Friday, March 20, 2009

मंगलेश जी के खिलाफ़ अभियान पर जन संस्कृति मंच के महासचिव का वक्तव्य

यह वक्तव्य अभी अभी मुझ तक मेल द्वारा पहुंचा है. वक्तव्य महत्वपूर्ण है सो बिना देरी किये मैं इसे आपके सम्मुख रख रहा हूं.

मंगलेश जी के खिलाफ़ अभियान पर जन संस्कृति मंच के महासचिव का वक्तव्य

श्री मंगलेश डबराल के खिलाफ़ जिस निम्न स्तर पर उतरकर कुछ पत्रिकाओं और ब्लागों ने कुत्सा अभियान चला रखा है, उसे देखते हु मैं ज़रूरी समझता हूं कि इस अभियान की जन संस्कृति मंच की ओर से पुरज़ोर मज़म्मत करूं। मंगलेश जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। ऎसा नहीं है कि जो लोग यह सब लिख-लिखवा रहे हैं, वे गंभीरता से ऊब कर कुछ सनसनीखेज़ मनोरंजन करा रहे हैं। ये सहजता से डरे हुए लोग हैं। ऎसा भी नहीं है कि इन्हें मंगलेश जी के जीवन-संघर्ष और बीच बीच में उनकी लम्बी चलने वाली बेरोज़गारी के बारे में कुछ पता नहीं है। एक अजीबोगरीब तर्क इन टिप्पणियों में यह आ रहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी जीविका के लिए किसी सरकारी या औद्योगिक/पूंजीवादी संस्थान में काम कर रहा है, तो उसे या तो काम छोड़कर भूखा मर जाना चाहिए ताकि वह अपने वैचारिक आग्रहों को सुरक्षित रख सके या फिर उसे सरकारों या संस्थानों का विरोध बंद कर देना चाहिए। इस नज़रिए का खोट यह है कि यह लेखक या मज़दूर की कमाई को उसकी मेहनत का नतीजा नहीं, बल्कि नौकरी देनेवालों की इमदाद मानता है, अत: शासकवर्ग का ही पक्षपोषण करता है। ये लोग खेत मज़दूरों से यह कहेंगे कि भूमिपति तुम्हें रोटी देता है, इसलिए उसका विरोध या अपनी मजूरी बढ़ाने का आंदोलन तुम्हें नहीं करना चाहिए। इससे अच्छा है कि तुम मजूरी करना बंद कर दो। ये लोग मल्टीनेशनल में काम करने वाले कर्मचारियों से कहेंगे कि तुम लोगों को ट्रेड यूनियन बनाने का हक नहीं है क्योंकि तुम लोग उसी मल्टीनेशनल की रोटी खा रहे हो। इनके अनुसार तो सरकारी कर्मचारियों को भी इसी तर्ज़ पर सरकार के खिलाफ़ न बोलना चाहिए, न लिखना चाहिए। यह किस तबके का नज़रिया है?

