Tuesday, January 12, 2010

साल २०१०: जब रचना न हो पा रही हो तब अनुवाद हो- डंगवाल

साहित्यकारों की राय वाली पिछली कड़ी में साथी कवि निलय उपाध्याय की बात पढ़कर हमारे प्रिय गौतम राजरिशी हिल उठे हैं. उन्होंने लिखा है- 'निलय जी के शब्दों ने झकझोर दिया है जैसे पूरे वजूद को...एक सकते की सी हालत में हूँ.' वहीं भाई अमिताभ श्रीवास्तव कहते हैं - 'इन चीज़ों को कबाड़ तो नहीं कहा जा सकता...बेहतरीन!'
हमारा कहना है कि हर चीज़ की किस्मत में कबाड़ होना लिखा है और हर कबाड़ बेकार नहीं होता... और आज की कड़ी में भी साहित्यकारों की राय को हम कबाड़ नहीं, हीरा समझ कर प्रस्तुत कर रहे हैं:)-

वीरेन डंगवाल (वरिष्ठ कवि):

हालिया वर्षों में हमारा महादेश कई सारे आशातीत परिवर्तनों से रूबरू हुआ है. कुछ तब्दीलियों को समाज ने अच्छे से आत्मसात कर पाने में सफलता प्राप्त की है. मिसाल के तौर पर सूचना क्रान्ति ने समाज, संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर जो प्रभाव डाला है उसके सारे धनात्मक परिणामों ने अभी अपने आप को पूरी तरह प्रकट करना बाकी है. सभी धरातलों पर मूल्य बदल रहे हैं और मुझे लगता है कि आने वाले साल में यह क्रम और भी तेज़ी से चलता ही रहना है. मैं चाहता हूं कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों में ह्रासोन्मुखता कम हो क्योंकि प्रत्यक्षतः सामाजिक और नैतिक मूल्य ही बाक़ी सारी चीज़ों को तय करते हैं.

साहित्य के क्षेत्र में; खासतौर पर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में हमारे रचनाकारों को अधिक कर्मठ होने की ज़रूरत है. हमारे यहां 'बातें ज़्यादा और काम कम’ पर अधिक तवज्जो दी जाती रही है. फ़िज़ूल के सम्मेलन, पुरस्कार, विमोचन, गुटबाज़ी के चलते हिन्दी का जो नुकसान हुआ है, उसकी थोड़ी बहुत ही सही, भरपाई कर पाने के लिए कर्मठता सबसे ज़रूरी गुण है. जब रचना न हो पा रही तो अनुवाद किया जाना चाहिये. अनुवाद के मामले में हिन्दी अन्य तमाम भाषाओं से बेहद पिछड़ी हुई है. स्तरीय अनुवादों की भीषण कमी है. जब तक साहित्यकार स्वयं अनुवाद नहीं करते, स्थिति जस की तस बनी रहनी है. इसके अलावा हिन्दी के हर साहित्यकार को कम्प्यूटर का न्यूनतम ज्ञान प्राप्त करने का जतन करना चाहिये. समय के साथ बने रहने के लिये यह एक ज़रूरी औज़ार है. हिन्दी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में जैसा क्रान्तिकारी कार्य हुआ है, उसे एक मिसाल के तौर पर देखे जाने की ज़रूरत है.


प्रत्यक्षा सिन्हा (कथाकार, कहानी-संग्रह 'जंगल का जादू तिल तिल'):

मानवीय गुण अमानवीय गुणों पर भारी पड़ें, सँभावनायें हर क्षेत्र में बनी रहें, सपने देखने का भोलापन बरकरार रहे.

सामाजिक राजनीतिक स्तर में प्रतिबद्धता और उत्तरदायित्व बढ़े, सांस्कृतिक स्तर पर कुछ तोड़फोड़ की उम्मीद रखती हूँ, बने बनाये खाँचों के बाहर, अनदेखे रास्तों पर चलने का दीवानापन दिखे- ऐसी आकांक्षा है.

साहित्यजगत से बहुत भोली उम्मीदें हैं... मन की बेचैनियों का ईमानदार प्रतिवर्तन हो, कुछ अपनी अंतरतम दुनिया में मगन, एक्सर्टर्नल्स की परवाह किये बगैर अपनी रचनात्मकता में धूनी रमायें लोगों का कुनबा हो, अच्छा गंभीर सार्थक लेखन हो, कुछ बच्चे सा भोला उत्साह इन सब को स्फूर्ति देता रहे...बस इतना, इतना ही...


हरेप्रकाश उपाध्याय (कवि, प्रथम कविता संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त और अन्य कवितायें'):

मेरी वर्ष २०१० से पहली उम्मीद तो यही है कि लोग २००९ से सबक लेंगे.

