Wednesday, March 18, 2009

मेरी कविता हवा की उठान की तरह नैसर्गिक है

फ़र्नान्दो पेसोआ की एक कविता मैंने कल पोस्ट की थी. दरअसल उनकी एक लम्बी कविता श्रृंखला है 'भेड़ों का रखवाला'. पिछली कविता और ये वाली कविता उसी का हिस्सा हैं. पेसोआ के बारे में मैंने पहले भी कबाड़ख़ाने में लिखा है और उनकी रचनाओं से आपका परिचय कराया है.

मुझे छंद की कोई परवाह नहीं

-फ़र्नान्दो पेसोआ



मुझे छंद की कोई परवाह नहीं
यह कभी-कभी ही हो सकता है
कि अगल-बगल के दो पेड़
बिल्कुल समान हों
मैं उसी तरह सोचता और लिखता हूं
जैसे फूलों में रंग होते हैं
लेकिन मेरी अभिव्यक्ति में कम सम्पूर्णता होती है
क्योंकि मेरे भीतर
सब कुछ हो पाने की
वह पवित्र साधारणता नहीं है

मैं देखता हूं और भावनाओं में बहने लगता हूं
मैं उसी तरह भावुक हो जाता हूं
जैसे ढलवाँ ज़मीन पर पानी बहता है
और मेरी कविता हवा की उठान की तरह नैसर्गिक है...

हम चीज़ों में जो कुछ देखते हैं वही वे हैं
हम एक ही चीज़ क्यों देखें जब वहाँ एक और भी है?
देखना और सुनना हमें क्यों भ्रमित करे
जबकि देखना और सुनना बस देखना और सुनना होता है?
ज़रूरी बात है देख पाने में महारत
और बगैर सोचे, अच्छी तरह देख पाना
और इस काबिल होना कि देखते वक़्त सिर्फ़ देखा जाए
जब देख रहे हों तो सोचें नहीं
और सोचते वक़्त देखें नहीं

लेकिन उसके लिए (बेचारे हम, जो अपनी आत्मा को
पूरे कपड़े पहनाए लादे फिरते हैं) - उसके लिए
बड़ा अध्ययन चाहिए
उस आश्रम की स्वच्छंदता पर अधिकार चाहिए
जिसके बारे में कविगण कहा करते हैं
कि सितारे अनन्त देव-कुमारियाँ हैं
और फूल, एक इकलौते दिन के लिए
संवेदनापूर्ण पश्चाताप करते लोग,
लेकिन जहाँ अन्तत: तारे और कुछ नहीं बस तारे होते हैं
और फूल कुछ नहीं बस फूल
- यह इसी कारण है कि हम उन्हें तारे और फूल कहते हैं

'धरती की सारी ख़ामोशी -फ़र्नान्दो पेसोआ की चयनित रचनाएं' (संवाद प्रकाशन)से साभार

12 comments:

Ek ziddi dhun said...

लाजवाब।

मुनीश ( munish ) said...

This and the previous poem are beyond my comprehension, may be im conditioned to seek rhyme in poems. Any day,I enjoy 'Gadd' more than 'Padd' !

Unknown said...

बहुत बहुत धन्यवाद । इस पोस्ट के लिए

कंचन सिंह चौहान said...

uttam

अनिल कान्त said...

सर्वोत्तम .........शुक्रिया इसको पढ़वाने के लिए


मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

ravindra vyas said...

बहुत बहुत सुंदर।

पारुल "पुखराज" said...

जब देख रहे हों तो सोचें नहीं
और सोचते वक़्त देखें नहीं
magar hum aisa nahi kar paatey :(..humtak pahuchaaney ka shukriyaa

अजित वडनेरकर said...

ग़ज़ब की साफ़गोई है...
छंद की ऐसी बारह बजाए कोई तो मेरे जैसा छंद का आग्रही भी बुरा नहीं मानता...

तुसी ग्रेट हो पंडज्जी...यूं ही दुनिया घुमाते रहें...गुलशन गुलशन की महक लेते रहेंगे तो कुछ तमीज़ आ जाएगी अदबी दुनिया के बारे में ...
जैजैकार के साथ
अजित

स्वप्नदर्शी said...

"देखना और सुनना हमें क्यों भ्रमित करे
जबकि देखना और सुनना बस देखना और सुनना होता है?
ज़रूरी बात है देख पाने में महारत
और बगैर सोचे, अच्छी तरह देख पाना
और इस काबिल होना कि देखते वक़्त सिर्फ़ देखा जाए"

behtareen!!

Udan Tashtari said...

अद्भुत!!

Ashish Khandelwal said...

behatreen.. shaandaar

Uday Prakash said...

Should I say, obviously about you, an uncelebrated wordsmith and a ignored genius in translation !
badhaai!