Monday, April 28, 2008

जीना एक संगीन मामला है तुम्हें प्यार करने की तरह


पिछली पोस्ट में आपने नाज़िम हिकमत की इस कविता श्रृंखला का पहला हिस्सा पढ़ा था. जेल से अपनी पत्नी पिराये को लिखी इन कविताओं में आप नाज़िम के विचारों की सच्ची और उदात्त उड़ान को देख सकते हैं. वह अपनी पत्नी को भी उतना ही प्रेम करता है जितना ईमानदार, मेहनती, भले लोगों को. नाज़िम ने एक जगह लिखा था:

दोस्त-
उन्हें कभी मैंने नहीं देखा है
फिर भी हम एक साथ मरने को उद्यत हैं
एक - सी आज़ादी पर
एक - सी रोटी पर
एक - सी उम्मीद पर

(सभी अनुवाद: वीरेन डंगवाल, 'पहल' पुस्तिका - जनवरी-फ़रवरी १९९४ से साभार)

२० सितम्बर १९४५

इतनी देर गये
पतझड़ की इस रात
मैं भरा हूं तुम्हारे शब्दों से
शब्द
अन्तहीन जैसे समय और पदार्थ
नग्न जैसे आंखें
भारी जैसे हाथ
और चमकीले जैसे सितारे
तुम्हारे शब्द आये
तुम्हारे दिल, देह और दिमाग़ से.
वे तुम्हें लाये:
मां
पत्नी
और दोस्त.
वे थे उदास पीड़ादायी प्रसन्न उम्मीदभरे बहादुर -
तुम्हारे शब्द मानवीय थे ...


२१ सितम्बर १९४५

हमारा बेटा बीमार है
उसका पिता है जेल में
थके हाथों में तुम्हारा भारी सिर
हमारू क़िस्मत है दुनियां की क़िस्मत जैसी ...
लोग लाते हैं अच्छे दिन
हमारा बेटा ठीक हो जाता है
जेल से बाहर आ जाता है उसका पिता
तुम्हारी सुनहली आंखें मुस्कुराती हैं:
हमारी क़िस्मत है दुनियां की क़िस्मत जैसी.

२२ सितम्बर १९४५

मैं एक किताब पढ़ता हूं
तुम हो उनमें
मैं एक गीत सुनता हूं
तुम हो उनमें
मैं रोटी खाता हूं
तुम मेरे सामने बैठी हो;
मैं काम करता हूं
और तुम बैठी देखती हो मुझे.
तुम जो हो हर कहीं मेरी 'सदा विद्यमान'
मैं तुम से बात नहीं कर सकता,
हम एक दूसरे की आवाज़ें नहीं सुन सकते:
तुम हो मेरी आठ साला विधवा ...


२३ सितम्बर १९४५

वह क्या कर रही होगी अभी
ठीक अभी, इसी पल?
क्या वह घर में है? या बाहर?
क्या वह काम कर रही है? लेटी है? या खड़ी है?
शायद उसने अभी-अभी उठाई अपनी बांह -
वाह, ऐसे में कैसे उसकी गोरी गदबदी कलाई उघड़ जाती है!
वह क्या कर रही होगी अभी?
ठीक अभी? इसी पल?
शायद वह थपथपा रही है
गोद में एक बिल्ली का बच्चा.
या शायद वह टहल रही है, रखने को ही एक कदम -
वे प्यारे पांव जो ले आते हैं उसे सीधे मुझ तक
मेरे इन अन्धेरे दिनों में -
और वह किस चीज़ के बारे में सोच रही है -
मेरे?
उफ़ मुझे नहीं मालूम
गली क्यों नहीं ये सेमें?
या शायद
क्यों ज़्यादातर लोग हैं इतने नाख़ुश?
वह क्या कर रही होगी अभी?
ठीक अभी? इसी पल?

२४ सितम्बर १९४५

सबसे सुन्दर समुद्र
अभी तक लांघा नहीं गया.
सबसे सुन्दर बच्चा
अभी बड़ा नहीं हुआ.
हमारे सब से सुन्दर दिन
अभी देखे नहीं हमने.
और सबसे सुन्दर शब्द जो मैं तुमसे कहना चाहता था
अभी कहे नहीं मैंने ...

२५ सितम्बर १९४५

नौ बजे.
गजर बजा शहर के चौराहे पर
किसी भी क्षण बन्द हो जाएंगे वार्ड के दरवाज़े.
इस बार कुछ ज़्यादा ही लम्बी खिंची जेल:
... आठ साल.
जीना उम्मीद का मामला है मेरी प्यारी.
जीना
एक संगीन मामला है
तुम्हें प्यार करने की तरह

२६ सितम्बर १९४५

उन्होंने हमें पकड़ लिया,
उन्होंने हमें तालाबन्द किया:
मुझे दीवारों के भीतर,
तुम्हें बाहर.
मगर यह कुछ नहीं.
सबसे बुरा होता है
जब लोग - जाने - अनजाने -
अपने भीतर क़ैद्ख़ाने लिये चलते हैं ...
ज़्यादातर लोग ऐसा करने को मजबूर हुए हैं,
ईमानदार, मेहनती, भले लोग
जो उतना ही प्यार करने लायक हैं
जितना मैं तुम्हें करता हूं ...

३० सितम्बर १९४५

तुम्हारे बारे में सोचना सुन्दर है
और उम्मीद भरा
जैसे सुनना दुनिया की सबसे बढ़िया आवाज़ को
गाना सबसे प्यारा गीत.
मगर उम्मीद काफ़ी नहीं मेरे लिये:
मैं अब सिर्फ़ सुनते ही नहीं रहना चाहता,
मैं गाना चाहता हूं गीत ...

६ अक्टूबर १९४५

बादल गुज़रते हैं लदे हुए ख़बरों से.
मैं मसलता हूं वह ख़त हाथों में जो आया ही नहीं.
मेरा दिल है मेरी पलकों की कोरों पर.
असीसता पृथ्वी को जो विलीन होती जाती दूरी में.
मैं पुकार डालना चाहता हूं - "पि रा ये !
पि रा ये !"

3 comments:

PD said...

सभी कवितायें दिल को छूने वाली.. मुझे सबसे खूबसूरत ये वाली लगी..

मैं एक किताब पढ़ता हूं
तुम हो उनमें
मैं एक गीत सुनता हूं
तुम हो उनमें
मैं रोटी खाता हूं
तुम मेरे सामने बैठी हो;
मैं काम करता हूं
और तुम बैठी देखती हो मुझे.
तुम जो हो हर कहीं मेरी 'सदा विद्यमान'
मैं तुम से बात नहीं कर सकता,
हम एक दूसरे की आवाज़ें नहीं सुन सकते:
तुम हो मेरी आठ साला विधवा ...

Vineeta Yashswi said...

अच्छी कवितायें है। पढ़कर अच्छा लगा

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बहुत अच्छी कविताएं, पढ़वाने के लिए शुक्रिया


जीना उम्मीद का मामला है मेरी प्यारी.
जीना
एक संगीन मामला है
तुम्हें प्यार करने की तरह