़ुशबूएं
दमिश्क के घर
बसे हुए हैं हमारी कल्पनाओं में.
उसकी मस्ज़िदों के खम्भों की रोशनियां
हमारे पालों को रास्ता दिखाती रही हैं.
जैसे कि हमारे दिलों में बो दिए गए हों
अमावी शहर के खम्भे.
जैसे कि बागानों से अब भी महक रही हमारी चेतना.
जैसे कि रोशनी और चट्टानें
पूरी यात्रा करती रही हों हमारे साथ.

५.

सितम्बर का महीना है मां
मेरे लिए सलीके से लिपटे उपहार लेकर आता है दुःख
मेरी खिड़की पर छोड़ जाता अपने आंसू और अपनी चिन्ताएं.
यह सितम्बर है, दमिश्क कहां है?
कहां हैं पिता और उनकी आंखें,
उनकी निगाहों का रेशम कहां है
कहां उनकी कॉफ़ी की महक.
ईश्वर दया करे उनकी कब्र पर.
और कहां है हमारे विशाल घर की विशालता
कहां है उसका सुकून
कहां है खिलते हुए फूलों की गुदगुदी से हंसता हुआ वह घुमावदार ज़ीना
और मेरा बचपन कहां है.
बिल्ली की पूंछ खींचता हुआ
अंगूर की बेल से अंगूर खाता हुआ
और कतरता हुआ फूलों को.

***

दमिश्क, दमिश्क,
हमने कैसी कविता लिखी अपनी आंखों में.
कितने सुन्दर बच्चे को चढ़ा दिया सूली पर
हम उसके पैरों पर झुके
गल गए उसके प्रेम में
जब तक कि अपने प्रेम से
हमने उसे मार न डाला.

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पाँचों कवितायें बहुत अच्छी हैं, साथ में अनुवाद भी । कोमल भाव सभी संस्कृतियों में एक जैसे हैं, समान । कठोरता में आगे निकलने की होड़ लगी है ।

siddheshwar singh said...

जारी रहे यह क्रम !

सोनू said...

अशोकजी अरबी जानते हैं? मेरे ख़याल से सिद्धेश्वर भी उनके जितनी ही अरबी जानते होंगे। घंटा।