Tuesday, March 31, 2009

मायावती से भयभीत कौन?

इन दिनों जारी राजनीतिक गहमा-गहमी के बीच तमाम लोग एक अजब समस्या से जूझ रहे हैं। उन्हें डर है कि अगली लोकसभा के त्रिशंकु होने पर कहीं जोड़-तोड़ करके मायावती प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ना पहुंच जाएं। ऐसा सोचने वालों में सिर्फ राजनीतिज्ञ नहीं, बुद्धिजीवी, पत्रकार और जनता का एक मुखर भी हिस्सा है। हाल ये है कि एक सर्वे के जरिये ये भी बता दिया गया है कि देश की 74 फीसदी से ज्यादा लोगों को मायावती का प्रधानमंत्री बनना पसंद नहीं। उन्हें लगता है कि इससे देश की प्रतिष्ठा घटेगी। ये अलग बात है कि हिंदुस्तान अमेरिका नहीं कि 622 लोगों के बीच हुए ऐसे सर्वेक्षणों के जरिये जमीनी हकीकत का ठीक-ठीक अंदाजा लगाया जा सके। बहरहाल चिंता में दुबले हो रहे इन लोगों की समस्या के निदान के लिए जरूरी है कि मायावती के गुनाह और खतरे को समझा जाए।
मायावती को लेकर पहली चिंता ये है कि वे ऐसी दलित नेता हैं जो सामाजिक ताना-बाना को छिन्न-भिन्न करना चाहती हैं। लेकिन ये सब पुरानी बाते हैं। मायावती ने यूपी की सत्ता पर पहुंचते ही सर्वसमाज का नारा दिया था। और अगर डीएस-4 या बीएसपी के शुरूआती दौर में वर्णव्यवस्था को खत्म करने के इरादे रहें भी हों, तो मायावती इससे बहुत दूर निकल आई हैं। डा.अंबेडकर के ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम या नारा आज बीएसपी के एजेंडे में नहीं है। यही नहीं, दलितों को बौद्ध बनाने के अभियान को भुलाकर अब वे गणेश वंदना में व्यस्त हैं। “हाथी नहीं, गणेश है- ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” का नारा ही अब उस बीएसपी की पहचान है जो जातिव्यवस्था को तोड़कर नहीं, जातियों को जोड़कर वोटों का हिसाब करती है। बीएसपी के हर नेता के लिए एक ही फरमान है कि वो अपनी जाति को बीएसपी के पीछे गोलबंद करे। उसकी यही सफलता बीएसपी में उसके करियर ग्राफ को तय करता है। यानी, उन लोगों को डरने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है जो इस सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं।
मायावती पर दूसरा आरोप भ्रष्टाचार का है। कहा जाता है कि उन्होंने राजनीति के जरिये जमकर कमाई की है। पर इस आरोप से देश का कौन सा नेता या पार्टी बची है। क्या स्विस बैंक में रखे भारतीयों के 1456 अरब रुपयों में मायावती के उदय से पहले के राजनीतिज्ञों का योगदान नहीं है। छोटी पार्टियों को छोड़िये, क्या कांग्रेस या बीजेपी जैसी पार्टियां भी दावा कर सकती हैं कि वे जनता से चंदा मांगकर सारा खर्चा चलाती हैं। उनकी गाड़ियां और हैलीकाप्टर उसी के दम पर उड़ते हैं। आखिर उनके नेताओं की आलीशान जीवनशैली का राज क्या है? बीएसपी तो खेल के उन्हीं नियमों का पालन कर रही है जो इन पार्टियों ने तय किए हैं। आजादी के तुरंत बाद सामने आए जीप खरीद कांड से लेकर बोफोर्स और तहलका तक जो भी खेल हुए उसमें मायावती या बीएसपी का कोई योगदान नहीं रहा। वैसे, आयकर विभाग की ओर से 2007-2008 के लिए जारी शीर्ष आयकरदाताओं की लिस्ट में मायावती पहले 20 में और राजनेताओं में पहले नंबर पर हैं। 200 लोगों की इस लिस्ट में बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ तो छोड़िए, दुनिया के चुनिंदा अमीरों में शुमार किए जाने वाले मुकेश अंबानी या उनके भाई अनिल अंबानी भी नहीं थे।
तीसरा आरोप ये है कि मायावती अविश्वसनीय हैं। कब,कैसे,कहां, किससे गठबंधन कर लें कोई नहीं जानता। यही वजह है कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित न करने पर तीसरे मोर्चे को भी घास नहीं डाली। तो चलिए उस पार्टी को खोजिए जो विश्वसनीय हो। जो बता सके कि वो चुनाव बाद किन लोगों से हर हाल में दूर रहेगी, चाहे सत्ता मिले या ना मिले। जाहिर है, इस कसौटी पर कोई खरा नहीं उतरेगा। फिर चाहे चरण सिंह और चंद्रेशखर को तुरत-फुरत औकात बताने वाली कांग्रेस हो या मंडल से खीझकर वीपी सिंह से पीछा छुड़ाने के लिए मंदिर दांव खेलने वाली बीजेपी। वैसे, इन पार्टियों ने अतीत में मयावती से समर्थन लेने में कभी परहेज नहीं किया। उधर, आजकल बीएसपी के दुश्मन नंबर एक बने मुलायम सिंह ने तो राजनीति की दूसरी पारी ही बीएसपी के बल पर शुरू की थी। साथ मिलकर चुनाव लड़ा। सरकार बनाई, पर संबंध बिगड़े तो उनके गुर्गे मायावती की जान लेने पर उतारू हो गए। गेस्ट हाउस कांड को कौन भुला सकता है।
