Thursday, September 18, 2008

नए कबाड़ी का आत्मतर्पण (आत्मसमर्पण)

असोक दा बोले कबाड़खाने पर आकर अपना सराद करो करके। सराद कैसे करना हुआ पता ही नहीं ठहरा। नामकरण कैसे करते हैं तक नहीं मालूम हुआ मुझको। अब मुझ खसी को तो बामणगिरी आने वाली हुई नहीं, जनम-जनमान्तर के नास्तिक ठहरे। इजा कहने वाली हुई सौ मंदिर गिरे होंगे तब तेरा धरती पर आने का पिलान बना होगा। मंदिर का तो पता नहीं पर मलखौले के त्याड़ज्यू जरूर टपक गए मेरे पैदा होने वाले दिन। उन्होनें ही मेरा नामकरण करना था, मौका ही नहीं मिला उनको। उनके बेटे, नान त्याड़ज्यू ने अपनी दुकान का उद्घाटन मेरे नामकरण से ही किया कहते हैं। हो न हो उन्ही से कोई गड़बड़ हो गई होगी संस्कार करने में। अब जो भी हो जो बनना-बिगड़ना था सो बन-बिगड़ गए। वो अद्वैतवाद वाले क्या कहने वाले हुए, एको ब्रह्म, द्वितियो नास्ति। हमारा तो एको ब्रह्म भी गड़बड़ा गया है, सिर्फ़ ना अस्ति बच रहा है।

इधर कबाड़ी लोग अपना कबाड़ी धर्म निभाने की बात कहते हैं। मुझे तो अभी से डाउट हो गया है। धर्म तो बड़ी बात है मुझसे तो आजतक अपना अधर्म भी नहीं निभाया गया। कभी-कभी चल देने वाला हुआ तिरुपति बालाजी। ब्वारी कहने वाली हुई कि मुझको तो तुम्हारा धरम-करम समझ में नहीं आता हो।

खैर जो भी हुआ। एक कबाड़ी बनने की कमी थी वो असोकदा ने पूरी कर दी। अपना ठील-ठीया छोड़कर पहले ही निकल पड़े थे और अब जो इतने सालों में कबाड़ इकठ्ठा किया है वो सब कबाड़खाने पर सजाने का पिलान कर रिया हूँ। तो सुधीजनो, तैयार रैना। कबाड़ी के पास से कुछ भी निकल सकने वाला हुआ। चकराने की नही रखी इधर।


ये तो हुई मज़ाक की बात। तर्पण करने के अलावा मुझे अपने बारे में कुछ कहना भी पड़ेगा ही।

बरसों पहले दिल्ली में कामर्स पढ़ते हुए एक खुराफ़ात दिमाग में आई कि चलो हिन्दी में पढ़ाई की जाए। हिन्दी के हमारे लेक्चरर ने बहुत गरियाया-लतियाया। बोले साले भूखों मरोगे। हमें देखो – चालीस के हो गए। आजतक एक अदद नौकरी नहीं मिली। अपन कहाँ सुनने वाले थे। कुछ अरसा, जबतक खुराफ़ात दिमाग में रही, एम ए चालू रखा। पढ़ना जो 13-14 साल की उम्र में शुरु हुआ था, इस दौरान बढ़ गया। हिन्दी का काफ़ी कुछ चाट गया। उन दिनों राजन सिंह नेगी और राजेश डोबरियाल सरीखे दोस्तों के साथ कुतुब इंस्टिट्यूश्नल एरिया की शांत हरियाली सड़क के किनारे टंकू के ढाबे पर एक-एक परांठे पर साहित्य (कुसाहित्य) पर चर्चाएँ घंटों खिंचा करती थीं। दीपक डोबरियाल के प्रेम-प्रसंगों के अंतरंग क्षणों की चर्चाएँ उसके थिएटर के कार्य-कलापों से ज़्यादा मुखरित रहती थीं।

