Saturday, January 23, 2010

गर्चे यह त्यौहार की पहली ख़ुशी है ज़्यादः - नज़ीर अकबराबादी

करके बसन्ती लिबास सबसे बरस दिन के दिन
यार मिला आन कर हमसे बरस दिन के दिन
खेत पे सरसों के जा, जाम सुराही मंगा
दिल की निकाली मियां! हमने हविस दिन के दिन
सबकी निगाहों में दी ऐश की सरसों खिला
साक़ी ने क्या ही लिया वाह जस दिन के दिन
ख़ल्क में शोर-ए-बसन्त यों तो बहुत दिन से था
हमने तो लूटी बहात ऐश की बस दिन के दिन
आगे तो फिरता रहा ग़ैरों में हो ज़र्द पोश
हमसे मिला पर वह शोख़ खा के तरस दिन के दिन
गर्चे यह त्यौहार की पहली ख़ुशी है ज़्यादः
ऐन जो रस है सो वह निकले है रस दिन के दिन

लूटेगा फिर साल भर गुलबदनों की बहार
यार से मिल ले नज़ीर आज बरस दिन के दिन

4 comments:

abcd said...

आप की एक पुरानि post मे पदा अशोक भाई कि नज़िर कि किताब पिले रन्ग कि है /

जिस तरह से उन्के बसन्त का लिखा ,आखो पर पीले रन्ग का नशा चदा देता है ,

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सबकी निगाहों में दी ऐश की सरसों खिला
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सोच रहा था कि जिस्ने भी वो cover ka कलर पीला / बसन्ति बनाया होगा ,सही बनाया है /

abcd said...

अशोक भाई,
नज़ीर कि घुमावदार लकडी देख कर लगता है , कि ’शक्तिया’और भी थी !!

केवल शब्द ही नहि थे जो 'control' मे थे .....

आशुतोष पार्थेश्वर said...

یہ بدھیا کام ہے، دیکھ کر اور پڑھ کر خوشی ہوتی ہے.

अजेय said...

ईश्वर ...... यह तुम हो कि नज़ीर ?

आज फिर तुझे बीड़ी पिलाऊँ .....