किसे इस पूंजीवादी लोकतंत्र में जीने के लिए अपना श्रम नहीं बेचना पड़ता? क्या इसीलिए वह अपना बुद्धि-विवेक, संघर्ष चेतना और आत्मा भी बेंच दे? मंगलेश ने तो बिहार सरकार का पुरस्कार विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए भी यही कहा कि इसे उन लोगों की अवमानना न माना जाए जिन्होंने यह पुरस्कार लिया है। फिर ऎसी हाय-तौबा क्यों? एक समय बिहार में हुए दलित जनसंहारों के लिए लालू सरकार को ज़िम्मेदार मानते हुए जन संस्कृति मंच ने उनके द्वारा घोषित पुरस्कारों के विरोध का अभियान ही चलाया था, जो कई लेखक मित्रों को नागवार गुज़रा था और उन्होंने जन संस्कृति मंच पर संस्कृति के क्षेत्र में राजनीति करने का आरोप लगाया था। मंगलेश जी ने तो कोई अभियान भी नहीं चलाया, बल्कि अपनी वैचारिक असहमति को व्यक्तिगत स्तर पर व्यक्त किया। इससे किन लोगों को चोट पहुंची है? क्या है उनकी राजनीति और समझ?ऎसे लोग यह पूछ रहे हैं कि साहित्य अकादमी जब मंगलेशजी को प्राप्त हुआ तब भी केन्द्र में भाजपा थी, फ़िर तब क्यों ले लिया और अब क्यों नहीं? यह सवाल भोला नहीं है, इसमें मक्कारी भरी है। यह लोग साहित्य अकादमी और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की संरचना और स्वरूप तथा दोनों में सरकारी हस्तक्षेप की भिन्नता को बखूबी जानते हैं और जान- बूझकर कर दोनों सम्मानों की तुलना कर भ्रम फैला रहे हैं। मंगलेश जी की आय का ब्यौरा देने वालों के लिए क्या यह उचित नहीं होता कि अपनी आय और उसके स्रोतों का भी ब्यौरा प्रकाशित कराते? उनपर व्यक्तिगत लांछन जो लोग लगा रहे हैं क्या कोई प्रमाण प्रस्तुत करेंगे या हम चरित्र-हनन को ही साहित्य की एक विधा मान कर संतोष कर लें?क्या कारण है कि हिंदी के सैकड़ों लेखक ऎसे हैं जिन्होंने मंगलेशजी से ज़्यादा विदेश यात्राएं की है, लेकिन दिखाई दे रही है सिर्फ़ मंगलेश जी की यात्रा? क्या ये लोग जिन्हें उनकी विदेश यात्राओं पर ऎतराज़ है, वे कुछ मध्यकालीन चिंतकों की तरह यह मानते हैं कि समुद्र के खारे पानी और मानव की त्वचा में बैर है इसलिए उसे सात समुंदर पार नहीं जाना चाहिए?क्या अपराध हो गया विदेश जाने से? क्या चोरी-डकैती करके विदेश गए थे? किसी लेखक-बुद्धिजीवी-अकादमीशियन को जब सांस्कृतिक आदान-प्रदान के तहत कहीं बाहर बुलाया जाता है तो उसका व्यय बुलाने वाली या भेजने वाली संस्था ही उठाती है। हिंदी में गिने चुने ही लेखक होंगे जो अपने खर्चे पर महज घूमने फिरने कहीं विदेश जा पाते होंगे। सवाल है कि वे विदेश क्या करने गए थे? उस यात्रा का कोई सांस्कृतिक उद्देश्य था या मौज-मस्ती, कबूतरबाजी और स्मगलिंग करने गए थे? क्या कहना चाहते हैं ये लोग? मंगलेश की विदेशयात्रा पर एक मित्र यहां तक लिख गए कि वे अमरीका जाने से पहले एक अंडरटेकिंग दे कर गए थे कि उनका किसी कम्यूनिस्ट पार्टी से कोई रिश्ता न है न होगा। पढ़कर बहुत हंसी आई थी क्योंकि उसी के आस-पास मैं भी अमरीका गया था और मुझे तो बुलाया ही कम्यूनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के बतौर गया था। जहां भी गया कम्यूनिस्ट पार्टी का बिल्ला लगाकर गया। आखिर क्यों ऎसी अपढ़्ता की बातें लिखकर हिंदी का कोई लेखक अपने को हास्यास्पद बनाता है, समझ में नहीं आता।