एक और गंभीर चिंता ये है कि मायावती प्रधानमंत्री बन गईं तो देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर जाएगी। ये बड़ी दूर की कौड़ी लगती है। मायावती डा.अंबेडर की मूर्तियां लगाने का अभियान जरूर चला रही हैं लेकिन उनके विचारों के अनुरूप राजकीय समाजवाद या तानाशाही विहीन साम्यवाद की वे कतई प्रशंसक नहीं लगतीं। न उन्हें पूंजीपतियों से कोई तकलीफ है और न ही पूंजीवाद से। ये संयोग नहीं कि ‘जो जमीन सरकारी है, वो जमीन हमारी है’ का नारा देने वाली बीएसपी अब उसे याद भी नहीं करना चाहती। वे उदारवाद या बाजारवादी अर्थव्यवस्था की वैसी ही समर्थक हैं जैसा मनमोहन, आडवाणी या कोई और। वैसे भी इसी व्यवस्था को थोड़े किंतु, परंतु के साथ समर्थन देकर अगर साढ़े चार साल तक वामपंथी सरकार चला सकते हैं तो फिर मायावती से भला क्या खतरा हो सकता है।
कुछ लोगों की ये भी शिकायत है कि मायावती लोगों से काफी दूरी बनाकर रखती हैं। यहां तक कि पत्रकारों को भी जल्दी समय नहीं देतीं। पर देश के जितने बड़े नेता हैं उन सबके साथ कमोबेश ऐसा ही है। सभी के इर्दगिर्द एक कोटरी है जिसकी कृपा से ही आप उन तक पहुंच सकते हैं। याद कीजिए, कुछ दिन पहले दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी के घर के बाहर हुआ तमाम पत्रकारों का हंगामा। वजह ये थी कि आडवाणी ने घरेलू समारोह में चुनिंदा पत्रकारों को ही न्यौता था। हो सकता है कि मायावती इस मामले में दूसरों से बीस हों, पर क्या इसी वजह से वे प्रधानमंत्री पद के अयोग्य हो जाती हैं?
अब थोड़ा उन बातों पर भी विचार कर लिया जाए जिसके लिए मायावती की तारीफ की जा सकती है। वे अकेली नेता हैं जिनकी वजह से करोड़ों दलितों में लोकतंत्र पर विश्वास जगा है। जो न कभी मायावती से मिले, न उन्हें देखा, फिर भी इस नाम पर वे आंख मूंद कर विश्वास करते हैं। उन्हें यकीन हुआ है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के हाथ में सत्ता की लगाम आ सकती है। दलित शीर्ष पर पहुंच सकता है। सदियों से सताए गए दलितों के अंदर ऐसा विश्वास भरना वाकई ऐतिहासिक काम है। फिर मायावती प्रधानमंत्री तभी बनेंगी जब सांसदों का गणित उनके पक्ष में हो। तराजू उनके पक्ष में भी वैसे ही झुक सकता है जैसे देवगौड़ा या गुजराल के पक्ष में झुका था। फिर, मायावती से डरने का मतलब क्या है। क्या इस वजह से कि उनकी शक्ल-सूरत ऐसी नहीं है जो किस्से-कहानी के राजा-रानियों की होती है। ये सही है कि टी.वी.पर उनके चेहरे में वैसा रक्ताभ सम्मोहन नहीं दिखता जैसा गांधियों या आडवाणियों में है, पर ओबामा पर बलिहारी जाने वालों को इससे तकलीफ क्यों नहीं होनी चाहिए। मायावती उसी रूप रंग की हैं जो इस देश के नब्बे फीसदी लोगों को मिला है। और इसके लिए वे बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं हैं। कुरूप समझे जाने वाले मलिक मोहम्मद जायसी बहुत पहले लिख गए हैं.-“मोपे हंस्यो या हंस्यो कुम्हारा” (मुझ पे हंस रहे हो या कुम्हार पर जिसने मुझे रचा है यानी भगवान)।
तो क्या मायावती प्रधानमंत्री पद के सर्वाधिक योग्य हैं। कतई नहीं। वे उतनी ही योग्य या अयोग्य हैं जितना कोई गांधी, आडवाणी, वाजपेयी या यादव है। न कम न ज्यादा। मायावती समेत सभी इस व्यवस्था को बनाए रखने के हामी हैं। इसलिए मायावती को वही खारिज करे जो इस व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था का सपना देखता हो। जिसके पास कोई बड़ी लकीर खींचने का खाका हो। वरना माना जाएगा कि ‘मायावती विरोध’ दिमाग में जड़ जमाए बैठे ब्राह्मणवाद (ब्राह्मण नहीं) की खीज भरी चीख से ज्यादा कुछ नहीं है।

