Tuesday, July 14, 2009

ये सूरत बदलनी चाहिए...

(मुझे खुशी है कि मैं गलत साबित हुआ। हिंदी में गलत को गलत कहने वाले वीरों की कोई कमी नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण नीचे का विरोधपत्र है। हिंदी के 50 से ज्यादा महत्वपूर्ण लेखकों ने योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होने के लिए उदयप्रकाश की निंदा की है। नीचे हस्ताक्षर करने वाले कुछ लेखकों ने सक्रियता दिखाते हुए बाकी लेखकों से टेलीफोन पर विरोधपत्र जारी करने पर सहमति ली है। क्या उदय प्रकाश अब भी कहेंगे कि उनकी आलोचना जातिवादी फासीवादियों की साजिश का नतीजा है...)



विरोध-पत्र
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हमें इस घटना से गहरा आघात पहुँचा है कि कुछ दिन पहले हिन्दी के प्रतिष्ठित और लोकप्रिय साहित्यकार उदय प्रकाश ने गोरखपुर में पहला " कुँवर नरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति सम्मान " योगी आदित्यनाथ जैसे कट्टर हिन्दुत्ववादी , सामन्ती और साम्प्रदायिक सांसद के हाथों से ग्रहण किया है , जो ' उत्तर प्रदेश को गुजरात बना देना है ' जैसे फ़ासीवादी बयानों के लिए कुख्यात रहे हैं . हम अपने लेखकों से एक ज़िम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं और इस घटना के प्रति सख्त-से-सख्त शब्दों में
अपनी नाखुशी और विरोध दर्ज करते हैं .

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ज्ञानरंजन ,
विद्यासागर नौटियाल ,
विष्णु खरे ,
मैनेजर पाण्डेय ,
लीलाधर जगूड़ी,
भगवत रावत ,
राजेन्द्र कुमार ,
राजेन्द्र राव ,
चंचल चौहान ,
आनंदस्वरूप वर्मा
पंकज बिष्ट ,
इब्बार रब्बी ,
नीलाभ ,
वीरेन डंगवाल ,
आलोक धन्वा,
मंगलेश डबराल ,
त्रिनेत्र जोशी,
मनीषा पाण्डेय,
रविभूषण ,
प्रदीप सक्सेना ,
अजय सिंह ,
जवरीमल्ल पारख ,
वाचस्पति ,
अतुल शर्मा,
विजय राय ,
मनमोहन
असद ज़ैदी ,
मदन कश्यप ,
रवीन्द्र त्रिपाठी ,
नवीन जोशी,
अजेय कुमार ,
वीरेन्द्र यादव ,
कुमार अम्बुज
देवीप्रसाद मिश्र ,
कात्यायनी ,
निर्मला गर्ग ,
अनीता वर्मा ,
योगेन्द्र आहूजा ,
शुभा,
बोधिसत्व,
संजय खाती ,
नवीन कुमार नैथानी ,
कृष्णबिहारी ,
विनोद श्रीवास्तव ,
प्रणय कृष्ण ,
राजेश सकलानी ,
इरफ़ान,
मुनीश शर्मा,
विजय गौड़ ,
आशुतोष कुमार ,
मनोज सिंह
सुन्दर चन्द ठाकुर ,
नीलेश रघुवंशी ,
आर. चेतनक्रान्ति ,
पंकज चतुर्वेदी ,
शिरीष कुमार मौर्य ,
रामाज्ञा शशिधर ,
प्रियम अंकित ,
अंशुल त्रिपाठी ,
प्रेमशंकर ,
मृत्युंजय ,
धीरेश सैनी ,
अनुराग वत्स ,
व्योमेश शुक्ल .
रविकांत

25 comments:

नई पीढ़ी said...

'नई पीढी' भी इस बात का कदा विरोध जताई है की उदय प्रकाश जैसे लोग एक न केवल साम्प्रदायिक बल्कि कई कत्ले आम की जिम्मेदार व्यक्ति से 'सम्मान' ग्रहण करें. उन्हें सम्मानित होने का इतना ही शौक है तो कम से कम ये तो देख लेते की किस भेडिये के हाथों उनका सम्मान हो रहा है.

विजय प्रताप said...

ये क्या हुआ....
हिंदी के लेखक कवियों का सम्मान का स्तर इतन गिर गया है की वो खुद को हत्यारों के तों सौंप दे. शर्मनाक !

