Sunday, June 22, 2008

भोजपुरी की पहली फिल्म का एक गीत-'लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवां'


परसों रात में जब झमाझम बारिश हो रही थी और छत से पानी का संगीत बरस कर कानों के रास्ते हृदय तक पहुंच रहा था तब अपने आशियाने में सुरक्षित बैठकर हम भोजपुरी की पहली फिल्म देख रहे थे। विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी द्वारा निर्मल पिक्चर्स के बैनर तले निर्मित और कुन्दन कुमार द्वारा निर्देशित 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' १९६१ में रिलीज हुई. भोजपुरी सिनेमा का आगाज करने वाली यह फिल्म श्वेत श्याम है लेकिन भोजपुरी माटी का रंग इसके हर फ्रेम में विद्यमान है. आज भोजपुरी सिनेमा की जो दुर्गति है वह 'इसी' या 'उसी' रंग के गायब होने या गायब कर दिए जाने के कारण है जो रंग इस फिल्म में दिखाई देता है. आज भोजपुरी फिल्मों का बाजार भाव बहुत ऊंचा है,वे धड़ाधड़ बन-बिक रही हैं लेकिन उनमें और जो कुछ भी हो सो सो हो परंतु 'भोजपुरी' शायद ही कहीं है. यहं पर मैं बोली या भाषा की बात नहीं कर रहा हूं. मैं तो उस 'एसेंस' की बात कर रहा हूं जो 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' में और उस दौर की 'लागी नाहीं छूटे राम', 'हमार संसार' जैसी फिल्मों में है और काफी बाद तक 'बलम परदेसिया' जैसी फिल्मों में दिखाई देती है.


'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' में कई कथायें एक साथ हैं। एक स्त्री के जीवन की कारुणिक कथा होने के साथ ही छोटे किसान व्यथा,नशाखोरी नफा- नुकसान, सूदखोरी का चक्र-कुचक्र, स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता, जाति विहीन समाज का निर्माण,ग्रामोत्थान में युवकों की सक्रिय भागीदारी जैसे कई कोण इस फिल्म में दिखाई देते हैं.और हां प्रेम- प्यार का कोण तो है ही. दरअसल उस दौर में हिन्दी सिनेमा के ये प्रिय और प्रासंगिक कोण हुआ करते थे. उस समय तक भले ही साहित्य-समाज में मोहभंग व्याप गया था और व्यक्त भी हो रहा था लेकिन सिनेमा में 'नवनिर्माण' का रोमानी दौर चरम पर था. यह फिल्म भी उसी धारा को लेकर चलने वाली है.


'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो'में मुख्य भूमिकायें नजीर हुसैन,कुमकुम, असीम कुमार, तिवारी,पद्मा खन्ना ,लीला मिश्रा,हेलन आदि हैं.इसकी कथा-पटकथा नजीर हुसैन ने लिखी है, संगीत चित्रगुप्त का है और गीत शैलेन्द्र ने लिखे हैं. अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी है तो जरूर देखें और अगर पहले कभी देखी है तो एक बार फिर देखें आज और कुछ नहीं तो कम से कम इसका एक गीत लता जी के स्वर में सुन ही लेते हैं-

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