Sunday, October 28, 2007

अब कलम से इजारबंद ही डाल (हबीब जालिब की नज़्म 'सहाफी से')

कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

(*सहाफी : पत्रकार। इजारबंद: नाड़ा )

यह पोस्ट इस से पहले इरफान के सस्ता शेर में लगाई जा चुकी है। स्रोत: 'पहल' १८

2 comments:

Neelima said...

वाकई बडे फायदे हैं कलम के

Himanshu said...

अशोक दा उम्मीद नही पूरा भरोसा है आप नही पहचानेंगे. २-३ छोटी मुलाकातों और एक देहली से हल्द्वानी की यात्रा के अलावा और कुछ है भी नही याद दिलाने को. दीपा ने इस पेज पर ला पटका है और पिछले १ हफ्ते से लगातार नजर है मेरी इस पेज पर. खैर इस पेज पर टिपण्णी लिखने की ख़ास वजह ये है की अभी कुछ ही दिन पहले राजेंद्र यादव का एक interview पड़ा था गंगोलीहाट के एक लोकल अख़बार में और उनके अनुसार कविता का हिन्दी साहित्य में अब कोई स्थान नही है. में इससे सहमत तो खैर कभी भी नही था पर ये कविता पड़ के अपनी सोच पे पूरा भरोसा हो गया है. इतने सारे कबाड़ियों को एक जगह जमा करने का श्रेय शायद आपको ही जाता है? बहुत बहुत धन्यवाद.