11 comments:

दिनेश पालीवाल said...

सटीक

दिलीप मंडल said...

मायावती में अब रहस्य नहीं बचा है। राजनीति के खेल में वो जो खेल रही हैं, वो नया नहीं है। सभी खेलते हैं। हां इस बार के चुनाव में अगर कोई सस्पेंस हैं तो वो मायावती की वजह से ही है। चुनाव को रोचक बनाने के लिए खासकर पत्रकारों को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए।

Ek ziddi dhun said...

Mayavati mein rahsay nahi bacha hai par yah bhi rahsy nahi hai ki dalit se is kathit sabhy samaj ko kitni nafrat hai. mandal wale bhi ghrina se bhare hain dalito ke liye.
http://ek-ziddi-dhun.blogspot.com/2008/02/blog-post_25.html

मुनीश ( munish ) said...

Yes why not Maya mem'saab? She is as good or bad as any other leader these days!

भारत भूषण तिवारी said...

सही विश्लेषण है. ये चिंतित एलिट तबका वही है जो आरक्षण की बात होते ही योग्यता के नाम पर आंसू बहाने लगता है. अमरीकी समाज में अश्वेतों के प्रति हुए अत्याचारों के बारे में कम से कम एक 'गिल्ट काम्प्लेक्स' नज़र आता है. मगर इस 'गिल्ट काम्प्लेक्स' का हमारे यहाँ एकदम अभाव है. दलित राजनैतिक चेतना का 'पॅन-इण्डियन' स्वरुप तैयार करने का श्रेय कांशीराम और मायावती को देना ही होगा. शक्ल-सूरत की बात से वीरेन डंगवाल की कविता 'पी टी उषा' याद आती है.

खाते हुए
मुँह से चपचप की आवाज़ होती है ?
कोई ग़म नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के
सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं।

Unknown said...

