Saturday, October 13, 2007

मनोहर श्याम जोशी जी को सादर याद करते हुए ‘कसप’ से मेरा एक प्रिय अंश

(अथ डी डी उवाच )...

यह शहर मुझे तभी स्वीकार करेगा जब मैं सरकारी नौकरी पर लगूं, तरक्की पाता रहूं और अवकाश प्राप्त करके यहाँ अपने पुश्तैनी घर में लौट आऊँ और शाम को अन्य वृद्धों के साथ गाड़ी-सड़क पर टहलते हुए, छड़ी से क़मर को सहारा दिए हुए बताऊँ कि नॉक्स सैप की नोटिंग की क्या स्पेशेलिटी ठहरी और फाइनेंशियल रूल्स हैन्डबुक में अमुक चीज के बारे में क्या लिखा ठहरा।

मुझे नहीं चाहिए यह नगर। ऐसा कह रहा है नायक।

मैं लानत भेजता हूँ नगर पर, ऐसा कहते हुए नायक उस दयनीय होटल एंड रेस्टोरेंट के बाहर पहुंच गया है, जिसमें जनवासा है, लेकिन वह भीतर नहीं जा रहा है।

उसे यहीं शहर पर टहलते हुए थोक के हिसाब से लानत भेजने का काम जारीः रखना है इस नगर पर जो सुबह की पहली रोशनी में आकार ले रहा है उसकी आंखों में, उसकी स्मृति में।

मैं लानत भेजता हूँ इस नगर पर। इसके प्रत्येक वयोवृद्ध नागर, एक-एक जर्जर घर पर मैं लानत भेजता हूँ। ढहती मुन्डेरों, ढुलकती खेत-सीढियों पर, धुंधुवाए दुन्दारों, नक्काशीदार नीचे-नीचे द्वारों पर, मैं लानत भेजता हूँ। अंगूर की बेल पर¸ दाड़िम के बोठ पर¸ घर में उगे शाक पात पर¸ सोनजई के झाड़ पर¸ मैं लानत भेजता हूं। आंगन पटआंगन पर¸ उक्खल मसूल जांतर पर¸ स्लेट की छत पर¸ छत पर रखे बड़े चकमक पत्थर पर¸ नागफनी पर¸ कद्दुओं और खुबानियों पर¸ सूखती बड़ियों और मटमैली धोतियों पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

सिन्दूर पिटार पर¸ तार तार तिब्बती गलीचे पर¸ खस्ताहाल हिरण खाल पर¸ दादी की पचलड़ मोहनमाल पर¸ दादा के चांदी के चमची पंचपात्र पर¸ बच्चों के पहने धागुल सुतुल पर¸ कुल देवता पर¸ कुल पर¸ मैं लानत भेजता हूं। कीलक पर¸ कवच पर¸ रूद्री खंडग पर¸ स्रुवा आज्या इदं न मम पर¸ मैं लानत भेजता हूं। रामरक्षा अमरकोष पर¸ चक्रवर्ती के गणित¸ नेस्फील्ड के ग्रामर पर¸ लघु सिद्धान्त कौमुदी¸ रेनबो रीडर पर¸ मोनियर विलियम्स के कोश¸ एटकिंसन के गजेटियर पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

चन्दन चन्धारे पर¸ पंचांग और पट्टों पर¸ ऐंपणों ज्यूंतियों पर¸ हरियाले के डिकारों पर¸ भेंटणे की छापर पर¸ बेसुरे सकुन आखर पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

चैंस फाणा चुलकाणी पर¸ बांठ ठट्वाणी पर¸ रस भात पपटौल पर¸ चिलड़ा और जौल पर¸ मैं लानत भेजता हूं। जम्बू के छौंक पर¸ भांगे की भुनैन पर¸ कड़वे तेल की झलैन पर¸ खट्टे चूक नींबू पर¸ डकार की झुलसैंण पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

