Sunday, February 17, 2008

वेब दूनिया में कबाडख़ाना उर्फ़ रद्दी-पेप्पोर के दाम बढे

वेब दुनिया ने अपने ताज़ा चिट्ठा चर्चा में कबाडख़ाना को बडी अहम जगह दी है. इस स्तंभ की लेखिका मनीषा पांडेय हैं जो ऐसा लगता है कि एक ख़ास तरह की रुचि से संपन्न हैं. अपने अब तक के चर्चों में उन्होंने जताया है कि ब्लॉग हलचल में उल्लेखनीय क्या है.
कबाड़खाने के कबाड़ के बारे में कुछ बातें
ब्‍लॉग-चर्चा में आज अशोक पांडे और साथियों का कबाड़खाना


वैसे तो कहने को है कबाड़खाना, लेकिन ऐसा कबाड़ कि वहाँ घंटों रहने को जी चाहे। पेप्‍पोर, रद्दी पेप्‍पोर की गुहार लगाते ढेरों कबाड़ी हैं, इस कबाड़खाने में, और कबाड़ भी इतना उम्‍दा कि क्‍या कहने।

इस कबाड़ के बीच कहीं ट्रेसी चैपमैन‍हैं, तो कहीं विन्‍सेंट वैन गॉग। कहीं फर्नांदो पैसोआ की कविताएँ हैं तो कहीं शुन्‍तारो तानिकावा की बूढ़ी स्‍त्री की डायरी। बहुत कमाल का संगीत है, कविताएँ हैं, संस्‍मरण हैं, अद्भुत रेखाचित्र और तस्‍वीरें हैं और कुछ वीडियो भी।

ब्‍लॉग-चर्चा में आज हम बात कर रहे हैं, अशोक पांडे और उनके साथियों के ब्‍लॉग कबाड़खाना के बारे में। लस्‍ट फॉर लाइफ और जैसे चॉकलेट के लिए पानी के शानदार अनुवाद का काम करने वाले अशोक पांडे लेखक, कवि और अनुवादक हैं। पाब्‍लो नेरुदा, यहूदा अमीखाई और फर्नांदो पैसोआ समेत विश्‍व के तमाम महत्‍वपूर्ण कवियों की कविताओं का अनुवाद उन्‍होंने किया है। अपनी तारीफ में अशोक कहते हैं कि वे पैदाइशी कबाड़ी हैं। उन्‍होंने अपने कुछ और कबाड़ी साथियों के साथ मिलकर कबाड़खाना की शुरुआत की, जहाँ उनकी अब तक की इकट्ठा की गई कबाड़ सामग्री से पाठकों के विचार और मन समृद्ध हो रहे हैं।


जुलाई, 2007 में कुछ दोस्तों के कहने पर अशोक ने ब्‍लॉग शुरू किया, लेकिन शुरू-शुरू में उसे लेकर बहुत गंभीर नहीं थे। सोचा तो था कि गप्‍पबाजी का अड्डा भर होगा ब्‍लॉग, लेकिन यह उससे भी बढ़कर एक महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज बनता जा रहा है, कला, साहित्‍य और संगीत का।

कबाड़खाना एक सामूहिक ब्‍लॉग है, जिस पर प्रसिद्ध लेखक इरफान और कवि वीरेन डंगवाल समेत कई सारे लेखक और ब्‍लॉगर, जो कि मूलत: कबाड़ी हैं, अपना योगदान देते हैं।

ढेरों कबाड़ के बीच एकाएक पाब्‍लो नेरुदा की पद्यात्‍मक आत्‍मकथा की ये पंक्तियाँ हमसे मुखातिब होती हैं :

उनके बग़ैर जहाज़ लड़खड़ा रहे थे
मीनारों ने कुछ नहीं किया अपना भय छिपाने को
यात्री उलझा हुआ था अपने ही पैरों पर -
उफ़ यह मानवता‚ खोती हुई अपनी दिशा !

