Thursday, January 21, 2010

साल २०१०: कायम रहे अंधेरे से जंग का हौसला- अरुण आदित्य

साल २०१० और उसके आगे के समय की पड़ताल करने को लेकर साहित्यकारों से हुई बातचीत की यह आख़िरी कड़ी है. यह श्रृंखला इस मायने में सार्थक कही जा सकती है कि हमारी निजी और तकनीकी सीमाओं के बावजूद जितने महत्वपूर्ण कवि, कथाकार, नाटककार,आलोचक, अनुवादक, व्यंग्यकार शामिल हुए उन्होंने मोटा-मोटी आशा-निराशा की धुरी से हटकर भी वर्त्तमान और भविष्य की नब्ज टटोलने की कोशिश की. हम इनके बेहद आभारी हैं और ह्रदय की गहराइयों से इन सबका धन्यवाद करते हैं. पाठकों की टिप्पणियाँ और उनकी इस रायशुमारी में शिरकत उनकी सदाशयता का द्योतक है. साहित्यकारों का क्रम पहले हुई बातचीत के आधार पर बनता चला गया. किसी को किसी की राय से रंच मात्र भी ठेस पहुँची हो तो हम क्षमा माँगते हैं क्योंकि यह उद्देश्य नहीं था. उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप सब इसी तरह स्नेह बनाए रखेंगे- विजयशंकर

अरुण आदित्य (कवि):

आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर
नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात
नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर
वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥


कालिदास ने मेघदूतम् की उपर्युक्त पंक्तियों में जिस तरह के लोक-काल की कल्पना की है, जहां आनंदाश्रुओं के सिवाय कोई आंसू न हो, वैसी कोई कल्पना नए वर्ष के संदर्भ में कर पाना आज मुश्किल लगता है. हम सब जानते हैं कि वर्ष बदल जाने से कुछ नहीं बदला है. दीवार वही है, जिस पर कैलेंडर नया टांग दिया गया है. पिछले साल ने दरकी हुई दीवार विरासत में दी है, अब हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि अगली जनवरी में जब एक और नया कैलेंडर टांगने की बारी आए तो दीवार वैसी ही न रहे, जैसी अभी है. इस वर्ष भले ही नई दीवार न बना सकें, लेकिन कम से कम पुरानी दीवार की मरम्मत तो करा ही सकें.

अमेरिका बदल जाएगा या ओसामा सुधर जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं कर सकते, पर इनके इरादों के सामने डटकर खड़े रहने का जज्बा जिंदा रहे, यह स्वप्न तो देखा ही जा सकता है. आसमान में दहकता हुआ नए वर्ष का नया सूरज पूरी दुनिया को अपनी रोशनी से लालम-लाल कर देगा, इसकी उम्मीद नहीं है फिर भी उससे इतनी उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वह अंधेरे से जंग का अपना हौसला तो बनाए ही रखेगा.

साहित्य में रचनाधर्मिता पर विवाद हावी नहीं होंगे, पुरस्कारों में जोड़-तोड़ नहीं होगी, यह उम्मीद तो नहीं कर सकते, लेकिन इन सब के बीच कभी-कभी सच्ची रचनाओं और रचनाकारों को भी पहचाना जाता रहेगा, यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं. उम्मीद है कि गत वर्ष की तरह इस वर्ष भी पकी हुई पीढ़ी के थके हुए लोग सुविधाओं की सेज पर आराम फरमाते रहेंगे. उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है. वैसे भी उस पीढ़ी के लोग सुनने से ज्यादा सुनाने में यकीन रखते हैं. हां, देश के बच्चों से मुझे अब भी उम्मीद है और उन्हें मैं कवि मंगलेश डबराल की इन काव्य-पंक्तियों को संदेश रूप में देना चाहता हूं:

‘प्यारे बच्चो जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हँसी की तरह फैले हो.
जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिडिय़ों की तरह फडफ़ड़ाते हो.
जैसा कि कुछ कवियों ने कहा है जीवन एक उछलती गेंद है और
तुम उसके चारो ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो.
प्यारे बच्चो अगर ऐसा नहीं है तो होना चाहिए.’


जानता हूं कि 'ऐसा नहीं है तो होना चाहिए' एक कठिन कामना है. पर इस कठिन समय में कुछ कठिन कामनाएं भी तो करनी ही होंगी… और अगर यह उम्मीद भी ‘आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर’ जैसी कुछ कठिन लग रही हो तो इतनी उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि कि भले ही वैसी व्यवस्था न निर्मित हो सके, कम से कम इतना तो हो जाए कि हरि मृदुल जैसे किसी युवा कवि को फिर से यह न लिखना पड़े कि-

‘अव्वल तो काम मिलना कठिन
काम मिल गया तो टिकना कठिन
टिक गए तो काम कर पाना कठिन
किसी तरह काम कर पाए तो
वाजिब मेहनताना कठिन.’


नए साल से यह कोई बहुत बड़ी उम्मीद तो नहीं है न!