कोई राठौर किसी रुचिका पर हाथ डालने से पहले कम से कम १० बार सोचेगा. कोई नारायण दत्त राजभवन की मर्यादा के बारे में ज्यादा संवेदनशील रहेगा. यानी सत्ता के जोश में लोग होश नहीं खोएंगे आदि, इत्यादि...

बाकी एकदम से तो यह नहीं लगता कि सचमुच का कोई बदलाव एकायक आ जाएगा नए साल में. अदालतें थोड़ी सुस्ती कम करें और बिजली गाँवों में चली जाए...लोग देश में निर्भय होकर कहीं भी आयें-जाएँ...यह सब हो तो कितना अच्छा, पर हो पायेगा क्या?

साहित्य जगत में यह हो कि सम्पादक लोगों का यह भरम टूटे कि साहित्य उनका हरम है...कोई सम्पादक किसी लेखक को अपमानित नहीं करे... नामवर लोग झूठ नहीं बोलें और लोगों का भरोसा बना रहने दें साहित्य पर. चौकी और चौके के जो अलग-अलग मानक हैं वे मिट जाएँ...सुधीशों की बकवास से मुक्ति मिले हिन्दी साहित्य को.

इस साल लेखकों को लिखने के लिए पुरस्कार थोड़ा कम मिलें...थोड़ी सजा मिले ताकि प्रसंग का धुंधलका साफ हो सके.

4 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

जब रचना न हो पा रही तो अनुवाद किया जाना चाहिये. me is baat se sahamat hoo. magar is dour me jise blog ki duniya kahaa jaataa he ynhaa rachnaye he ki rukane ka naam hi nahi le rahi.., jis krantikaari tarah se blogers post kar rahe he..yadi sahi maayane me inme se kuchh bhi anuvaad ki taraf imaandari se soche to HINDI ke liye unka asalo yogdaan manaa jaa sakataa he./ doosare roop me hi sahi magar mene kai baar yaa yu knhu..kitane hi aayojano me yah baat uthaai he../ khud anuvad ki is parampra me vyast bhi hu. kher..


- ji, jaroor har kabaad bekaar nahi hota..aour harek ki kismat me kabaad hona likha he../ isame bhi bahut badaa adhyaatmik darshan he/ sahmat hu/

Asha Joglekar said...

अनुवाद भी विशेष योग्यता मांगता है अनुवाद में भाव और कथ्य बरकरार रहना चाहिये और प्रवाह भी ।

स्वप्नदर्शी said...

मुझे लगता है भविष्य को लेकर हमेशा से हम शंका में जिए है, और इसीलिए भी कि उस पर बहुत कण्ट्रोल हमारा नहीं है, हमें वों डराता है, और कंही न कंही जो निराशाजनक फलक बड़े साहित्यकारों को दिखता है, उससे सहमत नहीं हो पा रही हूँ. इतना ज़रूर है कि ये बहुत तेज़ीसे बदलाव का दौर है, उसे कैसे ठीक से पकडे? ये सवाल भी है. पर सिर्फ निराशा ही हाथ आयेगी, ये भी तो नहीं हो सकता. कम से कम पिछले ३० सालों की तो ठीक से याद है, सन २०१० से बेहतर इनमे से कौन सा साल था? ये सवाल खुद से पूछती हूँ, तो कोई उत्तर नहीं मिलता. फिलहाल किसी भी गुजरे साल में कोई वापस जाने को कहे तो नहीं जाउंगी. और ये सिर्फ किसी व्यक्तिगत परिपेक्ष्य से नहीं कह रही हूँ. सन ८० के बाद से लगातार जो सामाजिक माहौल रहा है, जातिगत, और क्षेत्रीयता के समीकरण जो रास्ट्रीय राजनीती को ख़त्म कर गए है, ले देकर पुराने जाति, लिंग, धर्म और क्षेत्रीयता की जोड़तोड़ से भी कुछ नहीं बदला तो ग्लोबल अर्थनीती, और खुले बाज़ार के रास्ते चलकर अब एक देश में भारत और इंडिया साथ साथ बसता है. कुछ हद तक आज़ादी समाज से सिमटकर जेब में बस गयी है. पहले भी थी, पर पुराने समीकरणों से उसका चोली दामन का साथ था. अब ये टूटा है, तो खींचा तानी चलेगी कुछ और देर. और पूंजीवाद की इस जमीन पर अगर सामती आग्रह भरभरा का गिर भी पड़ते है देर सबेर तो अच्छा ही है.

Ek ziddi dhun said...

Ashok Cheta (kerala men hoon, so Cheta - yahan bade bhai ke liye cheta ya chetan) anuwad khud maulik rachnasheelta ki mang karta hai. Tabhi to Veeren Ji ne itne jeevant anuwad kiye. aur ap khud bhi to ustaad hain