मृत व्यक्ति चीखता है सारा कुछ यहीं छोड़ जाने पर‚
लालच की क्रूरता के लिए छोड़ जाने पर‚
जबकि हमारा नियंत्रण ढँका हुआ है एक गुस्से से
ताकि हम वापस पा सकें तर्क का रास्ता।

आज फिर यहाँ हूँ मैं कॉमरेड‚
फल से भी अधिक मीठे एक स्वप्न के साथ
जो बँधा हुआ है तुम से‚ तुम्हारे भाग्य से‚ तुम्हारी यंत्रणा से।
तो थोड़ा और आगे बढ़ते ही निकानोर पार्रा की एक तस्‍वीर के साथ उनकी कविता आ जाती है :

मेरी प्रेमिका मेरे चार अवगुणों के कारण मुझे कभी माफ नहीं करेगी :
मैं बूढ़ा हूँ
मैं गरीब हूँ
कम्यूनिस्ट हूँ
और साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुका हूँ

शुरू के तीन अवगुणों की वजह से
मेरा परिवार मुझे कभी माफ नहीं कर सकेगा
चौथे की वजह से तो हर्गिज़ नहीं

अमेरिका की प्रसिद्ध कवियत्री हाना कान की कविता भी तमाम कबाड़ के बीच पड़ी दिख जाएगी :
मेरे दादाजी
जूते और वोद्का
दाढ़ी और बाइबिल
भीषण सर्दियाँ
स्लेजगाड़ी और अस्तबल

मेरी दादी
नहीं था उसके पास
अपनी बेटी के लिए दहेज़
सो भेज दिया उसे
पानियों से भरे समुन्दर के पार

मेरी माँ
दस घंटे काम करती थी
आधे डॉलर के लिए
हाड़ तोड़ देने वाली उस दुकान में
मेरी माँ को मिला एक विद्वान

मेरे पिता
वे जीवित रहे किताबों,
शब्दों और कला पर,
लेकिन ज़रा भी दिल नहीं था
मकान मालिक के पास।

मैं
मैं कुछ हिस्सा उनसे बनी हूँ
कुछ हिस्से में दूने हैं वो
हालाँकि तंग बहुत किया
अपनी माँ को मैंने।

ये तो सिर्फ एक बानगी है कबाड़खाने की। ये सभी अनुवाद अशोक पांडे ने किए हैं। कबाड़ अगर ऐसा हो तो कौन नहीं, चाहेगा कि इस कबाड़ के बीच ही गुजर जाए तमाम उम्र।
अपने पसंदीदा ब्‍लॉगों की सूची में अशोक टूटी हुई, बिखरी हुई, मोहल्ला, शब्दों का सफ़र, बुग्याल, कॉफ़ी हाउस, बेदखल की डायरी और ठुमरी का नाम शुमार करते हैं।


ब्‍लॉग विधा के बारे में अशोक कहते हैं कि यह एक रंगमंच की तरह है, जहाँ आपका सामना सीधे अपने पाठक से होता है। जिस तरह के परिवर्तनों और उथल-पुथल के वक्‍त में हम जी रहे हैं, जैसा विकट यह दौर है, यह नई विधा उसकी बेचैनी को अभिव्‍यक्ति की जमीन देती है कहीं-न-कहीं। ब्‍लॉगिंग के भविष्‍य या आने वाले समय में इसकी तस्‍वीर को लेकर अशोक किसी भी तरह की जल्‍दबाज राय बनाने के पक्ष में नहीं हैं। भविष्‍य की तस्‍वीर भविष्‍य ही बताएगा।

सबसे पहले तो ब्‍लॉग के माध्यम से खुद ग्लोबलाइज़ेशन के मायने लोगों को समझाए जा सकते हैं। उसके बाद उपयोगी सूचनाओं की हिस्सेदारी होनी चाहिए : ये सूचनाएँ बहुआयामी होनी चाहिए।

हिंदी ब्‍लॉगिंग की कमजोरियों और खामियों पर उँगली रखते हुए अशोक कहते हैं कि सबकुछ के बावजूद हिन्दीभाषी समाज अभी भी उतना खुला हुआ नहीं है। हमें बहुत ज़्यादा चीज़ों से परहेज़ है और बिना सुने-पढ़े चीज़ों को ख़ारिज कर देने और आत्मलीनता में घिसटते रहना हमें बहुत भाता है। इससे निजात पाए बिना बहुत सारे दोष लगातार हिन्दी के ब्‍लॉग-संसार को शापित बनाए रखेंगे।
उनके विचार से ब्‍लॉग में विज्ञान पर बहुत कुछ लिखा जाना चाहिए। खासतौर पर युवा पाठकों को ध्यान में रखकर जो कुछ भी लिखा जाएगा, उसका एक किस्‍म का ऐतिहासिक महत्व भी होगा। पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर गंभीर कार्य की अतल संभावनाएँ हैं।

