Saturday, January 23, 2010

साल २०१०: साहित्यिक साजिशों का नाश चाहता हूँ मैं- योगेन्द्र आहूजा

शेक्सपियर ने 'मैकबेथ' के पांचवें और आख़िरी एक्ट के पहले ही सीन में लेडी मैकबेथ से कहलवाया था- What's done cannot be undone.' जैसा कि हमने घोषणा कर दी थी साहित्यकारों वाली रायशुमारी समाप्त करने की. लेकिन उसके बाद हमें ई-मेल के जरिये राय मिली महत्वपूर्ण कथाकार योगेन्द्र आहूजा की. सो हमने उन्हें शामिल करने के लिए इस डन को अनडन कर दिया है:) - विजयशंकर


योगेन्द्र आहूजा (कथाकार):

इतिहास की गति और प्रक्रिया को इतना अवश्य जानता-समझता हूं कि मानव जाति के बेहतर भविष्य में यकीन रख सकूं. लेकिन यदि केवल इस वर्ष की बात करनी हो तो मुझे कोई खास उम्मीदें नहीं- बेशक तमन्नायें और ख्वाहिशें, ऐसी कि उनमें से हर एक पर `दम निकले', तमाम हैं.

जानता हूं कि इस देश के अधिसंख्य के हिस्से में आयी गरीबी और अन्याय का सिलसिला इस बरस भी जारी रहेगा. सामान्यजन के जीवन में लज्जा और अपमान का ढेर लगता रहेगा. करोड़ों भूखे या आधे पेट सोते रहेंगे. विजातीय प्रेमियों में से कुछ शायद इस बरस भी पेड़ों पर लटकाये जायें, बाकायदा पंचायतों के द्वारा फैसला दिया जाकर. कुछ और टी वी बाबा प्रकट होंगे और उनके प्रवचनों में भीड़ पहले से ज्यादा होगी. मन्दिरों से सर्वदा की तरह चप्पलें चोरी होती रहेंगी. अत्याचारियों के धंधे जारी रहेंगे. किसानों की आत्महत्यायें थमेंगी या लोगों का अपने घरों और ज़मीनों से बेदखल किया जाना रुकेगा, इसके कोई संकेत नहीं. झूठ, पाशविकता, बेइंसाफी और उत्पीड़न में इस बरस भी इजाफा होगा. लेकिन इन सबके साथ निशंक रूप से यह भी जानता हूं कि उत्पीड़ित तबकों की लड़ाइयां जारी रहेंगी और हर दिन प्रखरतर होंगी.

आपने उम्मीदों के बारे में जानना चाहा है, इसलिये तमन्नाओं का जिक्र यहां असंगत होगा, फिर भी सिर्फ एक. . . चाहता हूं कि यह बरस इस देश के किसी भी हिस्से या कोने में सामान्यजन की कोई एक विजय, कोई छोटी सी जीत दिखा सके.

हमारी हिन्दी में अब बौद्धिक, वैचारिक, अवधारणापरक बहसें नहीं होतीं. उनकी जगह गासिप्स ने ले ली है. साहित्यिक अवधारणाओं और सौन्दर्य संबधी मूल्य दृष्टियों की लड़ाइयां थम गई हैं. सारे विचारों में लगता है एका हो चुका है, वे मंच पर गलबहियां डाले नज़र आते हैं. नतीजा यह हुआ है कि रचनाओं की परख और मूल्यांकन के मानदण्ड धुंधले पड़ गये हैं . हम देखते हैं एक छोर पर सस्ती, आसान, तर्करहित प्रशंसायें और दूसरे पर विरोधियों को नेस्तनाबूद कर देने, उनका वंशनाश कर डालने की मुद्रायें. अब बहसें नहीं होतीं, सीधे हमले होते हैं. आलोचना के नाम पर निशंक भाव से निर्णय देने और किन्हीं काल्पनिक सूचियों में नामों को ऊपर नीचे या दाख़िल ख़ारिज करने का जो एक सस्ता, निरर्थक, अश्लील खेल जारी है, मैं उसका नाश चाहता हूं.