सूरज प्रकाश (वरिष्ठ कथाकार, अनुवादक):

आज के वक्त की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि भाग-दौड़, आपा-धापी और तकनीकी उन्नयन के नाम पर अंधी दौड़ और तथाकथित टार्गेट के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है दुनिया भर में...और ख़ास तौर पर भारत में, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है. उसे कोई नहीं पूछ रहा जबकि सारे के सारे नाटक उसी के नाम पर, उसी के हित के नाम पर और उसी की जेब काट कर हो रहे हैं. सारे महानगर ऐसे लाखों लोगों से भरे पड़े हैं जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना, एक गिलास पानी जुटाना और एक कप चाय जुटाना तक मुहाल हो रहा है़
आम आदमी से सब कुछ छीन लिया गया है- पीने का पानी तक. कई बार चौराहों पर बेचारगी से घूमते गांववासियों को देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं कि बेचारा गांव की तकलीफों, बेरोजगारी, भुखमरी और जहालत से भाग कर यहां आया है तो उसे एक गिलास पानी पीने के लिए और एक कप चाय पीने के लिए कितने लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा! उस भले आदमी से उसका चेहरा ही छीन लिया गया है.

ये सब हुआ है जीवन के हर क्षेत्र में आये अवमूल्यन के कारण. जब तक इस देश में हत्यारे मुख्यमंत्री बनते रहेंगे और रिश्वतखोर केंद्रीय मंत्री, हम कैसे उम्मीद करें कि एक ही साल में कोई क्रांतिकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक अथवा राजनीतिक स्तर पर कोई तब्दीलियाँ होंगी.

बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है. मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और कहीं से आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशन में डाल देंगे. हर आदमी यही करता है और सारे नोट जेबों में चले जाते हैं और बेचारे पुराने नोट जस के तस सर्कुलेशन में बने रहते हैं, बल्कि इनमें लोगों की जेब से निकले पुराने नोट भी शामिल हो जाते हैं. आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है. कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते. आज हमारे आस-पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है. हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं. साहित्य में ये सबसे ज्यादा हो रहा है. पाले-पोसे घटिया लेखक, उनकी किताबें और उनके रुतबे ही सर्कुलेशन में हैं. हम ही जानते हैं कि एक-एक घटिया किताब के छपने पर कितने पेड़ों को बलि देनी पड़ती है.

हम ही देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे.


विभा रानी (कथाकार, नाटककार, रंगकर्मी, अनुवादक):

नए साल में मेरी आशाएं बहुत अधिक नहीं हैं. सबसे पहली आशा तो अपने साहित्यकार बन्धुओं से ही है कि वे आपस की मारामारी छोड़कर साहित्य और समाज के लिए कुछ सोचें. अपने ही लेखन को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों के लेखन को निहायत घटिया न मानें. अपनी साहित्यिक गैर ज़िम्मेदारियों से बाज़ आएं. अगर वे ऐसा कर लेंगे तो निश्चय ही साहित्य और इसके माध्यम से समाज और साहित्य के पाठकों का बड़ा भला होगा. बस इतनी सी ही आशा है. धन्यवाद.

निरंजन श्रोत्रिय (कवि-कथाकार): साल २०१० हमारे लिए वह सब लेकर आये जिसके हम हकदार हैं. साहित्य, संस्कृति और राजनीति में लगातार हो रही गिरावट रुके.

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर अंकुश लगे और वह सब न हो जो हो रहा है और जिसे नहीं होना चाहिए था.

दरअसल आज की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि जो जिसके लायक है उसे वह नहीं मिल रहा है. हर जगह भृष्टाचार, चापलूसी और मक्कारी है. साहित्य, राजनीति, खेल, अर्थ सभी जगह. नया साल हमें इन सभी से मुक्ति दिलाए. कम से कम कोशिश तो शुरू हो.

एक समय था जब साहित्य, कला, संस्कृति कलाकार से पूर्णकालिक साधना की माँग करती थी. अब सब जगह नेटवर्किंग और मैनेजमेंट है. सब कुछ प्रायोजित. यदि नया साल संस्कृतिकर्मी की पहचान लौटा सके तो यह हमारे समय क़ी बड़ी उपलब्धि होगी.

विजय गौड़ (कवि, हालिया कविता संग्रह 'सबसे ठीक नदी का रास्ता'):
साल २०१० हो या निकट भविष्य का अगला समय, तय है कि दुनिया के बुनियादी चरित्र के बदलाव; जिसमें न कोई शोषित हो न शासित यानी सत्ताविहीन समाज का समय आने से पूर्व के कई जरूरी चरणों से गुजरना होगा. साल २०१० उस तरह के बदलावों को गति देने में एक अहम बिंदु हो यह उम्मीद करना चाहता हूं. लेकिन जानता हूं कि सिर्फ़ उम्मीदें पालने से कुछ हो नहीं सकता.

2 comments:

Ashok Pande said...

बहुत अच्छी सीरीज़ चलाई आप ने विजय भाई. आप साधुवाद के पात्र हैं.

प्रीतीश बारहठ said...

विजय जी का शुक्रिया !