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

गौतम बुद्ध जब ऊँगलीमाल से मिले तब कहीं आप लोग होते उस समय बुद्ध का क्या करते .

स्वप्नदर्शी said...

I am shocked to see that how much "gutbaazi" is going on in name of sahitya. I hoped to learn "tolerance" from the section of intelligentsia known as "saahityakaar". And it is very clear to what extent people in this community can go to malign each other.
But this issue of Mr Uday Prakash does not need so much stretching. This blog has used equally abusive tone for him. This is not a revolution, and has nothing to do with any value.

विजय प्रताप said...

बुद्ध (उदय प्रकाश) उंगलीमाल (मुस्लिममार) से अपने ज्ञान का प्रमाणपत्र लेने गए थे क्या?

बोधिसत्व said...

मैं उदय प्रकाश जी से यह उम्मीद नहीं रखता था। इसलिए इस दुर्घटना की निंदा करता हूँ और
अपनी नाखुशी और विरोध दर्ज करता हूँ। .

संदीप said...

लेखकों के अलावा साधारण पाठकों की ओर से भी कोई विरोधपत्र जैसा कुछ तैयार किया जाए तो उसपर हस्‍ताक्षर करने वालों में मेरा नाम भी शामिल करें।
कुछ लोगों को यह गुटबाजी लग रही है, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता, फिर भी उन्‍हीं की बात को मान लिया जाये तो भी यह ज़रूर सोचना चाहिये कि जिस चीज या विचार का विरोध हो रहा है वह सही है या गलत और यदि गलत है तो आपको भी विरोध में शामिल होना चाहिए। किसी के साथ आने में आपत्ति हो, तो अलग से ही विरोध कीजिए, लेकिन कीजिए जरूर। क्‍योंकि अब और सन्‍नाटा या तटस्‍थता घातक होगी।
हालांकि, यह बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि कबाड़खाना के साथियों ने उदयप्रकाश द्वारा भोगी के हाथों सम्‍मान लेने का जो विरोध किया है,उसका दायरा बढ़ाएं और फासीवाद के खिलाफ भी व्‍यापक एकजुटता दिखाएं। वरना, सबको यही लगेगा कि यह विरोध केवल व्‍यक्तिगत द्वेष के कारण हो रहा है।

अभिषेक मिश्रा said...

लेखकों की इस घोषणा का स्वागत है.

मुनीश ( munish ) said...

साहित्य से मेरा नाता जो है वो एक उपभोक्ता का है ,महज़ पढने वाले का और अब तो वो भी ...खैर छोडिये ! क्या रक्खा है इन बातों में बिन चंदा की रातों में. बहरहाल , यहाँ एक नाम विजय गौड़ का देखता हूँ ! ये शख्स अभी अभी जन्स्कार जैसे दुर्गम क्षेत्र से लौटा है ..उसके यात्रा वृत्त पढ़े हैं मैंने . अब यदि ऐसा आदमी कुछ कह रहा है तो क्या कहें --'महाजने गतः येन सः पन्थः ', लिखिए जी मेरा भी नाम इन विरोधियों के समर्थकों में .

मुनीश ( munish ) said...

दो बार लिखिए हमारा नाम ! एक पाठक के तौर पे दूसरा नागरिक के तौर पे!

Unknown said...

उदय प्रकाश ने योगी के हाथों पुरस्कार लेकर गलत किया या सही किया, इस पर अगर बहुत गंभीरता से बात करें तो बात लंबी जाएगी.

इस सूची में ऐसे बहुत से नाम हैं, जिनके बारे में लिखा जाए तो वो उदय प्रकाश के सामने ज्यादा बड़े गुनाहगार नज़र आएंगे. इमरजेंसी में जब लाखों लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा था, तब इंदिरा गांधी के गुणगान करने वाले क्या बताएंगे कि सांप्रदायिकाता ज्यादा बड़ा खतरा होता है कि साम्राज्यवाद ? उनकी प्रशस्ती में कविताएं लिखने वालों को उदय प्रकाश के बारे में टिप्पणी का क्या हक है. इनमें से कई नाम 1984 में लाखों सिखों का वध करने वाले कांग्रेसियों के हाथों से सम्मानित होते और उनके सम्मान में कसीदे काढ़ने वालों के भी हैं. खून से सने हाथों वाले लोगों के तलवे चाटने वाले कथित प्रगतिशिलियों की तो एक लंबी फेहरीस्त है. अमरीकी पैसे से अनुवाद करने, विदेश घूमने और अमरीकी पैसे के लिए जीभ लपलपाने वाले बताएंगे कि योगी ज्यादा खतरनाक है या इराक, इरान, अफगानिस्तान में खून की नदियां बहाने वाली अमरीका. तो फिर योगी को लेकर इतना सयापा क्यों ?

