Thursday, May 8, 2008

अमेरिका चलो तोहफ़े बांटते हैं आपस में

भारतीयों में अधिक खाना खाने की प्रवृत्ति के बढ़ने से 'चिन्तित' अमेरिका दशकों से कहां-कहां क्या-क्या कितना खा चुका है, यह विस्तार में जाने वाला मसला नहीं रह गया है। दुनिया भर में उसके दैत्यों ने सारा कुछ इस कदर साफ़ और अनावृत्त तरीके से किया है.

ईराक़ संभवतः अभी भी आप लोगों के जेहन में बचा होगा। और मवेशियों की तरह सद्दाम हुसैन का जबड़ा खुलवाये जाने के वीडियो की भी याद होगी. सद्दाम को फांसी दिये जाने का वीडियो तो अमरीकी नंगई का एक ट्रेलर भर था.

युद्ध की विभीषिकाएं लगातार झेलते रहने को अभिशप्त इसी ईराक़ ने आधुनिक साहित्य जगत को सादी यूसुफ़ जैसा महाकवि दिया। उनकी कुछ कविताएं आप पहले भी यहां देख चुके हैं. सादी की एक बहुत लम्बी कविता है 'अमेरिका! अमेरिका!'. अमरीकी महाकवि वॉल्ट व्हिटमैन की कविता शैली की याद दिलाती यह कविता आधुनिक समय का एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. (प्रसंगवश बता देना उचित रहेगा कि सादी यूसुफ़ ने वॉल्ट व्हिटमैन का अरबी में अनुवाद भी किया है)

कविता बहुत लम्बी है और उसे यहां पूरा का पूरा दिया जाना संभव नहीं है। मैं उसका एक हिस्सा आपके सामने पेश कर रहा हूं जिसमें अमरीका की कारगुज़ारियों से आजिज़ आ चुका और तबाह कर दिया गया एक मुल्क अमरीका को आपस में तोहफ़े बांटने का प्रस्ताव देता है:

मुझे भी जीन्स, जैज़ और 'ट्रैज़र आइलैण्ड' अच्छे लगते हैं
और जॉन सिल्वर के तोते और न्यू ऑर्लियन्स के छज्जे.
मुझे प्यार है मार्क ट्वेन से, मिसीसिपी की स्टीम बोटों
और अब्राहम लिंकन के कुत्तों से.
मुझे प्यार है गेहूं, मक्का के खेतों और वर्जीनियाई तम्बाकू की महक से
लेकिन मैं अमरीकी नहीं हूं.
क्या यह बात काफ़ी नहीं तुम्हारे फ़ैण्टम पाइलट के लिये
मुझे वापस प्रस्तर - युग में पहुंचा देने को!


न मुझे तेल की ज़रूरत है, न स्वयं अमरीका की, न हाथी की न गधे की.
मुझे बख़्शो पाइलट, बचा रहने दो मेरे घर की छत को,
खजूर की पत्त्यों और लकड़ी के पुल को.
न मुझे तुम्हारा गोल्डन गेट चाहिये, न स्काइस्क्रेपर्स
न मुझे गांव चाहिये, न न्यूयॉर्क ...


इतनी दूर यहां बसरा तक तुम क्यों आये जहां हमारी देहलियों पर मछलियां तैरा करती थीं?
हमारे यहां सूअर तबाही नहीं मचाते.
मेरे पास बस ये भैंसें हैं - अलसाई हुईं, फूल चबाती हुईं
मुझे बख़्शो सिपाही
तैरती हुई मेरी झोपड़ी और मछली मारने वाला मेरा भाला छोड़ो.
मेरी सैलानी चिड़ियों और हरे पंखों को बख़्शो ...


मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं
मैं तो वह हूं जो धान के खेतों में घुटनों घुटनों पानी में चलता है.
मुझे अकेला छोड़ दे मेरे अपने अभिशाप के साथ
मुझे तुम्हारी क़यामत नहीं चाहिये ...


अमेरिका
चलो तोहफ़े बांटते हैं आपस में. तस्करी से लाई गई अपनी सिगरेटें ले लो
और हमें आलू दो
जेम्स बॉन्ड की सुनहरी पिस्तौल वापस ले लो
और हमें दो मर्लिन मुनरो की किशोरियों सी लज्जा.
पेड़ के नीचे धरी हैरोइन की सिरिंज ले लो
और हमें दो वैक्सीनें.
अपने मिशनरियों की किताबें ले लो
और हमें कागज़ दो ताकि हम तुम्हारी निन्दा में कविता लिख सकें.
हमसे वह ले लो जो तुम्हारे पास नहीं है
और हमें वह दो जो हमारे पास है.
अपने झण्डे की धारियां ले लो
और हमें दो सितारे.
अफ़गानी मुजाहिदीनों की दाढ़ियां ले लो
और हमें दे दो तितलियों से भरी
वॉल्ट व्हिटमैन की दाढ़ी.
सद्दाम हुसैन को ले लो
और हमें दे दो अब्राहम लिंकन
या हमें और कोई मत दो ...


(इस कविता के साथ लिंक लगाने की प्रक्रिया में मुझे खुद काफ़ी हैरत हुई कि कबाड़ख़ाने में काफ़ी पहले मैं सादी यूसुफ़ की एक दर्ज़न से ज़्यादा कविताएं पोस्ट कर चुका हूं. यदि आप पढ़ने के शौकीन हैं तो 'अपनी पसन्द का माल छांटें' शीर्षक के नीचे सादी यूसुफ़ वाले सैक्शन में तशरीफ़ ले जाएं)

5 comments:

Geet Chaturvedi said...

बहुत अच्‍छे.

डॉ .अनुराग said...

लाजवाब....बेहतरीन....दिल खुश हो गया.....white house इसे मेल नही कर सकते क्या ?

Unknown said...

बहुत ही खूब कबाड़ जी - क्या कैते हैं - बौफ्फाईन ? - दुनिया की बड़ी पुरानी कौम को अब हाथी और गधे मिले - चाह कर तारे नहीं ? - फिलहाल आज बनारस से कबीरदास मिल गए हैं - लेकिन कैसेट में ? अब क्या करें? - मनीष

गौरव सोलंकी said...

वाकई सादी युसुफ़ महाकवि हैं। अब कबाड़खाने पर इन्हें ढूंढ़कर और पढ़ता हूं।

पेड़ के नीचे धरी हैरोइन की सिरिंज ले लो
और हमें दो वैक्सीनें.
अपने मिशनरियों की किताबें ले लो
और हमें कागज़ दो ताकि हम तुम्हारी निन्दा में कविता लिख सकें.
हमसे वह ले लो जो तुम्हारे पास नहीं है
और हमें वह दो जो हमारे पास है.
अपने झण्डे की धारियां ले लो
और हमें दो सितारे.
अफ़गानी मुजाहिदीनों की दाढ़ियां ले लो
और हमें दे दो तितलियों से भरी
वॉल्ट व्हिटमैन की दाढ़ी.
सद्दाम हुसैन को ले लो
और हमें दे दो अब्राहम लिंकन
या हमें और कोई मत दो ...

क्या बात है...
अशोक जी, बहुत बहुत शुक्रिया

विजय गौड़ said...

अशोक भाई टिप्पणी के साथ कविता और भी स्पष्ट हुई है. महत्वपूर्ण है. सामयिक.