Sunday, July 26, 2009

यह एक राजा की कहानी है...

प्रस्तुत कहानी हिन्दी के ख्यात कवि-गीतकार बालकवि बैरागी ने आज से करीब तीन दशक पहले लिखी थी। हाल ही में हमारे मित्र शिवकुमार विवेक के सौजन्य से इसे पढ़ने का मौका मिला। विवेकजी ने इसे मालवांचल के किसी स्कूल की वार्षिक पत्रिका के पन्नो में तलाशा। हमें लगता है कि इस कहानी को कबाड़खाना की सम्पत्ति बनना चाहिए, सो इसे यहां लगा रहे हैं। भैया बैरागी का सानिध्य कई बार मिला है। उनकी क़िस्सागोई की शैली इस कहानी में साफ देखी सकती है। कहानी की छायाप्रति यहां लगा रहा हूं। पढ़ने में असुविधा हो तो बड़े आकार के लिए तस्वीर पर क्लिक करे। [-अजित वडनेरकर]

5 comments:

Ashok Pande said...

"... मन्त्रिपरिषद सदैव नरेन्द्र की रहती है खरेन्द्र की नहीं..."

मौज आई अजित भाई!

... उत्तम कथा. हो सकता है पाठकगण चार-चार पन्नों पर क्लिक करने में प्रमाद महसूस कर रहे हों. पर उन्हें नहीं पता वे कितनी ज़बरदस्त चीज़ मिस कर रहे हैं.

तल्ख़ ज़ुबान said...

अब कबाड़खाने के ये दिन आ गये ! आ गये नहीं बल्कि लद गये! बालकवि बैरागी को पढ़ना पड़ेगा यहाँ. खैर जैसा कि प्रातःस्मरणीय उदयप्रकाश ने कहा है उत्थान के लिए पतन ज़रूरी है !

प्रीतीश बारहठ said...

अजीत जी,
राजा पर कोई आफत नहीं आती यदि एक गधे को राजा भी बना देता। तब सारे विरोधी उल्लू बन कर रह जाते!लेकिन यह टेक्नीक शायद बाद में ईजाद हुई है।

siddheshwar singh said...

अजित भाई, एक अच्छी कहानी आपने पढ़वाई!

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर! मजे आ गये। पढ़वाने का शुक्रिया। सच्ची वाला।