Tuesday, October 16, 2007

अमीर ओर की कविता

आतताई

फिज़ूल नहीं था कि हमने आतताइयों का इन्तज़ार किया
फिज़ूल नहीं था कि हम शहर के चौक पर इकठ्ठा हुए
फिज़ूल नहीं था कि कि हमारे महापुरूषों ने अपनी आधिकारिक पोशाकें पहनीं
और उस अवसर के लिए अपने भाषणों का पूर्वाभ्यास किया
फिज़ूल नहीं था कि हमने अपने मन्दिरों को तहस नहस कर डाला
और उनके देवताओं के लिए नए मन्दिर खड़े किए
जैसी कि मौके की नज़ाकत थी हमने अपनी किताबों में आग लगा दी
जिनमें उस तरह के लोगों के मतलब का कुछ नहीं था।
जैसी कि भविष्यवाणी की गई थी आतताई आए
और उन्होंने राजा के हाथों से शहर की चाभी प्राप्त की ।
लेकिन जब वे आए, वे पहने हुए थे हमारे जैसे कपड़े
और उनके रिवाज़ भी थे हमारे यहां के रिवाज़ों जैसे
और जब उन्होंने हमारी ज़बान में हमें आदेश दिए
हम जानते ही नहीं थे तब उन्हें
आतताई पहुंच चुके थे हम तक।

1 comment:

शिरीष कुमार मौर्य said...

बढ़िया कविता - बढ़िया अनुवाद !
पहल का इन्तजार है !