एक सचेत कोशिश जारी है ऐसी रचनाओं को प्रतिष्ठापित करने की जिनमें कोई चिन्ता न हो, विचार न हो, कोई पक्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो और वे महज लफ़्ज़ों का खेल हों. मैं ऐसी कोशिशों और साजिशों का भी नाश चाहता हूँ.
साफ पोजीशन लेने से बचना और केवल हवाई किस्म की गोल मोल, अमूर्त और बेमतलब मानवीयता से काम चलाना, यह दरअसल आततायियों के पक्ष में जाता है. वे यही तो चाहते हैं. स्पेन के महान फिल्मकार लुई बुनुअल की साफ उद्घोषणा थी कि उनके सारे कृतित्व का एकमात्र उद्देश्य रहा है 'शक्तिशालियों के आत्मविश्वास में छेद करना'.

चाहता हूं कि हमारे वक्त की रचनायें अपने वक्त का केवल बयान न करें, बल्कि स्पष्टतः अपना पक्ष बतायें. उनमें सवाल हों, सपने हों, क्रोध और विरोध हो. साफ पोजीशन लेने से बचना और केवल हवाई किस्म की गोल मोल, अमूर्त और बेमतलब मानवीयता से काम चलाना, यह दरअसल आततायियों के पक्ष में जाता है. वे यही तो चाहते हैं. स्पेन के महान फिल्मकार लुई बुनुअल की साफ उद्घोषणा थी कि उनके सारे कृतित्व का एकमात्र उद्देश्य रहा है 'शक्तिशालियों के आत्मविश्वास में छेद करना'. उसके बरक्स हिन्दी में नामचीनों की बाडी लैंग्वेज जरा देखें - पावर और सत्ता के सामने हमेशा विनत, नतमस्तक. हर साल की तरह इस बरस भी अच्छी बुरी रचनायें आयेंगी, लेकिन चाहता हूं कि इस साल में हमारे शीर्ष लेखक, आलोचक और विचारक कम से कम इरैक्ट चलना सीख सकें.

धन्यवाद!

5 comments:

कामता प्रसाद said...

शक्तिशालियों के आत्‍मविश्‍वास में छेद कर सकें मेरी रचनाएं और मेरा जीवन यह ख्‍वाहिश होनी ही चाहिए भाई। रोजमर्रा के व्‍यवहार में भी यही दिखना चाहिए। योगेंद्र आहूजा जी को सलाम और विजय भाई का आभार।

Ek ziddi dhun said...

अनडन न होता तो बुरा होता. योगेन्द्र आहूजा को पढ़ना हमेशा achha anubhav होता है. विचार से सबसे ज्यादा डर इन दिनों उन लेखकों को ज्यादा है जो कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के ढ़ोल पीटते थे. ऐसे लोग प्रतिबद्धता का सवाल उठाने को और मंचों पर फासिस्टों से गलबहियां किये जाने पर सवाल करने पर नाराज होते हैं. इन लोगों की संख्या इतनी है कि लेखक संगठन इनसे ही भरे लगते हैं. आलोचकों की सूची वाली बात भी कड़वा सच है. कई बेहद अच्छे लेखक भी इस खेल में शामिल हैं. उन्हें शायद लगता है कि रचना नहीं यही खेल अमरता दिखायेगा. एक अच्छी पोस्ट पर इतनी लम्बी बकवास करने के लिए माफी

आशुतोष कुमार said...

शीर्ष लेखक कम -अज -कम तन कर चलना सीख लें! क्या बात है! इस साल इतना ही होजाए िक आम लेखक ही तन कर खडा हो जाए , पुरस्कारों की माया और देव-पिताओं की छाया से छुटकारा पा जाये तो भी हिंदी में युगपरिवर्तन की shu रुआत हो जाये.

Unknown said...

Ashok bhaii apni tippanee kyun pass nahi9 ki is post par..

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

सबको साधु-संतवाद!