Monday, February 25, 2008

लगे रहो पर सावधान !

अशोक की बात से मेरी भी सहमति है। हम भले ही कबाड़ी हैं, पर कबाड़ भी छांट कर लेने की चीज़ है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी का कोई सम्मानित रचनाकार हमें अपनी रचना के प्रकाशन से मना करेगा। हम हिन्दी वालों की यही समस्या है - याने के अधजल गगरी वाली !

शिरीष कुमार मौर्य

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