सांस्कृतिक गलियारों में चप्पलें फटकानी शुरु कीं। साहित्यकार नाम का जो जीव होता है उसे ढूँढकर खंगालना शुरु किया। बहुतों ने काटा। एक बार अल्मोड़ा जाते हुए बस में एक सुधी साहित्यकार टाइप बंधु ने पूछ लिया हिन्दी में कौनसा उपन्यास पसंद है। उन्ही दिनों शेखर: एक जीवनी खत्म किया था और उसी में गोते लगा रहा था सो जोश में कह दिया। वे पिल पढ़े। बोले यही एक उपन्यास मिला था पढ़ने को? कुछ समय बाद समझ आएगा। समझ आने में कुछ साल लग गए। जान बचाने के लिये चेख़व के तीन नाटकों के नाम भी गिना दिये और कसप की बात भी छेड़ दी। तो भी रास्ते भर लताड़ते रहे कुछ और भी करने के लिये। बात भेजे में अटक गई। जब सुध आई तो देखा कहीं नहीं जा रहे। सोचा चलो जर्मन ही सीख लेते हैं। हिन्दी पीछे छूटती गई। किताबों के बंडल में तब भी हिन्दी ही भरी पड़ी थी, अब भी है। भाषा की पूंछ पकड़कर जहां भी पहुंचा लगता रहा कुछ बाकी रह गया है।

बंगलौर आकर तो दाल-रोटी ने पूरा निगल लिया। किताबें सिर्फ़ सजाने भर को रह गईं। वे किताबें जो पहले खरीदना पहले औकात के बाहर थीं अब बुक-शेल्फ़ की शोभा बढ़ा रही थीं मगर पढ़ना चार सालों तक लगातार टलता रहा।

किसी तौर शुरुआत हो इसलिये ब्लोगिंग पर उतर आया। यहाँ आकर देखा तमाम तरह के जीव मौजूद हैं। किसी ने कहा था, “America is a country where you will find at least five examples of everything.” ब्लोगिंग पर आकर लगा ये बात जस की तस ब्लोगिंग पर लागू होती है। जो भी है, ब्लोगिंग मेरे लिये पढ़ने-लिखने का सालिड माध्यम है। संजय चतुर्वेदी, राजेश जोशी जैसों को, जो कालेज के दिनों में पढ़ने के बाद दिमाग के कोल्ड स्टोरेज में जम चुके थे, यहाँ आकर फिर पढ़ने का मौका मिला। मज़े की बात तो ये कि जिनको अकसर पत्रिकाओं में पढ़ा था मालूम होता है वो सब कबाड़ी हो गए हैं। अस्तु। अब तो खैर कबाड़ी मैं भी बना ही दिया गया हूँ। दुकान फिलहाल खाली है इसलिये कुछ दिन चुप रहूंगा।

15 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

स्वागत है महेन !

Ashok Pande said...

सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले ... भौब्बड़िया!

अमिताभ मीत said...

स्वागत है महेन भाई. अच्छा है कुछ कबाड़ी बढ़ें .... वरना दानाई में तो जो हाल है सो देख लिया.

"चैन आएगा कहाँ मुझ को ख़ुदा ही जाने
दश्त में भी वही वहशत है जो थी घर में मुझे"

Vineeta Yashsavi said...

स्वागत है आपका महेन जी!

Geet Chaturvedi said...

आइए महेन बाबू. स्‍वागत है.

deepak sanguri said...

mahen bhai,sab kuch bada he mazedar hai,khus kitta......

vipin dev tyagi said...

हम जिस दौर में हैं..वहां शीशे से भी कहा जाता है..कि बेटा वहीं दिखाओ जो मैं कह रहा हूं..असलियत बंया करने की जरूरत नहीं..लेकिन महेशजी..अपने को आप को खोलकर..कुछ कहना सबसे बड़ी ईमानदारी है..मेरा तो सही मानना है..बहरहाल...उम्मीद है कि आप की कबाड़ में कुछ ...नौले के पानी की तरह मीठा और स्वच्छ जरूर लिखा हुआ मिलेगा...
विपिन देव त्यागी

siddheshwar singh said...

सुआगत है भय्ये
आप हियां आए और किया चइये.
खुशामदीद!!

मुनीश ( munish ) said...

Dear Mahen,
keep coming here bhai.
( Munish)

Tarun said...

लो दाज्यू आप भी कबाड़ी बन गये ठेरे, स्वागत है

अनूप शुक्ल said...

गुड है जी! स्वागत भी!

महेन said...

वो क्या कह गए ग़ालिब कका,
"तमाशा कर ऐ महवे-आईनादारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं"

बस वही चल्लिया है इधर कू। चालू रखना भाई लोग कबाड़खाने का तमाशा।

ravindra vyas said...

स्वागत है।

दीपा पाठक said...

स्वागत है महेन।

Unknown said...

स्वागत है।