dheeresh ji ke comment se main ekdam sahmat hoon. pankaj ji ne bahut hi achchha likha hai, hamesha ki tarah. magar yah aham baat bhi wah bataate to aur achchha hota ki mayawati sarvajan-samaaj ke taaza naqaab ke peechhe bataur C.M. darasal daliton ki tamaam sarkaari naukariyon mein bade paimaane par niyuktiyaan kar rahi hain. jo aatmavishwaas unhone dalit tabqe mein paida kiya hai, uski ek vaastavik vajah yah bhi hai. daliton ko ooncha uthaane mein yah unka sabse bada aur aitihaasik yogdaan hai.
doosare, ve ek bahut saqhta aur reputed administrator hain. adhikaari-varg unse qhauf khaata hai.
magar unka sabse bada aparaadh yah hai ki is waqt unke kaaryakaal mein postings, transfers & naukariyon mein jis bhaari paimaane par rishwat li ja rahi hai ( jiska, sab jaante hain ki ek nishchit hissa C.M. ke paas jaata hai ), vaisa aazaad Bharat ke itihaas mein pahle kabhi nahin hua. unki is style ke shikaar aam log isse chakit bhi hain & isse luta-pita aur chhala hua bhi mahsoos kar rahe hain.
ek aur maamla yah hai ki mayawati ne real estate ke saamne poora & sharmnaak samarpan kar diya hai. ganga-express-way ki jo yojana wah laagu karne ja rahi hain, usse ganga ki rahi-sahi jaan bhi nikal jaayegi-----anginat kisaanon ki jo tabaahi hogi, wah to ek aur badnaseebi hai .

mera man hai ki in behad naazuk & aham masalon par apne agale lekh mein pankaj shrivastav sareekha qaabil analyst vichaar kare , jisse ham jaison ka kuchh maarg-darshan ho.
ek takneeki baat yah jaanna chaahta hoon ki swiss banks mein bharat ka kaala dhan 1456 arab rupaye hai ya dollar ?
aqheer mein yah kahna hai ki pankaj ji jaayasi ki kavita ke interpretation mein kumhaar ko kumhaar hi kahte, bhagwaan nahin, to kavita mein zaahir ih-laukikta ya secularism ke saundarya ki rakshaa hi hoti, nuqsaan nahin.
nuqsaan qhair vaise bhi nahin hua hai.
mujhe is lekh se jo roshani mili hai, uske liye pankaj ji ka hamesha shukraguzaar hoon.
----pankaj chaturvedi
kanpur

pankaj srivastava said...

पंकज चतुर्वेदी का शुक्रिया। इस लेख की प्रतिक्रिया में कुछ अहम सवाल उठाए हैं। पहले तो एक तथ्यात्मक गलती के लिए माफी चाहता हूं। स्विस बैंक में भारतीयों का 1456 अरब रुपया नहीं, 1456 अरब डॉलर जमा है। पंकज का ये कहना सही है कि जायसी की पंक्तियों का अर्थ बताते हुए कुम्हार को भगवान बताना उसके सौंदर्य को नष्ट करना है।
रही बात मायावती की रिश्वतखोरी के अपराध की, तो मेरा निवेदन बस यही है कि इस कसौटी की वजह से अगर मायावती पीएम बनने के अयोग्य हैं, तो फिर सभी हैं। और जब दूसरे बर्दाश्त हो सकते हैं तो मायावती क्यों नहीं?

Third Eye said...

पंकज भाई,

भारतीय मध्यवर्ग सिर्फ और सिर्फ एक कारण से भारत की प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं देख सकता. और वह कारण है कि मायावती अँग्रेजी नहीं बोलतीं. शक्ल-सूरत की बात करें तो वो देवेगौड़ा से कहीं अधिक मोहिनी हैं. क्या गलत?

Devender Kumar said...

chalo kuch log to hai , jo sahi ko sahi or galat ko galat kahate hai. badiya post hai ,aap is post ke liye taarif ke kaavil hai.

दीपा पाठक said...

सही समय पर किया गया सही विश्लेषण। आज टाइम्स आफ इंडिया में जग सुरैया ने भी लगभग यही सब लिखा है अपने कॉलम में। विचारोत्तेजक पोस्ट। लेकिन कितने दुख की बात है कि हमारे पास अच्छे या सबसे अच्छे की बजाय खराब या बहुत खराब में चुनने का विकल्प है।

महेन said...

ये दलितों का मसला तो भरमाने के लिए एक एजेंडा भर है. अफ़सोस तो यही है कि स्थिति इतनी बुरी हो चुकी है कि हमें रावण और कंस में से चुनाव करना होगा और हमें इस बात की कोई ग्लानि नहीं कि हम कौनसे राक्षस का पक्ष ले रहे हैं.
कोई जाति की दुकान चला रहा है कोई धर्म की. सब ठीक है.