Sunday, June 1, 2008

और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं



बेग़म अख़्तर की आवाज़ में फ़िराक़ गोरखपुरी की एक मशहूर ग़ज़ल.



सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क़-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

यूं तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़
मगर ऐ दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

मुदते गुज़रीं तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं

मुंह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

(सौदा:पागलपन /सनक, तर्क़-ए-मोहब्बत: प्रेम का त्याग

3 comments:

अमिताभ मीत said...

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क़-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
कल दफ्तर से घर आते हुए ये ग़ज़ल सुन रहा था ..... अशोक भाई ऐसा शेर कोई कैसे लिखता होगा ??
क्या सोच कर लिखता होगा ?? समझ नहीं आता. बहरहाल आज सुबह सुबह फिर से ये ग़ज़ल सुनवाने का शुक्रिया.

sanjay patel said...

अब कहाँ रहे ऐसा लिखने वाले और गाने वाले.लगता है ख़ैयाम साहब की कम्पोज़िशन है. अख़्तरी आपा न होतीं तो गायकी के दर्द को कौन ज़ुबान देता अशोक भाई.उनके जैसी अज़ीम गुलूकारा भारत में जन्मी और हम उन्हें सुन रहे हैं....ज़हेनसीब !

Neeraj Rohilla said...

अशोक जी,
मन प्रसन्न हो गया इस रचना को सुनकर ।

मुदते गुज़रीं तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं ।

इस शेर के तो क्या कहने,