Wednesday, October 24, 2007

सफर से कबाड़खाने तक .

साहबान , हम तो यूं उकताए से बैठे थे:

कोई दोस्त है रकीब है

तेरा
शहर कितना अजीब है...

यूं कोसने वाली नस्ल के हम नहीं हैं मगर मायूसी में खिसियाने लगते हैं। यही कोई चार महिने पहले इधर कबाड़ की दुकान खोली थी ।
शब्दों के सफर का बोर्ड भी लटका दिया। उधर से सरे राह पंडित अभय तिवारी गु़ज़रे तो अपनी दुकान पर भी हमारे कबाड़ का सैम्पल लगा दिया। हम तो प्रसन्न भए पर बेनामियों को रंज हो गया। ये क्या शब्द -वब्द ? बडे़ लोग कर गए है सब। लीद वीद हटाने जैसा कछु कछु बोलने लगे। हमे तो भई शौक है सो लिख रहे हैं। उधर से अब पंडित अशोक पांडे भी टकरा गए । अब अपने कबाड़खाने का माल आपके कबाड़खाने में डाल रहे हैं , हो सकता है ग्राहकी ज्यादा हो जाए :)

पेश है फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की चंद रुबाइयां -

किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी
हिलती है सुडौल बांह गोरी-गोरी
माथे पे सुहाग आंखों मे रस हाथों में
बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी


किस प्यार से होती है ख़फा बच्चे से
कुछ त्योरी चढ़ाए मुंह फेरे हुए
इस रूठने पे प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे


है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है
मां है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है
वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी
कन्या है , सुहागन है जगत माता

2 comments:

अनिल रघुराज said...

फिराक साहब की लाइनें जबरदस्त हैं..
वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी
कन्या है, सुहागन है जगत माता

Ashok Pande said...

अजित भाई, बढ़िया है। अब लगता है ये दुकान चल निकलेगी। दाम भी अच्छे मिलेंगे शायद। सीरियसली थैंक्यू।