अगर इच्छा हो औऱ इसे ज़रुरी समझें तो कभी इस पर भी बहस चलवाइए.

Anshu Mali Rastogi said...

इस विरोध और लताड़ में मेरा भी नाम शामिल करें। हां अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हिंदी के साहित्यकार की लार हर वक्त सिर्फ पुरस्कार और सम्मान के लिए ही टपकती रहती है। दरअसल ये साहित्य की नहीं केवल अपनी सेवा कर रहे हैं।

Unknown said...

हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ लेखकों-पत्रकारों द्वारा जारी की गयी विज्ञप्ति के विरुद्ध हिमांशु जी ने जो बकवास की है, उसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं.

पहली बात : उन्होंने अपनी बात कांग्रेस, इमरजेंसी और अमरीका तक सीमित रखी है, संघ परिवार का नाम लेते उन्हें शर्म लगती है! साम्प्रदायिक उद्योग तो जैसे संघियों का धंधा ही नहीं है! गुजरात, उडीसा में तो कुछ हुआ ही नहीं!! इससे हिमांशुजी की राजनीतिक सहानुभूतियों का अनुमान हो जाता है. वह भगवा गिरोह के छुटभैये ही हैं.

दूसरी गौर करने लायक चीज है "१९८४ में लाखों सिखों का वध" वाली दिलचस्प चूक. महाशय, ये "वध" नहीं, हत्याएं थीं. १९८४ में "लाखों" नहीं हज़ारों सिखों की ह्त्या की गयी थी (करीब छः-सात हज़ार; लाखों का दावा पहली बार सुनाने में आ रहा है). हत्यारे गिरोहों में कांग्रेसियों और संघ परिवार वालों का बराबर का साझा था. हिमांशुजी ने इन हत्याओं को ह्त्या नहीं "वध" कहकर फ्रायादियाँ चूक का प्रदर्शन कर दिया है. क्या वह नहीं जानते कि वध शब्द का प्रयोग केवल असुरों, दैत्यों, राक्षसों, भयंकर खलनायकों के कतल के लिए किया जाता है, वह भी तब जब कि कतल करने वाली शक्ति 'सत्य' और 'नीति' की प्रतीक हो. तो श्रीमान, "सिखों का वध" कहकर आपने अपना चरित्र उजागर कर दिया है. आप शायद सिखों की ह्त्या करने वाले कुनबे के हैं, और आपने ज़रूर इन हत्याओं की खुशी में मिठाई बाँटीं होगी. बहुत वर्षों तक नाथूराम गोडसे के प्रशंसक और जनसंघी लोग गांधी-ह्त्या को गांधी-वध ही कहा करते थे.

मेरे दो प्रश्न हैं : १. पंकज श्रीवास्तव जी, अशोक पांडे जी, कबाड़खाना पर ये निक्करधारी सियार क्या कर रहे हैं? २. उदय प्रकाश जी, क्या आपके पास अब हिमांशु जी जैसे मित्र ही बचे हैं?

कृपया उत्तर दें.

सुनील राय

विजय गौड़ said...

मुनीश भाई आपके प्रेम ने मेरी जिम्मेदारी और बढा दी है और लगातर सचेत रहते हुए मुझे हमेशा ऎसी प्रव्रतियों के विरोध में रहने का हौसला दिया है। मैं व्यक्तिगत तौर पर उदयप्रकाश जी के विरोध में नहीं बल्कि उस प्रव्रत्ति के खिलाफ़ हूं जो उसी रिपोर्ट में एक और नाम के रूप में दिखाई देती है यदि यह खबर भी सच है तो - "इस समारोह में हिंदी के एक और प्रतिष्ठित साहित्यकार परमानंद श्रीवास्तव भी सुशोभित थे। जो उदय प्रकाश ने अब किया वह परमानंद बहुत पहले कर चुके हैं। कोई चार-पांच साल पहले राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख नेता एवं गोरक्षपीठ के महंत अवैद्यनाथ ने गोरखपुर के नवरत्नों का सम्मान किया था, तब स्थानीय कलक्टर के साथ परमानंद भी सम्मानित ही नही हुए थे उन्होंने महंत की चरण रज माथे से लगाकर अपना आभार ज्ञापन भी किया था।"

Unknown said...