जागर पर¸ कौतिक पर¸ कथा¸ हुड़ुक बोल पर¸ हो हो होलक हुल्यारों पर¸ उमि मसलती हथेलियों पर¸ छिलूक की दीवाली पर¸ बरस दिन के घर पर¸ तिथि त्यौहार पर¸ बारसी जनमबार पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

पल्लू में बंधे सिक्कों पर¸ पुड़िया में रखे बताशों पर¸ पेंच पर ली चीजों पर¸ साहजी के यहां के हिसाब पर¸ मैं लानत भेजता हूं। ‘श्री राम स्मरण’ से शुरू हुए हर पेस्टकार्ड पर¸ देस से आए हर मनीओरडर पर¸ यहां के वैसे ही हाल पर¸ तहां की कुशल भेजना पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

अतीत के क्षय पर¸ भविष्य के भय पर¸ सीखचों के पीछे से चीखते उन्माद पर¸ खांसी के साथ होते रक्तपात पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

आप लक्ष्य कर रहे होंगे कि चिन्ताप्रद रूप से काव्यात्मक हुआ जा रहा है हमारा क्रान्तिकारी नायक।
अगर आप इससे पूछें इस समय कि भाई इसका समाधान क्या है? वह निस्संकोच उत्तर देगा¸ सारे पहाड़ियों को पंजाबी बना दो। मानो पंजाब में मध्यवग होता ही न हो¸ मानो अम्बरसर की गलियां किसी मौलिक अर्थ में अल्मोड़ा के मोहल्लों से भिन्न हों। किन्तु मैं इसे टोकूंगा नहीं। अपने वर्तमान पर लानत भेजने का युवाओं का वैसा ही अधिकार है जैसा मेरे जैसे वृद्धों को अतीत की स्मृति में भावुक हो जाने का।

थक कर होटल में घुसने से पूर्व अब नायक सिटोली के जंगल को और उस के पार नन्दादेवी और त्रिशूल की सुदूर चोटियों के देखते हुए लानत का खाता पूरा करता है।

मैं लानत भेजता हूं स्वर्गोपम गोद और नारकीय बचपन पर¸ वादियों में गूंजते संगीत पर¸ मैं लानत भेजता हूं रमकण चहा के चमकण गिलास पर¸ अत्तर सुरा तीन पत्ती फल्लास पर¸ छप्पर फटने के सपनों पर¸ अपने पर¸ अपनों पर¸ मैं लानत भेजता हूं।

सारी रात जागने के बाद¸ लानत लदवाई में इतना श्रम करने के पश्चात नायक अधिकारपूर्वक मांग करता है कि अब उसे कुछ देर शान्ति से सोने दिया जाए। अस्तु¸ सम्प्रति उससे यह न पूछना ही उचित होगा कि जिन नगरवासियों को लानत भेजी गई है¸ उन में बेबी नाम्नी कन्या सम्मिलित मानी जाय कि नहीं ?

5 comments:

काकेश said...

खूबसूरत. ये किताब मेरी प्रिय किताबों में से एक है.

दीपा पाठक said...

मुझे अभी तक याद है यह किताब मैंने एनएसडी की लाइब्रेरी में बैठ कर पढी थी और किसी हिस्से को पढ कर हँस-हँस कर लोटपोट हो रही थी तो बाहर से गुजर रहे किसी टीचर ने ‌अंदर आ कर मुझे अच्छा खासा डाँट दिया था। लेकिन जैसे ही वो बाहर निकले मेरी हँसी फिर चालू हो गई। अचानक फिर से यह किताब पढने का मन कर गया।

Bhupen said...

हंसी मारगांठ वाली बात पर तो नहीं आई?

स्वप्नदर्शी said...

bahut khoob!!!!!!!!!!!!!!

शिरीष कुमार मौर्य said...

डी0डी0 हमारे कबाड़खाने का सही प्रतिनिधि है। उसकी यहां आमद मुझे बहुत अच्छी लगी !