Saturday, February 20, 2010

मेरी जिंदगी में किताबें - 3


ज्‍यादातर दोस्‍तों ने किताबें खरीदना छोड़ दिया है और किताबों के बारे में बात करना भी। गलती उनकी भी नहीं है। जीवन ही ऐसा है। तंख्‍वाह के अंकों में जीरो बढ़ाते जाने और कॅरियर में एक आला मुकाम हासिल करने के लिए लोग मुंह अंधेरे दफ्तरों के लिए निकलते हैं और रात गए वापस लौटते हैं। बचा वक्‍त फेसबुक सरखी तमाम बुकों के नाम अलॉट है पर किसी और बुक की जगह नहीं है। लड़कियां तो और भी रिकॉर्ड तोड़ काम कर रही हैं किताबें न खरीदने और न पढ़ने के मामले में वो तो मर्दों से भी चार कदम आगे हैं। हिंदुस्‍तान में चायनीज और कॉन्‍टीनेंटल का मार्केट बढ़ते ही वो बड़े गर्व से घरों में भी इसे बनाने की कला सीख रही हैं। बाकी समय बच्‍चों की नाक पोंछती हैं, पति का पेट भरती हैं और बिल्डिंग की औरतों के साथ इस गॉसिप में मुब्तिला रहती हैं कि कौन कहां किसके साथ फंसा हुआ है। किसके यहां कौन आया और गया। किसका चक्‍कर किसके साथ, किसकी बीवी किसके हाथ।

बॉम्‍बे में तकरीबन आठ साल इस हॉस्‍टल से उस हॉस्‍टल के बीच फिरते हुए जहां-जहां मैंने ठिकाना बनाया, वहां सिर्फ दो लड़कियां मुझे मिलीं, जिनकी किताबों से कुछ जमती थी। एमए में मेरी रुममेट शहला भी बैंड स्‍टैंड और फैशन स्‍ट्रीट का चक्‍कर लगाने वाली शोख हसीनाओं को लानत भेजती और दिन भर अपनी किताबों में सिर गोड़े रहती थी। वह अंग्रेजी से एमए कर रही थी और उसी से मैंने एलिस वॉकर, टोनी मॉरीसन, एन्नी सेक्सटन, नादिन गॉर्डिमर, मारर्ग्रेट एटवुड वगैरह के बारे में जाना और उनकी किताबें पढ़ीं। वरना इलाहाबाद में तो हम गोदान को साहित्‍य का दरवाजा और प्रगति प्रकाशन की किताबों को आखिरी दीवार मानकर मगन रहते थे।

लेकिन कुछ तो वो उम्र ही ऐसी थी और कुछ हम ज्‍यादा नालायक भी थे, कि अंग्रेजी की किताबों से ढूंढ-ढूंढकर इरॉटिक हिस्‍से पढ़ते और कंबल में मुंह छिपाकर हंसते। वो लाइब्रेरी से लेडी चैटर्लीज लवर खासतौर से इसलिए लेकर आई थी कि उसके कुछ विशेष हिस्‍सों पर गौर फरमाया जा सके। ऐसे हिस्‍सों का ऊंचे स्‍वर में पाठ होता था। हम मुंह दबाकर हंसते थे। ऊऊऊ……. सो सैड, सो स्‍वीट, सो किलिंग, सो पथेटिक। टैंपल ऑव माय फैमिलिअर पढ़ते हुए शहला बीच-बीच में कहती जाती, ये तो हर चार पन्‍ने के बाद चूमा-चाटी पर उतर आते हैं।

मैं निराशा से भरकर कहती, ‘बस इतना ही।’