मुझे बचपन से गिनती करना अच्छा लगता है. आज कबाड़खाने पर उदयप्रकाश के कुकर्म की आलोचना करने वाले लेखकों के नाम गिने. इन ५७ लेखकों को नमन करती हूँ. राजरानी तँवर

Unknown said...

उदय प्रकाश जैसे प्रगतिशील लेखक को अपने किये पर कुछ तो लज्जा आनी चाहिए. इसके बिना कोई उनका पक्ष लेना चाहे तो भी कैसे ले?

हम उदय प्रकाश की कहानियां भले ही पढ़ते रहें, हिटलर को तो कभी वोट नहीं देंगे, न ही उनसे तमगा लेने जाएंगे. ये हिटलरी लोग उनका उपयोग करेंगे, और काम निकल जाने पर उन्हें फ़ेंक देंगे. फिर हम ऐसी चुसी हुयी ईख का क्या करेंगे?

उदय प्रकाश को अपनी अंतरात्मा में झाँक कर देखना चाहिए. बहुत दूर निकल आये हैं आप साथी!

Unknown said...

जो आपको न सुहाये, जो आपके पक्ष में न खड़ा हो, उसे संघी कह कर गालियां बक कर प्रगतिशील कहलाना पुराना तरीका है सुनील.संघ की हरकतों को लेकर आपको शक है, इसलिए आप बार-बार उसे दुहरा कर अपने को आश्वस्त कर लेना चाहते हैं. वरना तो हमारे जैसे लोग संघ को अच्छे से पहचानते हैं. दूसरा ये कि यहां संघ की लानत-मलामत पहले से ही हो रही थी, इसलिए मैंने संघ को छोड़कर दूसरा पक्ष रखा कि भैया ये जो लोग हुआं-हुआ कर रहे हैं, उनकी पैंट भी उतार कर देख लो, नीचे वैसी ही कोई हाफ पैंट या अमरीकी झंडा वाला अंडरवियर निकलेगा.

अपना शब्द ज्ञान थोड़ा ठीक करें सुनील जी. लगता है आप भी संघियों से ही शब्द उधार लेते हैं और आपके दिमाग में भी पूतना वध और जरासंध वध घूम रहे हैं. समानांतर कोष उलट लें या कोई भी अच्छी डिक्शनरी.

औऱ आपने भी इमरजेंसी और अमरीकी पैसे पर पलने वालों को लेकर चुप्पी साध ली. इसे कहते हैं नई प्रगतिशीलता. जो अपने मनमाफिक हो,उस पर हंगामा खड़ा कर दो और जो मुद्दा हो उस पर दम साध लो.

मैं आपकी उम्र नहीं जानता लेकिन मैं मानता हूं कि मेरी तरह 82 की उम्र में तो आप नहीं ही होंगे. ऐसे में अनुजवात मानते हुए मैं आपको 'संघी' जैसी गाली के जवाब में कोई विशेषण तो नहीं दे सकता, लेकिन एक सुझाव जरुर है कि किसी को गाली बक कर कभी भी कोई महान नहीं हुआ है, आप भी नहीं हो सकते.

rishi upadhyay said...

Jai hind mahaanubhaavon...!!mai kabaadkhaana ka ek niyamit paathak hun...kai dinon ki bahas se man kadua hotaa jaaraha hai.. isiliye do shab kahne ki zurrat karunga-doston kai lekhakon kaviyon ne kai netaaon se kai puraskaar liye hain, bina uski asliyat jaane.Itihaas khangaalenge to kai Uday Prakash mil jaaenge,ye Uday prakash bechaare pakde gaye...virodh ke swar utha-utha kar ek guni lekhak ko aur zaleel naa karen..."yadi unka antahkaran is baat ko galat maan le to maamla yahin band kar den..."yahi ham jaise hindi ke nauseekhiye pathakon ke liye behatar hogaa...guzarish hai ki mujh jaise paathakon ko vakr katakshon se yukt Tippaniyon ki bajaae kuchh achchhaa saahity fir se is blog par milegaa...astu!

इरफ़ान said...

Is virodh mein main bhee shaamil hoon.

कुमार अम्‍बुज said...