अशोक कहते हैं, ‘पिछले कुछ दिनों से ब्लागिंग और साहित्य को लेकर तमाम तरह के वक्तव्य आ रहे हैं। कुछ दिन पहले किसी ब्लॉग पर बाकायदा किसी ने लिखा था कि पिछले कुछ दशकों से हिन्दी में कोई कुछ लिख ही नहीं रहा है। कोई कहता है ब्लॉग साहित्य से बड़ी चीज़ है। कोई कहता है साहित्य अजर-अमर है।’

‘हिन्दी की सबसे बड़ी बदकिस्मती यही रही है कि लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे लुप्त होती गई है। माना कि हिन्दी के बड़े प्रकाशक अच्छी किताबों की इतनी कम प्रतियाँ छापते हैं (चालीस करोड़ भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी के किसी 'बेस्ट सेलर' की आजकल अमूमन 600 प्र‍तियाँ छपती हैं) कि लोगों तक उनका पहुँचना मुहाल होता है। लेकिन हिन्दी को बचाने का कार्य छोटे-छोटे कस्बों से निकलने वाली पत्रिकाओं ने लगातार अपने स्तर पर जारी रखा है। इस समय हिन्दी में जितनी लघु पत्रिकाएँ निकल रही हैं, उतनी कभी नहीं निकलती थीं। यह इन लघु पत्रिकाओं की देन है कि हिन्दी लेखकों की कई पीढि़याँ एक साथ कार्यरत हैं। और यह कार्य इंटरनेट और ब्लॉग के आने से कई दशक पहले से चल रहा है।’

अशोक कहते हैं, ‘अब ब्लॉग आया है तो जाहिर है, वह भी अपनी जगह बनाएगा ही। लेकिन इसमें किसी दूसरे फॉर्मेट से प्रतिद्वंद्विता की क्या ज़रूरत है। ब्लॉग ने मनचाही रचना करने की स्वतंत्रता बख्शी है तो अभी थोड़े धैर्य के साथ इस औज़ार के गुण-दोषों को चीन्हे जाने की दरकार भी महसूस होती है।’

कबाड़खाना के बारे में अशोक कहते हैं, ‘हम लोगों ने जब कबाड़खाना शुरू किया तो जाहिर है हमने इसे एक नया खिलौना जानकर काफी शरारतें भी कीं, लेकिन धीरे-धीरे एक ज़िम्मेदारी का अहसास होना शुरू हुआ और साथ ही नए-नए आयाम भी खुले और अब भी खुल रहे हैं। मुझे यकीन है कि ऐसा ही ब्लॉगिंग में मसरूफ तमाम मित्रों को भी महसूस हुआ होगा।

वे कहते हैं, ‘सबसे बड़ी चीज़ यह है कि ब्लॉग हमें एक ऐसा प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है, जहाँ हम अपनी पसन्द/नापसंद सभी के साथ बाँट सकते हैं। हम अपनी मोहब्बत भी बाँट सकते हैं और नफरत भी। हम विनम्रता बाँट सकते हैं और विनयहीनता भी। हम एक-दूसरे का तकनीकी ज्ञान भी बढ़ा सकते हैं (जैसा कि श्री रवि रतलामी और कई अन्य लोग लगातार करते रहे हैं और जिसके लिए उनका आभार व्यक्त करने को शब्द कम पड़ जाएँगे।)।

5 comments:

अजित वडनेरकर said...

सचमुच कबाड़खाना तो खजाना है।
अशोक जी को बधाई। मनीषा जी का काम भी शानदार है। ये पोस्ट डालने के लिए इरफान भाई आपका शुक्रिया । बहुत दिनों बाद आज ब्लाग-विचरण कर रहा हूं।

अविनाश वाचस्पति said...

अशोक जी
दोस्तों की जमात
तो नज़र आई
परंतु
दुश्मनों की मात
नहीं दी दिखाई ?

VIMAL VERMA said...

भाई इस कबाड़खाने की बात ही निराली है,इसके लिये अशोकजी, बधाई के पात्र हैं,मनीषाजी ने भी बहुत अच्छे से कबाड़खाने को जगह दी है जो अच्छा है.उन्हें भी शुक्रिया

Unknown said...

कबाड़खाना - याने मीठी दही की जमावन का जमना - [ है कि नहीं ?] - manish

शंकर आर्य said...

बहुत अच्छा सुंदर कबाड़ है . बौद्धिक अय्याशी का हर माल यहाँ मिलता है.