‘अरे नहीं, और इसके आगे और भी है मेरी जान।’ शहला आंखें मटकाती।

पढ़-पढ़-पढ़।’ और फिर एक सेशन चलता ऐसे हिस्‍सों का। लेकिन यूं नहीं कि बस काम भर का पढ़कर हम किताब को रवाना कर देते। हम गंभीरता से भी पढ़ते थे। उसने मुझे एन्नी सेक्सटन पढ़ाया और मैंने उसे हिंदी कविताएं। दूसरी पढ़ने वाली लड़की थी, डॉकयार्ड रोड के हॉस्‍टल में केरल की रहने वाली बिंदु, जिसने मुझे वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड पढ़ता देखकर कहा था कि वो ये किताब मलयालम अनुवाद में चार साल पहले ही पढ़ चुकी है। उसे न ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी। मलयालम मेरे लिए डिब्‍बे में कंकड़ भरकर हिलाने जैसी ध्‍वनि थी। फिर भी पता नहीं कैसे हम एक-दूसरे की बातें समझ लेते थे और दुनिया भर की किताबों और कविताओं के बारे में बात करते थे।
इसके अलावा लड़कियों की दुनिया बहुत पथेटिक थी और वहां किताबों के लिए ढेला भर जगह नहीं थी। वो बहत्‍तर रंग और डिजाइन के चप्‍पल और अंडर गारमेंट्स जमा करतीं, तेईस प्रकार की लिप्‍सटिक और ईयर रिंग्‍स और इन सबके बावजूद अगर उनका ब्‍वॉय फ्रेंड पटने के बजाय इधर-उधर मुंह मारता दिखे तो उस दूसरी लड़की को कोसते हुए उसके खिलाफ प्‍लानिंग करती थीं। उन्‍हें मर्द कमीने और दुनिया धोखेबाज नजर आती। लेकिन कमीने मर्दों के बगैर काम भी नहीं चलता। चप्‍पलों का खर्चा कौन उठाएगा? लब्‍बेलुआव ये कि मोहतरमाएं दुनिया के हर करम कर लें, पर मिल्‍स एंड बून्‍स और फेमिना छोड़ किताब नहीं पढ़ती थीं और मुझे और शहला को थोड़ा कमजेहन समझती थीं।

ऐसा नहीं कि मैं लिप्‍स‍टिक नहीं लगाती या सजती नहीं, फुरसत में होती हूं तो मेहनत से संवरती हूं, लेकिन अगर काफ्का को पढ़ने लगूं तो लिप्‍सटिक लगाने का होश नहीं रहता। हॉस्‍टल के दिनों में नाइट सूट पहने-पहने ही क्‍लास करने चली जाती थी और आज भी अगर मैं कोई इंटरेस्टिंग किताब पढ़ रही हूं तो ऑफिस के समय से पांच मिनट पहले किताब छोड़ जो भी मुड़ा-कुचड़ा सामने दिखे, पहनकर चली जाती हूं। होश नहीं रहता कि बालों में ठीक से कंघी है या नहीं। यूं नहीं कि मैं चाहती नहीं कि लिप्‍स्‍टिक-काजल लगा लूं पर इजाबेला एलेंदे के आगे लिप्‍सटिक जाए तेल लेने। लिप्‍सटिक बुरी नहीं है, लेकिन उसे उसकी औकात बतानी जरूरी है। मैं सजूं, सुंदर भी दिखूं, पर इस सजावट के भूत को अपनी खोपड़ी पर सवार न होने दूं। सज ली तो वाह-वाह, नहीं सजी तो भी वाह-वाह।

और कभी महीने में एक-दो बार मजे से संवरती भी हूं। ऑफिस में सब कहते हैं, आज शाम का कुछ प्रोग्राम लगता है। मैं कहती हूं हां, मुराकामी के साथ डेट पर जा रही हूं।
कौन मुराकामी?
एक जापानी ब्‍वॉयफ्रेंड है।
अल्‍लाह, हमें हिंदुस्‍तानी तक तो मिलते नहीं, इसने तो जापानी पटा रखा है।