प्रिय भाई,
मैं कुछ निजी वजहों से और लगातार प्रवास पर रहने से, कुछ देर से इस प्रकरण से अवगत हुआ।
उदय प्रकाश के इस तरह सम्‍मानित होने से मुझे गहरा क्षोभ है, आपत्ति है।
इसे किसी तरह निजी खाते में डालकर दरकिनार नहीं किया जा सकता।
रचना और जीवन में फांक देखना दुखद होता है।

प्रीतीश बारहठ said...

आदमी हमको यहां न इंशा का सानी मिला
हम समन्दर से मिले, उतरा हुआ पानी मिला

अशोक जी,
यह ब्लाग लबाड़खाने से वापस कबाड़खाना कब तक बनेगा?

Ashok Kumar pandey said...

मेरे लिए तो यह दोहरी दुर्घटना है...गोरखपुर जहाँ राजनीति का ककहरा सीखते हुए अबूतर-कबूतर और सुनो कारीगर की कविताओं के पोस्टर बनाए थे वहीं इनके सर्जक का इतना बड़ा आत्मसमर्पण? अब कौन करेगा लिखित शब्दों पर भरोसा? और क्यों करेगा? आखिर यह क्या है ? वैचारिक मोहभंग या फिर पुरस्कारों के मोह की बुढभस? या फिर तमाम उन विचलनों की तार्किक परिणिति जिन्हें हिन्दी संसार ने अब तक अनदेखा किया?

और उदय इसमें अकेले तो नही. प्रलेस की पत्रिका फोर्ड फाउनडेशन के पैसे से बने संस्थान से सादर पुरस्कार ग्रहण करती है और संगठन के अन्दर बाहर भयावह चुप्पी...सब को डर कि बोला और एक दो पुरस्कारों का पत्ता साफ़. भाजपा की सरकारें आयीं तो भी बदस्तूर मिलते रहे विज्ञापन और उनके सन्सथानो से पैसा और पद. वाम के नाम पर बस साम्प्रदायिकता का कास्मेटिक विरोध और सत्ता से आतंरिक गठजोड़.

आज खुद को वाम कहने वाला पूरा लेखक समुदाय विरोध की जगह सुविधा की राजनीति कर रहा है और उदयप्रकाश का यह प्रकरण इसकी सबसे गलीज़ अभिव्यक्ति है.मुझे डर है कि भविष्य में हमें इससे भी भयावह खबरें मिलेंगी...

और एक आखिरी बात इस योगी के चरणों में गिरे हिन्दी की आलोचना की सबसे बड़ी दुर्घटना परमानंद के बारे में सब चुप क्यों हैं?

अजित वडनेरकर said...

कबाड़खाना तो पाप-विमोचन का गयाधाम बनता जा रहा है। अशोक पाडेंजी की दूसरी आंख कूरियर से प्रेषित करने की बात पर बेसाख्ता हंसी आ गई:)

ये पावस-सत्र क्या सचमुच पूरे सावन तक रहेगा या इसे चौमासा ही समझें? सुनते हैं संत जहां कहीं चातुर्मास करते हैं वह धाम तीर्थ की श्रेणी पा जाता है। संतों का जमघट बढ़ता जा रहा है:)

नई पीढ़ी said...

योगी महिमा......पढिए और उदय प्रकाश को बधाई दीजिये.

