Monday, February 18, 2008

दुनिया मेरे आगे - एक आम औरत की खास कहानी

आर. अनुराधा

जनसत्ता में आज (यानी 18 फरवरी , 2008 को ) ये लेख दुनिया मेरे आगे कॉलम में छपा है। कहानी एक बहादुर महिला की है जो इस समय देश की चर्चित फोटोग्राफर होने की वजह से जानी जाती हैं। ये उनकी निजी कहानी है। ब्लॉग जगत के लिए वो लेख यहां पेश है।

यह एक आम हिंदुस्तानी औरत की उससे भी आम कहानी है। फर्क सिर्फ यह है कि इस औरत ने अपनी कहानी का सूत्र आखिरकार अपने हाथ में लेने की हिम्मत जुटाई और समाज के हाथों में सब कुछ न छोड़ कर जिंदगी को अपने मुताबिक आगे बढ़ाया। तमाम रुकावटों के बावजूद अपने आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को जिंदा रखा और उनके सहारे उन ऊंचाइयों ( समुद्रतल से 18000 फीट) तक पहुंची जहां पुरुष भी आम तौर पर जाने की हिम्मत नहीं कर पाते।

उसका बचपन एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार में पिछड़े से इलाके में लड़की होने की तमाम कठिनीइयों और बंदिशों के बीच बीता। पढ़ने की ललक तो थी पर वैसे बेहतरीन नतीजे लाने के साधन नहीं, शायद साहस भी नहीं। इसी बीच एक दिन बड़ा भाई उसकी सगाई कर आया। उसे पता चला तो उसने मना कर दिया कि शादी नहीं, वह तो कानून की पढ़ाई करेगी। इस बात पर उसे फुटबॉल बनाकर दनादन पीटा गया, बांध कर एक कोने में पटक दिया गया और खाना-पीना बंद कर दिया गया। और फिर तय दिन लाल साड़ी में बंधी, सिंदूर-आलता और गहनों से सजी उस पोटली को गाजे-बाजे के साथ एक ऐसे इंसान के हवाले कर दिया गया जिसके लिए बीबी का मतलब था- उसकी शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक जरूरतों को पूरा करने वाली एक गुलाम।

यहां उसे मिली और भी ज्यादा मार-पिटाई, गाली-गलौच दूध उफन जाने जैसी छोटी बात पर भी। कोई 10 साल तक यह सब उसकी दिनचर्या में शामिल रहा। बचाव और राहत के लिए उसने माता-पिता की तरफ देखा तो उन्होंने नेक सलाह देकर अपना कर्तव्य पूरा किया- "क्यों हंगामे करती हो। चुपचाप सब सह जाओ। शादी हो गई है, अब निभाना ही पड़ेगा।"

फिर एक दिन एक छोटी सी घटना ने अनजाने ही उसके साहस और आत्मसम्मान को सोते से जगा दिया। घर की बालकनी से उसका फेंका हुआ कूड़ा नीचे से गुजर रहे व्यक्ति पर गिरा तो वह गुस्से में आग-बबूला होकर ऊपर घर तक आ पहुंचा। लाख माफी मांगने पर भी वही अभद्र भाषा और बालकनी से उठाकर सीधा नीचे फेंक देने की, जान से मार देने की धमकी! इस पर भी पति ने उसका बचाव नहीं किया। उसने खुद ही, जाने कहां खो गई हिम्मत का सिरा पकड़ा और कड़क आवाज में धमकी का जवाब दिया- ' हाथ लगा के तो देख!' इस पर वह पड़ोसी बुड़बुड़ाता हुआ भाग निकला। इधर, जिसे वह बरसों से अपना सुरक्षा कवच समझे बैठी थी, वह उसी की ओर मुंह किया हथियार साबित हुआ। जिससे सांत्वना के दो शब्दों की उम्मीद कर रही थी, वह खुद फिर गाली-गलौच और मार-पीट पर उतर आया। उस लड़की के भरोसे का तार-तार हो चुका पर्दा आखिरकार पूरी तरह जमीन पर आ गिरा।