ब्लाग-लेखन जो किसी लेखक को यह स्वतंत्रता मुहैया कराता है कि वह अभिव्यक्ति के लिए किसी पत्रिका या प्रकाशन या संपादक का मुहताज नहीं है., बल्कि खुदमुख्तार है;उसी ब्लाग-लेखन की स्वतंत्रता का दुरूपयोग एक लेखक के चरित्र हनन के लिए किया जाना ब्लाग दुनिया के लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए। मंगलेश कितने बड़े या छोटे कवि हैं इसका निर्णय उनपर व्यक्तिगत प्रहार से नहीं होगा। इतिहास तो सबसे बड़ा आलोचक है,कुछ उसपर भी छोड़िए। क्यों इतनी जल्दी में हैं ? वैचारिक दरिद्रता का ये आलम है कि पहाड़ी बनाम मैदानी का भी अंतर्विरोध मंगलेश पर हमले के काम में लाया जा रहा है। आश्चर्य है कि जो हिंदी-उर्दू समाज अभी मराठी अस्मिता के नाम पर ठाकरे खानदान के ज़ुल्म महाराष्ट्र में झेल रहा है, उसी के कुछ बुद्धिजीवी एक व्यक्ति को लांछित करने के लिए हिंदी-उर्दू क्षेत्र की इलाकाई अस्मिताओं का क्षुद्र स्वार्थों के लिए ऎसा घृणित इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आ रहे। मंगलेश हिंदी के कवि हैं और उनके चाहने वाले हर हिंदी प्रांत में हैं और उनपर होने वाले हमलों का जवाब भी देने वाले हर कहीं हैं, बिहार में भी। वैसे मंगलेश जी से इतना ज़रूर कहूंगा कि ईष्या-द्वेष, चरित्र हनन की निम्नपूंजीवादी प्रवृत्तियां इसी समाज की देन हैं और हिंदी साहित्य की दुनिया इससे कभी मुक्त नहीं रही है। ठनने को तो बड़े बड़ों में ऎसी ठनी कि सभी मर्यादाएं ताक पर रख दी गईं। याद होगा निराला- भुवनेश्वर विवाद। लेकिन साहित्य में दोनों का स्थान उनके लिखे ने तय किया उनके बीच अप्रिय विवाद के प्रसंग ने नहीं। मैं मंगलेश जी की तक्लीफ़ का अंदाज़ा लगा सकता हूं लेकिन जिनका धंधा ही यही सब करना है उनको लेकर इतना भी क्या सोचना? आखीर में यह कहना चाहता हूं कि 'पहाड़ पर लालटेन' महज प्रतीक नहीं है कि सर्चलाइट मज़ाक में ही सही उसका स्थानापन्न हो जाए। ऊंची-नीची पहाड़ियों के रास्ते पर जब आप रात में गुज़रें तो जो कूट कूट कर भरा हुआ अंधेरा होता है, उसमें दूर कहीं ऊपर जलती हुई लालटेन यह भरोसा दिलाती है कि उतनी उंचाई, उतने निर्जन पर भी मनुष्यता है, जिजीविषा है। कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ लेगा मंगलेश जी।

- प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच

14 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

मैं इस वक्तव्य के पक्ष में दस्तखत करता हूँ.

शिरीष कुमार मौर्य said...

मुझे खुशी हुई कि जन संस्कृति मंच कुछ बोला। मुझे भी मेल आपके साथ ही मिला। मेरी किसी पहलकदमी से पेशतर ही आपने पोस्ट लगा दी, यह भी बहुत अच्छा रहा। वाद-विवाद चलते रहते हैं पर साथ में एक शब्द 'संवाद' भी जुड़ जाए तो अच्छा लगता है- मैं यही एक शब्द जोड़ रहा हूं। इस वक्तव्य से मिलती जुलती बातें मेरी पोस्ट में टिप्पणी देते हुए के0के0पांडे ने भी लिखी हैं।

anurag vats said...

mohalla prayojit prakaran itna chudr hai ki uska notice lena bhi main uchit nahin samjhta...meri jaankari men blog men sakriy gambheer lekhakon ne bhi uski tamam chatkharepan ke bawjood upekha hi ki...is madhyam men is prakar ki gandgi phailanewale avinashi patrkar-lekhon (?) ko kya kahun...isse pahle inhone hindi ke anuthe kavi asad zaidi ka isi prakar se yojnabaddh charitr-hanan kiya tha...tab bahut udwign tha main...aawesh men kuch likha bhi tha...phir mujhe laga ki inhen anyatha mahtva dene ka koi matlab nahin...mujhe umeed hai ye log is bhadr upeksha se kuch seekh lenge...aur haan...pranyaji aapne theek kaha...bihar men bhi mangleshji ke lekhan ko pasand karnewale anek hain...main bhi unmen se ek hun...unhen ya unke bare men chapne ke karan thoda nindit par ise lekar lagbhag nirlajj aur vineet...

Arvind Mishra said...

मैं पिछले तीस बरसों से मंगलेश जी को जानता हूँ जो उनकी बुराई में लगे हैं वे ऐसे ही लोग हैं जिनके लिए कभी ईशा ने कहा था -हे ईश्वर इन्हें माफ़ करना ये नही जानते की ये क्या कर रहे हैं ! मंगलेश जी की मेधा ,उनकी विनम्रता और सहजता बेमिसाल है !
मैं विज्ञान संचार से जुड़ा हूँ हिन्दी के कितने (पोंगें ) साहित्यकार हैं जो भला यह जानते हैं की विज्ञान जन संचार किस चिडिया का नाम है -मंगलेश जी का विज्ञान के लोकप्रिय कारन में भी जी अवदान है वह स्तुत्य है !
आखिर वह कौन सा पक्ष इस व्यक्तित्व का है जो लोगों नागवार गुजर सकता है -लगता है वह उनकी विद्वता ही है जो मूढ़ मतियों के ईर्ष्याभाव को दुलरा रही है !
शेम ! शेम ! !