"हमने गोरखपुर में एक नयी परंपरा शुरु की है जहां मुस्लिम लड़कियों को हिंदू रख रहे हैं। इस तरह हम नस्ल शुद्धि कर रहे हैं जिससे हम एक नयी जाति निर्माण करेंगे। योगी आगे कहते हैं यह परंपरा आजमगढ़ में भी शुरु होगी अगर कोई एक हिंदू लड़की मुस्लिम के यहां जाती है तो हम उसके बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को ले आएंगे। योगी यहां उपस्थित जनता को उकसा कर उनसे अपनी बात पर हामी भी भरवाते हुए कहतें हैं कि अगर वे एक हिंदू को मारेंगें,तो इसके जवाब में जनता उनके साथ दोहराती है कि वो सौ को मारेंगे। इसी भाषण में योगी बाहुबली प्रत्याशी रमाकांत यादव को हनुमान बताते हुए कहते हैं कि देश सिर्फ माला जपने से नहीं चलता इसके लिए भाला चलाने वालों की भी जरुरत है। और भाला वही चलाएगा जिसकी भुजाओं में दम होगा, शिखंडी और नपुसंक लोगों के बूते ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इस बात के बाद मुसलमानों को केंद्रित करते हुए योगी कहते हैं कि इन अरब के बकरों को काटने के लिए तैयार हो जाइए। जो काम अब तक छुप कर होता था वो अब खुलेआम होगा। इसी सभा में योगी कहते हैं कि आजमगढ़ का नाम किसी मुस्लिम के नाम पर होना शर्मनाक है, इसका नाम हमें आर्यमगढ़ करना है। योगी अपनी धार्मिक छवि की आड़ में अपने फासिस्ट एजेण्डे को शस्त्र और शास्त्र का मिश्रण बताकर इसे हिंदुओ की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बताते हैं।
गौरतलब है कि आजमगढ़ को आतंकगढ़ कई सालों से योगी कहते आ रहे हैं जिसे बाद में मीडिया भी धड़ल्ले से इस्तेमाल करने लगी। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि गोरखपुर ,महराजगंज, पडरौना, देवरिया में जहां लंबे समय से चल रहे फासिस्ट प्रयोंगो के तहत कई मुहल्लों के नाम जिसमें उर्दू टच दिखता है को बदल दिया गया है। मसलन, उर्दू बाजार को हिंदी बाजार, अली नगर को आर्य नगर, शेखपुर को शेषपुर, मियां बाजार को माया बाजार, अफगान हाता को पाण्डे हाता, काजी चैक को तिलक चैक समेत दर्जनों नाम हैं।"..........."योगी आदित्यनाथ के जमीनी प्रयोग एक ऐसी नस्ल तैयार करने में लगे हैं जो विशुद्ध फासिस्ट हो, जिसका इतिहासबोध हद दर्जे तक मुस्लिम विरोधी मिथकों पर टिका हो और जो किसी भी तरह के गैर हिंदू प्रतीकों को बर्दास्त न करता हो। जिसको हम उनके प्रयोग स्थलों पर साफ देख सकते हैं। जैसे महराजगंज के भेड़िया बकरुआ गांव में योगी के स्टाॅर्मट्ूपर्स हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने कब्रस्तानों को ट्ैक्टर्स से जुतवा दिया। 2007 में पडरौना में मुस्लिम दुकानदारों की दुकानों को जला कर उनकी जगह प्रशासन के सहयोग से रातों रात हिंदू दुकानदारों को बसा दिया। जिसे शासन प्रशासन दंगो की फेहरिस्त में भी नहीं मानता लेकिन इस पूर्व नियोजित इस दंगे की संभावना महीने भर पहले ही कोतवाली में स्वयं पुलिस द्वारा दर्ज है।....... एक अन्य सभा में बिलरियागंज आजमगढ़ में योगी ने कहा कि जो लोग हमारे हिंदुत्व के संकल्प से सहमत नहीं हैं उन्हें शाम तक आजमगढ़ छोड़ देने की तैयारी कर लेनी चाहिए।.......योगी अपने भाषणों में किसी दूर-दराज इलाके के हिंदुओं के उत्पीड़न की मनगढ़ंत कहानियां सुनाकर स्थानीय स्तर पर मुसलमानों से बदला लेने के लिए हिंदू भीड़ को उकसाते हैं। मसलन इसी सभा में वे कहते हैं कि मेरठ में हिंदुओं के साथ मुसलमान आतंकी व्यवहार करते हैं जिसके चलते हिंदू लड़कियों की पढ़ाई -लिखाई छूट गई है। अधिकतर हिंदू परिवारों ने अपनी बेटियों को रिश्तेदारों के यहां भेज दिया है क्योंकि मुसलमान उनको उठा ले जाते हैं और उनके साथ सामूहिक दुराचार करते हैं और उन पर तेजाब डाल देते हैं।"

-----उनकी महिमा के बारे में और जानना हो तो नई पीढी देखें. http://naipirhi.blogspot.com/2009_03_01_archive.html

Rangnath Singh said...

अजीत जी

आपकी टिप्पणी पढ़ कर इस माहौल में ठहाका लगाने की वजह मिल गई।

मुझे तो लगता है दुनिया के प्रचलित रवायत के तर्ज पर यहाँ भी प्री-उदय प्रकाश मैटर और पोस्ट-उदय प्रकाश मैटर, दो टाइप के कबाड़ी हैं।

मैं तो ब्लाग फालोवरों की बढ़ती संख्या को देख कर दंग हूँ।

सही है !!