यह उसकी सहनशीलता की हद थी। उसे समझ में आ गया कि अपनी ताकत उसे खुद बनना पड़ेगा। और वह घर छोड़ कर निकल पड़ी अपने लिए बेहतर जगह की तलाश में। एक स्वयंसेवी संस्था ने मदद की। छोटे-मोटे रोजगार भी किए। फिर एक अच्छा व्यक्ति और कुछ अच्छी किताबें मिलीं जिनसे पुरुष जाति के प्रति उसका भरोसा बना। फर एक दिन उस व्यक्ति से भेंट में मिले एक कैमरे ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। यह उसके मन के भावों को बाहर लाने का जरिया बना तो बाहर की दुनिया को देखने-जानने का जरिया भी। कैमरे के रूप में उसे एक साथी मिला जो 20 साल से उसके साथ है, आस-पास है और उसकी दुनिया के केंद्र में है।

आज उम्र के चालीसवें दशक में छह साल बिता चुकी इस लड़की को सब महिला फोटो पत्रकार सर्वेश के नाम से जानते हैं जिसका कैमरा जीवन के विरोधाभासों को उभार कर सामने लाने से चूकता नहीं, बच्चों और औरतों की जिंदगियों के उन गुम हुए पलों को शब्द देता है जो एक मुद्रा में अपनी पूरी कहानी कह जाते हैं। रोशनी और अंधेरे का संतुलन सर्वेश का कैमरा न परख और पकड़ पाए, यह नहीं हो सकता। कैमरे के लिए दृष्यों की और अपने लिए जानने की उस पुरानी और अब तक जीवंत भूख को मिटाने के लिए सर्वेश अकेले-दुकेले कई बार हिमालय की कठिन ऊंचाइयों को फतह कर चुकी है, करगिल युद्ध की अपनी तसवीरों के लिए भारत सरकार से पुरस्कार पा चुकी है, अपने चित्रो की एकल प्रदर्शनियां कर चुकी है और आखिरकार सफल फ्रीलांस फोटोग्राफर के तौर पर खुद को स्थापित कर चुकी है।

4 comments:

Tarun said...

ये हुई ना बात, ऐसी ही पोस्ट की जरूरत है जो प्रेरणा का काम करे उन लोगों के लिये जो हताश हो चुके हैं। ऐसे ही जुझारूपन और हिम्मत को सामने लाने की जरूरत है। सच में सर्वेश बहुत ही हिम्मती महिला हैं।

दीपा पाठक said...

सुंदर पोस्ट। हताशा के अंधेरों के बीच से निकली जुझारूपन के उजाले की ये किरणें ही भरोसा कायम रखती हैं कि जीवन सुंदर है बस जीने की जीवटता चाहिए। कबाङखाने में कबाङ की विविधता इसे मालामाल किए जा रही है।

स्वप्नदर्शी said...

मुझे उम्मीद है कि अब सर्वेश ने लोगो पर कूडा फेकना छोड दिया होगा. जो लोग उपर् से कूडा फेकते है, उनके लिये मेरे दिल मे कोई सहानुभूति नही है.

पर जहा तक इस कहानी का सवाल है, कूडा फेकने की घटना मात्र से ये कहानी शुरु नही हुयी होगी. एक पूरी प्रक्रिया होगी, और इतनी अचानक तो नही. फिर घर छोडने के बाद वापस जाने के दबाव, कैसे झेले? किन लोगो ने मदद की? गुजारा कैसे चला? कोन लोग थे जो मदद के लिये सामने आये? कोई इस तरह का रीसोरस बाकी औरतो के लिये है कही?
कैसे सर्वेश को ये लोग मिले, कैसे उनकी तस्वीरे पह्लेपहल छपी?
अगर कुछ गहरायी से ये कहानी लिखी होती तो शायद एक अच्छा दस्तवेज़ बनती.

Vineeta Yashswi said...

is post ko par ke bahut achha laga
bahut prernadaayak post bheji hai apne.