Sunder Chand Thakur said...

mujhe ab mohalla ke mantavya ko lekar ye shak ho raha hai ki iska upyog kuch log apni badhaas nikalane ke liye kar rahen hain aur ise Avinash bhi samajh rahen honge. Mujhe jhatka tab laga jab maine Manglesh ji ke puraskar sambaddhi post par moderator ki khas tippanni dekhi jisme Manglesh ji ke 2000 mein liye gaye sahitya akademi puraskar par yeh kahte hue sawal uthaya gaya tha ki tab NDA sarkar thi. Pahli baat to yeh ki Mohalla ke moderetor ne Asad Zaidi ki kavitaon par chal rahi bahas ke dauran ye kaha tha ki moderator ki apni niji rai ka arth nahin. Use public ki baton ko bina kaat-chaant ke pathakon ke samne lana hota hai. Phir Mangalesh ji ke mamle mein moderator ki is khaas tippani ka kya arth nikala jaye. Jahan tak Mangalesh ji ka sawal hai to mein unhe jyada na sahi pichle 12 saalon se to janta hi hoon. Meine unhe arthik star par joojhte dekha hai. Ve ab bhi joojh hi rahen hain. Unke tulna mein un par aarop lagaane wale kahin behtar hein. Sirf ye hai ki kuch logon ko ve aasaan target lagte hain. Videsh yatraon ki baat karen to hindi waale jaante hain ki sabse jyada yatraen kisne ki hain, magar kyonki eise logon se in tippanikaron ke swarth jude hain ye un par kuch bhi likhne se darte hain. Inme se jyadatar ko rachna aur rachnakarm se jyada lena dena nahin. Kyonki aisa hota to inhe tippani karne ka samay hi nahin milta. Pranay ji, hamein bhi ab chup na baithna hoga.

Ek ziddi dhun said...

असद ज़ैदी वाले मामले में ही सब कुछ साफ हो गया था। आप तो अखबार में हैं ठाकुर जी। हार्ड न्यूज तक को किस तरह पेश करना है, यह संपादक के हाथ में होता है। इस बार तो पूरी तरह एक्सपोज़ वाला ही खेल हुआ। अब वह ब्लॉग गैर गंभीर टिप्पणियों से भरा पड़ा है। अब कोई खुद ही साहित्य को छोंक बोल रहा हो तो क्या उम्मीद की जा सकती है।
लेकिन दुखद यह है कि हिंदी समाज ऐसे ही खेलों में मुब्तिला पाया जा रहा है। कर्मेंदु शिशिर का लेखन क्या उनके बारे में राय तय कर लेने के लिए काफी नहीं है। अगर कोई पुनर्जागरण के नाम पर रिवाइवलिज्म को पुख्ता करेन का अभियान चलाता हो और उसे खुद को क्रांतिकारी कहे जाने वाले लोग भी किसी आलोचनात्मक संबंध के बगैर प्रोत्साहित करते रहे हों तो? ऐसा शख्स क्या हिंदी की दशा-दिशा पर बात करने का दावा करता है?
इस मामले में धूर्तता की हदें यहां तक हुई कि मंगेलश जी पर घटिया कमेंट करतेहुए कुछ साहित्यकारों के उपेक्षित होने का रोना रोया गया। कर्मेंदु शिशिर ने मनमोहन का नाम भी उछाला। अब यह शर्मनाक है कि ऐसी गरिमा वाले शख्स का नाम ऐसे भोंडे मंतव्य से उछाल दिया जाए।
वैसे तो बड़े आलोचक और साहित्यकार भी इन दिनों रचनाओं पर बात करने के बजाय जोड़तोड़ और किसी शख्स के माफिक या विरोध में बातें करने में ही मशगूल हैं। टीआरपी जैसा खेल भी है जो यह शक पैदा करता है कि इस घिनौने मामले में परदे के पीछे से कई और इज्जतदार साहित्यकार भी रहे। दरअसल, लेखन के अच्छे-बुरे होने का फैसला ऐसे घटिया अभियानों से नहीं होता, वक्त करता है।

Arun Arora said...

आप के लेख को १००% समर्थन . खुद को साहित्य और पत्रकारिता का खुदा मानने वाले कितनी विरोधाभासी जिंदगी जी रहे है . अपने मन का ना होने पर कितनी गंदगी और नीचता पर उतर आते है इसका ज्वलंत उदाहरण है ये

azdak said...