***

जीवन की रौशनियों और तारीकियों से आंख-मिचौली खेलते मेरी राह में ऐसे ठहराव आए कि कभी तो मैंने किताबों से नाता तोड़ लिया तो कभी किताबों में ही ठौर मांगी। बॉम्‍बे में आठ साल प्रणव के साथ के दौरान मैंने किताबें नहीं खरीदीं क्‍योंकि उसके पास हजारों किताबें थीं। लगता था, वो सब मेरी भी तो हैं। हमारे जीवन साझे हैं तो किताबें भी हुईं। उसके घर की आधी किताबें हॉस्‍टल के मेरे कमरे में गंजी रहती थीं। फिर जब प्रणव दूर चला गया तो उसके साथ सारी किताबें भी चली गईं। फिर बॉम्‍बे छोड़ने के बाद मैं कूरियर से एक-एक करके उसकी किताबें वापस भेजती रही। एक दिन सारी किताबें वापस हो गईं और इसी के साथ उसकी किताबों से नाता भी जाता रहा। चार साल हुए, अब मैं फिर से थोक में किताबें खरीदने लगी हूं। अब जेब भी इजाजत देती है कि कुछ अच्‍छा लग जाए तो पट से खरीद लूं। नौकरी पढ़ने की इजाजत जितनी भी देती है, सुबह-रात मौका मिलते ही पढ़ती हूं। कभी दो-चार दिन की छुट्टी हाथ लगे तो किताबों के साथ सेलि‍ब्रेट करती हूं।

पापा के पास सैकड़ों किताबें हैं और ताऊजी के पास हजारों। लेकिन घर में अब कोई किताब नहीं पढ़ता। ताऊजी से कहती हूं कि उनकी सारी किताबें मेरी होंगी। पहले ताईजी जब भी मेरी शादी के बाबत बात करतीं तो मैं कहती थी कि दहेज में ये सारी किताबें दे देना। ताईजी कहतीं, तेरी सास किताबों समेत उल्‍टे बांस बरेली भेज देगी। मैं कहती, बुढ़िया की ऐसी की तैसी। उसे मैं आगरा भेज दूंगी। ऐसे ही हम सब खचर-पचर करते गुल्‍लम-पुल्‍लम मचाए रहते हैं, पर किताबों से मुहब्‍बत कम नहीं होती।

जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं। जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं। किताबें सब होती हैं। वो अदब होती हैं और जिंदगी का सबब होती हैं।

पिछली कड़ियां - मेरी जिंदगी में किताबें -1
मेरी जिंदगी में किताबें - 2

समाप्‍त।

8 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

मुनीश ( munish ) said...

Reading for leisure these days is an 'aristocratic pursuit' for sure . For being well read being well-fed is a pre-requisite in these times .It has been a pleasure reading ur post here.

मुनीश ( munish ) said...

I have met many voracious readers , the ones who talk of Paul cohelo,Sthphens Hawkins, Ezra pound and Agatha cristie(not necessarily in the same order), but have never read Vyasa , Bhartrihari,Tiruvalluru, Khalil Gibran , Confusius, Lao-tse or Kautilya. A lot of trash sells in the name of literature and if one has not read these i think itsjust like puffin' cocaine or just a dash of hash !

प्रज्ञा पांडेय said...

आपका आलेख पढ़कर मन भर आया ...... लगा की आपने जन्नत के द्वार तक पहुंचा दिया है
जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं। जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं। जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं। किताबें सब होती हैं। kyaa baat kahi !!!

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कहती हैं । किताबें बहुत साथ देतीं हैं जब अपने नहीं होते या बेगाने हो जाते हैं ।

कामता प्रसाद said...

मुनीश भाई विजयशंकर चतुर्वेदी से बात करके हिंदी टाइप सीख लें माने लिखें रोमन में और हो जाये हिंदी।
धन्‍यवाद किताबों की दुनिया पर आत्‍मीय आलेख के लिए।
लेकिन जिंदगी किताबों के लिए नहीं होती है जिंदगी के लिए होती हैं किताबें। ज्ञान को व्‍यवहार से मिलायें जिंदगी ज्‍यादा अर्थपूर्ण हो जाएगी माने अर्थवत्‍ता सार्थकता आदि आदि।

bhupendra singh sishir said...

nice article. first time i read dat girls r also read "....." types of book r article. really. cngrats 4 such a nice article. god bless u.

Shashwat said...

सुंदर