Wednesday, January 20, 2010

उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई



(आप में से कई लोगों ने बचपन में कभी न कभी प्रभातफेरी में "उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई" ज़रूर गाया होगा. इस गीत के रचयिता थे श्री बंशीधर शुक्ल. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के रहने वाले शुक्ल जी का यह गीत राजेन्द्र सिंह बेदी ने अपनी फ़िल्म ’आंखिन देखी’ में इस्तेमाल किया था. मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाया था इस कालजयी नग्मे को और जे.पी. कौशिक ने संगीतबद्ध किया था. शुक्ल जी के बारे में हमारे कबाड़ी साथी योगेश्वर सुयाल ने मुझे उनके बारे में एक मेल काफ़ी अर्सा पहले भेजी थी. मैं उस मेल को एक पोस्ट की सूरत में लगाना चाहता था लेकिन कुछ मेरा कुछ योगेश्वर भाई का आलस्य - यह काम हो न सका.

आज अभी भोपाल से योगेश्वर ने फ़ोन पर इत्तला दी कि आज यानी बसन्त पंचमी को बंशीधर शुक्ल जी का जन्मदिन पड़ता है. लीजिये आप भी जानिये उनके बारे में. उन्हें नमन. आलेख योगेश्वर सुयाल का है. वैसे योगेश्वर बाबू ने शुक्ल जी पर एक लम्बी पोस्ट लगाना अभी बाक़ी है.)


बात पुरानी ही है. तीस साल पहले की. तब, जब दादाजी भी थे. उनकी सुबहें अक्सर इसी गीत से होती थीं. मगर याद तो उन्हें भी नहीं रहा होगा पूरा. वह पहली चार पंक्तियां गाते-गाते चारपाई और चौखट छोड़कर बाहर निकल जाया करते थे. उस समय हम सोये होते थे. बरसों हो गए, यह गीत नहीं सुना.

दफ़्तर से निकलते ही एक रात अचानक शहामतगंज के एक नुक्कड़ पर लखनऊ के पत्रकार बन्धु संजय त्रिपाठी से गप्शप हो रही थी कि एक बन्दा गाता चला जा रहा था. उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई ... हमारे लिए रात ही थी मगर उसके लिए भोर. गीत के साथ दादाजी भी याद आ गए ... बरसों बाद.

चीत पर चर्चा चला तो संजय भी चहक उठे - "देखा भाईसाहब! खीरी में लिखे गीत आज भी हिन्दुस्तान गा रहा है."

"इस गीत का खीरी से क्या मतलब भाई?"

तभी पता चला कि अवधी के कवि बंशीधर शुक्ल इसके जनक हैं. खीरी के निवासी. गीत संजय को भी याद नहीं था मगर इस चपल पत्रकार ने दूसरे ही दिन कविवर शुक्ल के घर से पूरा संग्रह मंगवा लिया.

आज़ादी के बाद विधायक भी रहे बंशीधर शुक्ल जी अस्सी के दशक में गुज़र गए थे. तीन साल पहले उनकी जन्मशती भी चुपचाप चली गई. गांधी और सुभाष ने जिस कवि के गीतों से आज़ादी की अलख जगाई, सुदूर गुजरात से गढ़वाल तक गाया गया. वो भी उस दौर में, उस स्रष्टा से हम अनजान ही थे.

बताते है साबरमती आश्रम की सुबह आज भी इसी गीत से होती है. बहुत कम लोग जानते होंगे कि आज़ाद हिन्द फ़ौज का तराना - कदम कदम बढ़ाए जा - भी इसी कवि की लेखनी से निकला था.

यूं कहना चाहिये - कवि के लिखे गीत को सुभाष ने आज़ादी के तराने के रूप में चुना.



उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई
अब रैन कहां तू सोवत है.
जो सोवत है सो खोवत है
जो जाफ़त है सो पावत है

टुक नींद से अंखियां खोल ज़रा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीत करन की रीत नहीं
जग जागत है तू सोवत है

जो काल करे सो आज कर ले
जो आज करे सो अब कर ले
जब चिड़ियां खेती चुग डाली
फिर पछताए क्या होवत है

अब जाग जगत की देख उड़न
जग जागा तेरे बन्द नयन
यह जग जागृति का मेला है
तू नींद की गठरी ढोवत है

है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न ज़रा
अब सारी दुनिया जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है.

उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई
अब रैन कहां तू सोवत है.

4 comments:

अजित वडनेरकर said...

ये गीत तो हमें भी प्रिय रहा है। योगेश्वर बाबू ने बड़ी उम्दा जानकारी दी। आपको बता दें कि इसका पहला बंद पंडित जसराज की आवाज़ में हमने सुना है। राग भैरव में निबद्ध इस रचना को हम उन्ही की बंदिश में अक्सर गुनगुना लेते हैं। बंशीधर जी का नाम इस अमर रचना से जुड़ा है, यह पहली बार पता चला।

आपने योगेश्वरजी के नाम के साथ दत्त नहीं जोड़ा इसलिए वे ख़फ़ा हैं। कृपया ध्यान रखें।

समयचक्र said...

सुंदर रचना
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाये ओर बधाई आप को .

Ashok Pande said...

जो हुकुम जिल्लेसुभानी वडनेरकर जनाब! मगर दत्त ना बोलूं कभी!

अजित वडनेरकर said...

अशोक पांडे हठीला!!!!