इस तरह की सफ़ाई से ज़्यादा, हिन्‍दी ब्‍लॉग पर पटकी जा रही ऐसी लिखायी-पिटवायी को गंभीरता से लेने की ज़्ररूरत नहीं. सुन रहे हैं, मंगलेश?
शायद बेहतर हो इस तरह से इस-किस-जिस पर कीचड़ उछालनेवाली लिखाइयों के खिलाफ़ कानूनी कैसी पहलकदमी हो सके, कानून के चप्‍पल लगाये जा सकें, इस पर भाई लोग संयत रौशनी डालें.

Unknown said...

देखिये, यह प्रकरण हिंदी जगत के दारिद्रय को उजागर करता है. रचनाओं के बजाय तमाम कुंठाओं के प्रदर्शन पर शक्ति लगायी जा रही है. अब क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि जलेस हो या जसम सब जगह एक पतन जैसा वातावरण बढ़ रहा है. विचार से कन्नी कट जाने पर ऐसा ही होता है. मंगलेश जी की पीढी भी अछूती नहीं इससे.
जो कुछ ब्लॉग और पत्रिकाएं कर रही हैं, वह नितांत निंदनीय है. मंगलेश जी अच्छे, बहुत अच्छे कवी हैं, हालाँकि असद आदि की तरह यह कहना बेवकूफी है कि वे बस महानतम कवी या संत व्यक्ति हैं, जैसे असद जैसे बेहतरीन कवि को कुछ कथित महान मुसलमान कवि बताने लगे थे. ये सब ऐसा ही है जैसे कोई यौन कुंठित हिंदी अध्यापक दिल्ली विवि से पत्रिका छापकर राजेश जोशी को महानतम कहने लगा था. या फिर केदारनाथ सिंह ने तमाम उम्र इसी बात में लगा दी कि किसी तरह रघुवीर सहाय छोटे कवि साबित हो जाएँ. एक-आध को छोड़ दें तो कम ज्यादा लगभग सभी पुरस्कार और नंबर १, नंबर २ की सियासत करने वाले कवि दिखाई दे रहे हैं. मंगलेश भी अपवाद नहीं हैं पर कर्मेंदु जैसे घटिया लोग कहाँ के साहित्यकार हैं, समझ नहीं आता. बेहतर हो कि लेखक और पाठक दोनों विचारधारा के स्टार पर लड़ें. नामवर सिंह की तरह नहीं

मुनीश ( munish ) said...

kafi sangeen hai ye masla . zimmedar aur muazziz logon ko adab se baat rakhte dekhna mujhe bhala laga. The poet in question should also come forward to clear the air now!

मुनीश ( munish ) said...

मेरा ख्याल है के कवि के पक्ष में खड़े सभी लोग काफ़ी सुलझे हुए हैं मगर मान-अपमान , अमरीका जापान को जितना तूल बहस में दिया जा रहा है उसके बर-अक्स एक अहम् मुद्दा बिल्कुल नज़र अंदाज़ हो रहा है और वो है इस ईनाम के amount का । आज के ज़माने में कोई तो बेंच -मार्क आख़िर होना चाहिए जो ये तय करे के भाई इस से कम राशी का पुरस्कार नहीं होना चाहिए । चूंकि ये जो पचास हज़ार की रकम है वही अपने आप में काफ़ी शरमनाक है ।

शिरीष कुमार मौर्य said...

मैं कहूंगा कि मुनीश जी ईनाम की बाबत जो कह रहे हैं, बिलकुल सही कह रहे हैं। आखिर कब तक सरकारें इस तरह के झुनझुने पकड़ाती रहेंगी हमारे वरिष्ठ लेखकों को! निजी पुरस्कार ढाई लाख से कम कोई नहीं है। इस बात में बहुत जान है मुनीश जी!

नीलोफर said...

इससे पता चला कि इविवि की तरह साहित्य अकादमी भी परमस्वायत्त है और वह भाजपा राज के दौरान मिला मंगलेश जी का मेहनताना था।...इतनी भी जसमबाजी क्या।

Nakul said...

Jasam pretends to be very correct but fails. All these guys had been denigrating the contribution of Namwar Singh, Rajendra Yadav etc by launching malicious propaganda against them, and now desperate to defend their beloved Manglesh. Quite smart. Their party is now pale shadow of CPM in every matter despite all rhetoric and having alliance also in Bihar with CPM. First, they betrayed naxal movement, now getting more opportunist than CPM.